विकास में पारिस्थितिकी को जोड़कर चलने की जरूरत

डा. अनिल प्रकाश जोशी। दुनिया आज एक बड़े महत्वपूर्ण मोड़ पर आकर खड़ी है। जहां विकास भी दिखाई देता है और साथ में विनाश भी। दुनिया का ऐसा कोई भी देश नहीं है, जो विकास के पैमाने पर आगे ना बढ़ा हो और साथ में उसने कुछ विनाश ना झेला हो। फिर भी अगर कुछ देश ऐसे बचे हों जिन्होंने शुरुआती दौर से ही अपने को सीमित रखा या उसे अवसर न मिले हों तब भी उसने अन्य देशों के कारण कुछ न कुछ अवश्य झेला होगा। इसको ऐसे देख सकते हैं कि समुद्र तट पर बसे छोटे-मोटे देश, जिनका क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दे में कोई योगदान नहीं, लेकिन इन्हीं दो बड़े कारणों से आने वाले समय में पिघलती बर्फ इनके लिए बड़े संकट खड़े कर देगी। ऐसे छोटे-मोटे करीब 43 देश हैं, जो समुद्र तटों पर बसे होने के कारण जलमग्न हो जाएंगे। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि सन् 2100 तक 83 प्रतिशत ग्लेशियर पिघल सकते हैं। दूसरी तरफ जिस स्तर से वायु प्रदूषण लगातार बढ़ता चला जा रहा है, 2050 तक हम इस दुनिया को गैस चैंबर बनने की तरफ ले जाएंगे। पानी का संकट सबसे ज्यादा होगा, मिट्टी जहरीली हो रही है। पिछले 10-20 दशकों में हमने जो कुछ भी किया, उससे लाभ तो लिए पर उतना ही अब खोना भी है। या फिर कुछ नए रास्ते तैयार करने की पहल हो, ताकि हम विकास के साथ विनाशी ना बनें। यह सबसे बड़ी चिंता का समय भी है क्योंकि अगर आज यह बहस नहीं हुई तो हम और हमारी वापसी संभव नहीं होगी।
एक बात हमें जान लेनी चाहिए कि पृथ्वी में जीवन की समाप्ति कभी नहीं होगी, क्योंकि बदलती परिस्थितियों के चरम में या संसाधनों के अभाव में इंसान भले समाप्त हो जाएं लेकिन प्रकृति कुछ नए तौर-तरीकों के साथ फिर नए जीवन को पनपाएगी। इस ओर हमने लगातार बातचीत जरूर की है, लेकिन हम उन पहुलओं की तरफ कभी आगे नहीं बढ़े जो कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुके हैं। क्या यह संभव है कि हम आने वाले जीवन को इसी तरह से जी सकेंगे। यह प्रश्न आज दुनिया में उभर रहा है और बाढ़, आपदाएं, हवाओं के बदलते रुख, पानी का स्वभाव सब बदल जाना इसके उदाहरण हैं। अगर विकास चाहिए तो उसकी शैली और प्रक्रिया क्या हो? उस पर हम अपना विज्ञान, सामाजिकी, आर्थिकी के सभी पहलुओं का समावेश करके पारिस्थितिकी के साथ-साथ उसको कैसे बढ़ाएं, इस पर विचार करें। शायद तभी हम प्रकृति की खींची रेखा को पार नहीं करेंगे। नहीं तो हम सर्वनाश की ओर आगे बढ़ जाएंगे। यह साफ हो चुका है कि वर्तमान तरीके का विकास का मॉडल ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। मतलब अब विकास से पहले विनाश की चिंता कर लेनी होगी। साफ है कि बढ़ती जीडीपी जानलेवा साबित हो सकती है। इसलिए अब बचने के लिए जीईपी (ग्रॉस एनवॉयरमेंट प्रोडक्ट) पर केंद्रित होना होगा। और वो तब ही संभव होगा जब विकास में पारिस्थितिकी को जोड़कर चलें।
सभी राज्यों में सामूहिक रूप से एक बड़ा सवाल बना हुआ है। यह सवाल पानी को लेकर चिंता के रूप में है। शहर हों या घर-गांव, सभी एक साथ पानी की कमी देख रहे हैं, झेल रहे हैं। सभी जगह इस बात की स्वीकार्यता थी कि पानी का संकट सामने है। और इसका बड़ा कारण है वनों का बढ़ता अभाव। महाराष्ट्र में वनों का बहुत अभाव था, मध्यप्रदेश में इसकी कुछ झलक थी पर आगे बढ़ते-बढ़ते वनों की कमी कहीं न कहीं दिखाई दी है। वन और पानी दोनों एक-दूसरे से हैं, जल होगा तो वन पनपेंगे और वन होंगे तो जल। अभी हमारी समझ में कहीं एक चूक दिखाई देती है कि पहले जल है और उसके बाद पेड़ और वन। आज यह महसूस कराया जाना जरूरी है कि हम पहले जल संचयन-संग्रहण की बड़ी तैयारी करें तो शायद प्रकृति को उसके पहले जैसे स्वरूप में लौटाने का तुरंत एक बड़ा रास्ता तैयार कर सकते हैं।
