विलुप्त होती लोक भाषाओं को बचाने को कदम उठाने की जरूरत  

लोक भाषाओं का अपना लोक संसार रहा है, लेकिन अब यह खत्म होने की कगार पर हैं। कारण यह कि जिस भाषा में यह लोक संसार रचा बसा है, वही भाषा, बोली अब खत्म होती जा रही हैं। आशंका जताई जा रही है कि यदि लोक बोली व भाषाओं को पुनर्जीवित करने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए गए, तो ये विलुप्त हो जाएंगी। जिस प्रकार हर एक कोस पर पानी का स्वाद बदलता है उसी प्रकार भाषा भी बदलती है। भारत सबसे ज्यादा भाषाओं और बोलियों का प्रयोग करने वाला देश है, जहां अनेक भाषाओं को मानने वाले लोग रहते हैं। लेकिन विविधताओं के इस देश में धीरे धीरे लोक भाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं। “कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी” यह कहावत भारत की विविधता को व्यक्त करती है जिसका अर्थ है जिस प्रकार हर एक कोस पर पानी का स्वाद बदलता है, उसी प्रकार भाषा भी बदलती है। खासकर उत्तराखण्ड, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और गुजरात जैसे प्रदेश अपनी सांस्कृतिक विविधता और लोकसंपदा की समृद्धता के कारण पहचाने जाते रहे हैं।
संविधान की आठवीं अनुसूची के अनुसार भारत में 22 भाषाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त है। जिसमें असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी शामिल हैं। पहले इनकी संख्या 14 थी। लगभग 100 भाषाएं हैं जिन्हें आधिकारिक दर्जा प्राप्त नहीं है। भाषाओं के अतिरिक्त अगर इसमें इनकी उपबोलियों को भी मिला दिया जाय तो एक अनुमान के अनुसार इनकी सांख्या लगभग 19 हजार है। आधिकारिक रूप ये भाषाएं जिनका प्रयोग भारत में आधिकारिक कार्यों के लिए किया जाता है, वो है हिंदी और अंग्रेजी। पहले इसमें अंग्रेजी को स्थान नहीं दिया गया था बाद में “द ऑफिसियल लैंग्वेजेज एक्ट-1963” के अंग्रेजी को भी इसमें जोड़ा गया। इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या या तो कम हो गई है या खत्म ही हो गई है। काफी बड़ी तादाद में लोग अपनी मातृभाषा को छोड़ते जा रहे हैं और अन्य भाषाएं अपनाते जा रहे हैं। गांवों से शहर की ओर पलायन के कारण भी लोग अपनी भाषाओं को भूलते जा रहे हैं और अन्य राज्यों की भाषा को अपनाते चले जा रहे हैं। शोधकर्ताओं द्वारा इसका एक अन्य कारण भारत की शिक्षा व्यवस्था को बताया जा रहा है। जहां केवल कुछ ही भाषाओं को महत्व दिया जाता और अन्य भाषाओं को नजरंदाज कर दिया जाता है। महात्मा गांधी ने कहा था “राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा में नहीं बल्कि किसी अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है।” शोधकर्ताओं के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में अन्य भाषाओं के ज्ञान का विस्तार करना आवश्यक है। साथ ही शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं को भी महत्व दिया जाना चाहिए, जिससे उन्हें विलुप्त होने से बचाया जा सके। भारत ही नहीं यह त्रासदी पूरे संसार में फैली हुई है। पहले विश्व में लगभग 16 हजार  भाषाएं बोली जाती थीं। लेकिन मौजूदा समय में लगभग 2 