अनदेखी के चलते खत्म ही हो गया घराटों का अस्तित्व

देहरादून, गढ़ संवेदना न्यूज। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में परंपरागत घराट का चलन सदियों से चलता आया। ग्रामीण क्षेत्र के लोग गेहूं की घराट से पिसाई करते रहे हैं। घटरा जो आटा निकलता है उसकी तुलना चक्की के आटे से नहीं की जा सकती। घराट के आटे को चक्की के आटे से ज्यादा बेहतर माना जाता है। यही वजह है कि मांगलिक कार्यों में पर्वतीय अंचलों में लोग घराट के आटे का ही इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन अब इसका चलन काफी कम हो गया है। समय के साथ पर्वतीय क्षेत्रों में घराटों का अस्तित्व ही खत्म हो गया। घराटों के आधुनिकीकरण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया, जिस कारण यह व्यवसाय चैपट हो गया। अब जहां घराट हैं भी वह अंतिम सांसें गिन रहे हैं।
घराट की खास बात यह है कि यह बिना बिजली के चलते हंै। लोगों का मानना है कि घराट में तैयार आटा स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक होता है। लेकिन आधुनिकता की मार घराटों पर भी साफ देखी जा सकती है। करीब एक दशक पहले तक पहाड़ी इलाकों में गेहूं पीसने के लिए घराट का उपयोग किया जाता था। साथ ही इन्हें कई लोगों की आजीविका का भी स्रोत माना जाता था, लेकिन आज आधुनिकता और टेक्नोलॉजी के दौर में पांरपरिक घराटों ने अपनी पहचान के साथ-साथ अपना अस्तित्व भी खो दिया है। घराट तकनीक का बेहतर नमूना माना जाता है, जो पानी की ऊर्जा से चलता है, लेकिन अब इनकी जगह बिजली और डीजल से चलने वाले चक्कियों ने ले ली है। एक वक्त था जब घराट ग्रामीण क्षेत्रों की एक जीवन रेखा होती थी। लोग अपने खेतों में पारंपरिक अनाजों और गेंहू, मंडुवा का उत्पादन कर उसे पानी से चलने वाले घराटों में पीसकर आटा तैयार करते थे। इन घराटों में पिसा हुआ आटा कई महीनों तक तरोताजा रहता था। साथ ही आटे की पौष्टिकता भी बनी रहती थी। यही लोगों के स्वस्थ रहने और सेहत का राज भी हुआ करता था। इन घराटों में लोग मंडवा (कोदा), गेहूं, मक्का, चैंसू जैसे स्थानीय अनाज पीसा करते थे।
कभी पहाड़ के गाड़ गधेरे से लेकर छोटी-बड़ी नदियों के किनारे पानी की कल कल के आवाज के साथ “घराट” यानी “घट” में मेला सा लगा रहता था, पहाड़ों के ये “घट” पहाड़ की सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन की धुरी हुआ करते थे, तत्कालीन समय पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं और मंडुवा पीसने का घराट यानी घट एकमात्र साधन था, “घराट” संचालक को अनाज पीसने के बदले थोड़ा बहुत अनाज मिला करता था जिससे उसकी रोजी रोटी चलती थी। आज की आधुनिक चक्की के मुकाबले “घराट” का पिसा हुआ आटा न सिर्फ पौष्टिक हुआ करता था बल्कि पहाड़ की सामाजिक संस्कृति को भी दर्शाता था, “घराट” नदी के एक छोर पर स्थापित किया जाता था। जिसमें नदी के किनारे से लगभग 100 से 150 मीटर लंबी नहरनुमा के द्वारा पानी को एक नालीदार लकड़ी (पनाले) के जरिये जिसकी ऊंचाई से 49 अंश के कोण पर स्थापित करके पानी को उससे प्रवाहित किया जाता है। पानी का तीव्र वेग होने के कारण घराट के नीचे एक गोल चक्का होता है, जो पानी के तीव्र गति से घूमने लगता है। वी आकार की एक सिरा बनाया जाता है जिसमें अनाज डाला जाता है ओर उसके नीचे की ओर अनाज निकाल कर पत्थर के गोल चक्के में प्रवाहित होकर अनाज पीसने लगता है। कई जमाने से चले रहे आ रहे पहाड़ में घराटों के संरक्षण व बढ़ावा देने की दिशा में सरकारों की ओर से कोई कार्ययोजना तैयार नहीं की गई। नब्बे के दशक के समय तक घराटों का बहुत महत्व था। घराट संचालक घराटों में गेहूं पीसने के साथ ही बिजली उत्पादन के क्षेत्र में भी कार्य करते थे, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में इससे रोजगार भी सृजित होते थे।

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