हर स्तर पर चर्चा हुई, राजनीतिक स्तर पर भी। एक बात सबने स्वीकारी कि जिस तरह से मौसम में बदलाव हो रहे हैं और यह दिखाई भी देता है कि अक्टूबर के महीने का तापक्रम अप्रेल-मई के तापक्रम से कम नहीं है, यह इशारा है कि अब आने वाले समय में अगर हम चेते नहीं तो हमारे लिए मौसम की पहचान करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि तब अक्टूबर में जुलाई जैसी बारिश सामान्य बात होगी। सभी राज्यों में वर्षा के बदलते रुख को सब ने महसूस किया है। खेती-बाड़ी पर इसका बड़ा असर पड़ा है और किसान किसी न किसी रूप में आहत थे। इस बदलते और बढ़ते भारत के साथ कहीं ज्यादा बड़ी चिंता प्रकृति के बदलाव और घटते वन-घटते जलस्रोतों के रूप में सामने आई है। लोग प्राचीन जलस्रोतों का महत्त्व समझ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के पहले गांव तालबेहट (झांसी) में एक वेटलैंड है जिससे स्थानीय लोगों की आय भी जुड़ी हुई है। जरूरत है कि हम ऐसी वाटर बॉडीज को नए आयामों के साथ जोड़कर देखें ताकि इन जलस्रोतों का सदुपयोग हो, समुचित उपयोग हो। नदियां चाहे मध्यप्रदेश की हों, चाहे महाराष्ट्र की, खत्म होते पानी और प्रवाह से आने वाले समय में गंभीर हालात पैदा होंगे। पहला कदम यह होना चाहिए जिसकी रास्ते भर चर्चा भी की गई कि नदियों के जलागमों (वाटरशेड) को जल छिद्रों से आच्छादित कर दिया जाए। इस तरह वर्षा जल इन जल छिद्रों के माध्यम से स्वतः ही नदियों को दोबारा सींच देगा। बुंदेलखंड जो आज जल अभाव के लिए जाना जाता है, अनेक नदियों का क्षेत्र भी है और कभी इस क्षेत्र में हजारों तालाब हुआ करते थे। अब लोग इन तालाबों के उद्धार के लिए कमर कसने को तैयार हो रहे हैं।
नदियों में विषाक्त औद्योगिक कचरे का निकास नदियों को प्रदूषित कर रहा है, उसी तरह जंगल काटने से जानवरों के रहने का स्थान खत्म हो रहा है। पृथ्वी के प्रत्येक इकोसिस्टम में अनेक तरह के पौधे और जानवरों की प्रजातियां पाई जाती हैं। समय के साथ शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते मनुष्य का प्रकृति से सम्पर्क टूटता गया और तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में उसकी यह अनुभूति समाप्त हो गई कि प्रकृति भी एक जीवन्त शक्ति है। वैदिक लोकाचार ऐसे समग्र जीवन का उल्लेख करता है, जिसमें शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा सभी की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता हो। शरीर की मूलभूत आवश्यकता है खाना, कपड़ा, मकान और इसके बाद चिकित्सा व अन्य सभी भौतिक सुख-सुविधाएं। मन इच्छाओं का केन्द्र है, जो चाहता है कि इच्छाएं पूरी हों। लेकिन बुद्धि आवश्यकताओं को सीमित करने तथा इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए इस तरह मार्गदर्शन करती है कि प्रकृति के पुनर्चक्रीकरण की प्रक्रिया व सभ्य समाज के महीन तन्तु अस्त-व्यस्त न हों।

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