हजार 500 भाषाएं संकटग्रस्त हैं अर्थात लुप्त होने की कगार पर हैं। वहीं कुछ भाषाएं तो ऐसी हैं जिसे जानने ओर समझने वाले मात्र 1000 से भी कम संख्या में रह गए हैं। “जब कोई समुदाय अपनी भाषा खो देता है, तो वह अक्सर उसी समय अपनी सांस्कृतिक पहचान भी खो देता है। हालाँकि भाषा की हानि स्वैच्छिक या अनैच्छिक हो सकती है, इसमें हमेशा किसी न किसी प्रकार का दबाव शामिल होता है, और इसे अक्सर सामाजिक पहचान की हानि या हार के प्रतीक के रूप में महसूस किया जाता है। अक्सर इस प्रक्रिया में परंपराएँ अचानक खो जाती हैं और उनकी जगह सांस्कृतिक आदतें ले लेती हैं। अधिक शक्तिशाली समूह इन कारणों से, दूसरों के बीच, समुदाय के लिए अक्सर यह बहुत महत्वपूर्ण होता है कि उसकी भाषा जीवित रहे। किसी भाषा के खत्म होने से दुनिया के इतिहास, विविधता और संस्कृतियों के बारे में हमारी समझ पर भी असर पड़ता है। जब भाषाएँ मरती हैं, तो अक्सर उसे बोलने वाले लोगों का इतिहास, परंपराएँ और संस्कृति भी मर जोती है। किसी मृत भाषा को फिर से जीवित करना आसान नहीं है। संयुक्त राष्ट्र ने ऐसी 42 भारतीय भाषाओं या बोलियों की सूची तैयार की है, यह सभी खतरे में हैं और धीरे-धीरे विलुप्त होने की ओर बढ़ रही हैं। संकटग्रस्त भाषाओं में 11 अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की हैं। इन भाषाओं के नाम ग्रेट अंडमानीज, जरावा, लामोंगजी, लुरो, मियोत, ओंगे, पु, सनेन्यो, सेंतिलीज, शोम्पेन और तकाहनयिलांग हैं। मणिपुर की सात संकटग्रस्त भाषाएं एमोल, अक्का, कोइरेन, लामगैंग, लैंगरोंग, पुरुम और तराओ हैं। हिमाचल प्रदेश की चार भाषाएं बघाती, हंदुरी, पंगवाली और सिरमौदी भी खतरे में हैं। अन्य संकटग्रस्त भाषाओं में ओडिशा की मंडा, परजी और पेंगो हैं। कर्नाटक की कोरागा और कुरुबा जबकि आंध्र प्रदेश की गडाबा और नैकी हैं। तमिलनाडु की कोटा और टोडा विलुप्त प्राय हैं। असम की नोरा और ताई रोंग भी खतरे में हैं। उत्तराखंड की बंगानी, झारखंड की बिरहोर, महाराष्ट्र की निहाली, मेघालय की रुगा और पश्चिम बंगाल की टोटो भी विलुप्त होने की कगार पर हैं। देश में 100 गैर-सूचीबद्ध भाषाएं भी हैं। इन्हें लोग बड़े पैमाने पर बोलते और लिखते-पढ़ते हैं। समझा जाता है कि इन भाषाओं को कम से कम एक लाख लोग या उससे अधिक लोग बोलते हैं। इनके अतिरिक्त देश में 31 अन्य भाषाएं भी हैं जिन्हें विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों ने आधिकारिक भाषा की मान्यता दी हुई है। 38 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की जा रही है। इनमें अंगिका, बंजारा, बाजिका, भोजपुरी, भोति, भोतिया, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, धातकी, गढ़वाली, कुमांऊनी, गोंडी, गुज्जरी, हो, कच्चाछी, कामतापुरी, कार्बी, खासी, कोडावा (कोरगी), कोक बराक, कुरक, कुरमाली, लीपछा, लिम्बू, मिजो (लुशाई), मगही, मुंदरी, नागपुरी, निकोबारीज, हिमाचली, पाली, राजस्थानी, संबलपुरी, कोसाली, शौरसेनी (प्रकृत), सिरैकी, तेन्यिदी, तुल्लू शामिल हैं। सरकार को इस दिशा में जरूरी कदम उठाए जाने की जरूरत है।

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