पांडवों ने घाटा पहाड़ से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से कराया था हनोल मंदिर का निर्माण

देहरादून। प्रसिद्ध महासू देवता मंदिर हनोल मिश्रित शैली की स्थापत्य कला को संजोए हुए है। लोक मान्यता है की पांडवों ने घाटा पहाड़ ( शिवालिक पर्वत शृंखला) से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से हनोल मंदिर का निर्माण कराया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह में सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन का घाटा पहाड़ से लाया गया एक विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है। बेजोड़ नक्काशी मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है। मुख्य मंदिर का गर्भगृह का छत्र नागर शैली का बना हुआ है। मंदिर में मंडप और मुख्य मंडप का निर्माण बाद में किया गया। इस मंदिर की निर्माण शैली इसे उत्तराखंड के अन्य मंदिरों से भिन्न एवं विशिष्ट बनाती है। यह लकड़ी और धातु से निर्मित अलंकृत छतरियों से युक्त है।
महासू मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर गर्भगृह तक चार दरवाजे हैं। प्रवेश द्वार की छत पर नवग्रह सूर्य, चंद्रमा, गुरु, बुध, शुक्र, शनि, मंगल, केतु व राहू की कलाकृति बनी हैं।

पहले और दूसरे द्वार पर माला स्वरूप विभिन्न देवी-देवताओं की कलाकृतियां पिरोयी गई हैं। दूसरे द्वार पर मंदिर के बाजगी ढोल-नगाड़े के साथ पूजा-पाठ में सहयोग करते है। तीसरे द्वार पर स्थानीय लोग, श्रद्धालु व सैलानी मत्था टेकते हैं। अंतिम द्वार से गर्भगृह में सिर्फ पुजारी को ही जाने की छूट है और वह भी पूजा के समय। महासू देवता मंदिर भगवान शिव के अवतार “महासू देवता” को समर्पित है। यह मंदिर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) के संरक्षण में है। महासू देवता मंदिर हनोल देहरादून से 190 किमी और मसूरी से 156 किमी की दूरी पर स्थित है। ‘महासू देवता’ एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द ‘महाशिव’ का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम “बासिक महासू” , “पबासिक महासू”, “बूठिया महासू (बौठा महासू)” और “चालदा महासू” है, जो कि भगवान शिव के ही रूप हैं। इनमें बासिक महासू सबसे बड़े हैं, जबकि बौठा महासू, पबासिक महासू व चालदा महासू दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर के हैं। बौठा महासू का मंदिर हनोल में, बासिक महासू का मैंद्रथ में और पबासिक महासू का मंदिर बंगाण क्षेत्र के ठडियार व देवती-देववन में है। जबकि, चालदा महासू हमेशा जौनसार-बावर, बंगाण, फतह-पर्वत व हिमाचल क्षेत्र के प्रवास पर रहते हैं। महासू देवता जौनसार बावर क्षेत्र के अराध्य देव हैं। उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है।
महासू देवता मंदिर हनोल में टौंस नदी के पूर्वी तट पर स्थित है, जो कि त्यूणी-मोरी मोटर मार्ग पर पड़ता है। हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्राह्मण हूणा भाट के नाम से मानी जाती है। इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी। द्वापर युग में पांडव लाक्षागृह (लाख के घर) से सुरक्षित निकलकर इसी स्थान पर आए थे। समुद्रतल से 1250 मीटर की ऊंचाई पर बना मिश्रित स्थापत्य शैली का यह मंदिर नवीं सदी का माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में पानी की एक धारा भी फूटती है, लेकिन उसका स्रोत कहां है और कहां जल की निकासी होती है, इस बारे में कोई नहीं जानता। श्रद्धालुओं को यही जल प्रसाद के रूप में दिया जाता है। इसके अलावा गर्भगृह में एक दिव्य ज्योत भी सदैव जलती रहती है।
इनकी पालकी को क्षेत्रीय लोग पूजा-अर्चना के लिए नियमित अंतराल पर एक जगह से दूसरी जगह प्रवास पर ले जाते हैं। देवता के प्रवास पर रहने से कई खतों में दशकों बाद चालदा महासू के दर्शन नसीब हो पाते हैं। कुछ इलाकों में तो देवता के दर्शनों की चाह में पीढ़ियां गुजर जाती हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता को इष्ट देव (कुल देवता) के रूप में पूजा जाता है। हनोल स्थित मंदिर चारों महासू भाइयों का मुख्य मंदिर है। इस मंदिर में मुख्य रूप से बूठिया महासू (बौठा महासू) की पूजा होती है। मैंद्रथ नामक स्थान पर बासिक महासू और की पूजा होती है। टोंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित ठडियार (उत्तरकाशी) गांव में पबासिक महासू पूजे जाते हैं। ठडियार हनोल से करीब तीन किमी दूर है। सबसे छोटे भाई चालदा महासू भ्रमणप्रिय देवता हैं, जो कि 12 वर्ष तक उत्तरकाशी और 12 वर्ष तक देहरादून जिले में भ्रमण करते हैं।

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