सेवा धर्म के साथ शुरु हुई राजनीति का बदलता कलेवर

सेवा-धर्म के साथ शुरू हुई राजनीति ने अपना जो कलेवर बदलना शुरू किया तो अब उसका कोई अंत ही दृष्टि में नहीं आता। अधिकांश नेता जनप्रतिनिधित्व के वास्तविक काम को गंभीरता से नहीं लेते। चुनावी सफलता पाने के बाद वे यथाशीघ्र और यथासंभव सत्ता भोगने के उपाय आजमाने लगते हैं। ऐसे में जन-सेवा का वह संकल्प और उत्साह एक ओर धरा रह जाता है जो उनके मन में कभी तैर रहा होता था। दरअसल वे एक व्यापारी की तरह सोचने और काम करने लगते हैं। राजनीति के खिलाड़ी अहंकार में डूब कर कुछ भी करने को स्वतंत्र मान बैठते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि समाज के स्तर पर इसके कितने दूरगामी परिणाम होंगे। वे जाने-अनजाने अच्छे-बुरे विचारों, व्यवहारों और मूल्यों के बीज बोते चलते हैं। वे आचरण और सफलता के न केवल मानक स्थापित करते हैं, बल्कि उदाहरण भी जनता के सामने पेश करते चलते हैं। छोटे-बड़े नेता समाज में माडल के रूप में आते हैं। मीडिया की बेहद प्रभावी उपस्थिति से वे समाज के बड़े हिस्से को अपने असर में ले लेते हैं। यह बड़ा ही दुखद है कि सेवा-धर्म के साथ शुरू हुई राजनीति ने अपना जो कलेवर बदलना शुरू किया तो अब उसका कोई अंत ही दृष्टि में नहीं आता। बाहुबल, अपराध और धनबल के बढ़ते गठजोड़ के फलस्वरूप माफिया भी सांसद हो जाते हैं और सरकारें भी उन पर मेहरबान रहती हैं। आज राजनीति में योग्यता और सेवा का प्रश्न गौण हो रहा है। इसकी जगह लोकप्रियता और संपर्क शक्ति को वरीयता दी जाती है। इनसे भी अधिक पारिवारिक पृष्ठभूमि और आर्थिक हैसियत को महत्व मिलता है। ऐसा आदमी ठीक नेता कहा जाता है, जो जनता में अपना दबदबा बनाए रखे।
स्वास्थ्य, कानून, प्रौद्योगिकी और शिक्षा जैसे तकनीकी क्षेत्रों में ज्ञान तथा कौशल की विशेषज्ञता का कोई विकल्प नहीं होता। राजनीतिक दबाव में इसकी भी उपेक्षा होने लगी है। कोशिश यही रहती है कि यथाशक्ति अपना, अपने भरोसे का, अपनी जाति-बिरादरी का, अपनी विचारधारा का या फिर किसी तरह से (आर्थिक या अन्य) लाभ पहुंचाने वाले व्यक्ति को मौका दिया जाए। राजनीतिक संस्कृति का अनिवार्य अंश बनता जा रहा स्वार्थ का विषाणु जीवन के अन्य क्षेत्रों को बुरी तरह संक्रमित करते हुए कार्यसंस्कृति को बाधित कर रहा है। लोगों को लग रहा है कि राजनीति की इस टेढी चाल से शिक्षा की व्यवस्था और प्रशासन की प्रणाली ध्वस्त होती जा रही है। आम जनों का विशेष कर युवा वर्ग का अपनी योग्यता, क्षमता, परिश्रम और ईमानदारी पर से भरोसा उठता जा रहा है। ऐसा करते हुए नेतागण यह भूल जा रहे हैं कि पूर्वाग्रह के आधार पर भेदभाव की नीति से प्रजातंत्र की गाड़ी ज्यादा आगे नहीं जा सकती। सत्ता में आने के पहले राजनेता चुनावी दंगल में एक व्यापक दृष्टि के साथ सामने आते हैं और अचानक जादू का पिटारा खुलने लगता है। एक के बाद एक वादे किए जाते हैं। ऐसा करते हुए अक्सर सरकारी खजाने की हालत को भी अनदेखा कर दिया जाता है। सेवा-धर्म के साथ शुरू हुई राजनीति ने अपना जो कलेवर बदलना शुरू किया वह ठीक नहीं है। राजनीति के मायने ही बदलते जा रहे हैं। बाहुबल, अपराध और धनबल का गठजोड़ बढ़ता जा रहा है। इस गठजोड़ के फलस्वरूप माफिया भी सांसद और विधायक हो जाते हैं और सरकारें भी उन पर मेहरबान रहती हैं। आज राजनीति में योग्यता और सेवा का प्रश्न गौण हो रहा है। इसकी जगह लोकप्रियता और संपर्क शक्ति को वरीयता दी जाती है। इनसे भी अधिक पारिवारिक पृष्ठभूमि और आर्थिक हैसियत को महत्व मिलता है। ऐसा आदमी ठीक नेता कहा जाता है, जो जनता में अपना दबदबा बनाए रखे।
चुनाव और पद मिलने के बाद जिम्मेदार आगे बढ़ रहे हैं और जनता पीछे छूट रही है। सत्ता हासिल करने के बाद जनता की भावनाएं नेताओं के लिए कोई महत्व नहीं रखती है। इसके कारण समाज भी पिछड़ता जा रहा है। पहले के नेता समाज में मूल्यों के लिए जीते थे और अब इसके मायने बदल रहे हैं। हर छोटी और बड़ी घटनाओं पर मंथन करें तो सामने आता है कि ऐसा जिम्मेदारों के समाज से कट जाने के कारण होता है। यह भी हैरानी की बात है कि शिक्षा व्यवस्था में प्रजातंत्र जैसी बातों को काफी कम महत्व दिया जाता है। इसके कारण लोगों इसके प्रति ज्ञान का अभाव भी समाज को कमजोर बना रहा है। इसके लिए सबसे जरूरी है कि वे युवा जो नई सोच रखते हैं। समाज को आगे लेकर जाने की इच्छाशक्ति रखते हैं और ईमानदारी से वह सब कुछ करने का जिससे समाज समाज में बदलाव आए उन्हें उन्हें आगे आना चाहिए। युवा ही इसकी दिशा बदल सकते हैं। अच्छी पढ़ाई और ज्ञानवान यूथ को इसके प्रति सोचना होगा। सत्ता का मोह छोड़कर जनता और समाज के हितों के बारे में सोचना होगा। इसके बाद समाज में बदलाव निश्चत होना तय है। कुछ युवाओं का ध्यान अपनी पढ़ाई या प्रतियोगी परीक्षाओं पर रहता है, इसलिए वे राजनीति में नहीं जाना चाहते। आज भी अच्छे घरों के उच्च शिक्षित युवा राजनीति में अपना करियर बनाना चाहते हैं। कई विसंगतियां जो हमें देश की राजनीति में दिखती हैं तो उन्हें दूर करने के लिए देश के युवाओं को आगे आना होगा। देश की राजनीति को सुधारने के लिए पढ़े-लिखे युवाओं को राजनीति में आना ही होगा। भारत का भविष्य भी उज्जवल होगा।

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