समुद्र मंथन में निकले विष को पीने के बाद भगवान शिव ने वर्षों तक की थी यहां तपस्या

देहरादून। मणिकूट पर्वत की तलहटी में मधमति (मणिभद्रा) और पंकजा (चन्द्रभद्रा) नदी के संगम पर प्राचीन नीलकंठ महादेव मंदिर स्थित है। पौराणिक काल से इस मंदिर के लिए धार्मिक आस्था रही है। मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले विष को पीने के बाद उस विष की उष्णा को शांत करने के लिए भगवान शिव ने यहां पर हजारों वर्ष तक तपस्या की थी। श्रावण मास में नीलकंठ महादेव मंदिर में दर्शन और जलाभिषेक का बड़ा महत्व है।

नीलकंठ महादेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित प्राचीन पवित्र मंदिर है। नीलकंठ महादेव मंदिर पौड़ी गढ़वाल जिले के अंतर्गत ऋषिकेश के स्वर्गाश्रम (राम झुला या शिवानन्द झुला) से किलोमीटर की दूरी पर मणिकूट पर्वत की घाटी पर स्थित है। मणिकूट पर्वत की गोद में स्थित मधुमती व पंकजा नदियों के ईशानमुखी संगम स्थल पर स्थित नीलकंठ महादेव मन्दिर प्रसिद्ध धार्मिक केन्द्र है। नीलकंठ महादेव मंदिर ऋषिकेश के सबसे पूज्य मंदिरों में से एक है। यह मंदिर समुन्द्रतल से 1675 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नीलकंठ महादेव मंदिर में बड़ा ही आकर्षित शिव का मंदिर बना है एवम् मंदिर के बाहर नक्काशियो में समुन्द्र मंथन की कथा बनायी गयी है। नीलकंठ महादेव मंदिर के मुख्य द्वार पर द्वारपालो की प्रतिमा बनी है। मंदिर परिसर में कपिल मुनि और गणेश जी की मूर्ति स्थापित है। नीलकंठ महादेव मंदिर की सामने की पहाड़ी पर भगवान शिव की पत्नी “पार्वती” जी को समर्पित एक मंदिर है। मंदिर में शिवरात्रि और सावन में श्रधालुओ की काफी भीड़ लगी रहती है, बाकी के साल नीलकंठ महादेव मंदिर में नीलकंठ महादेव के दर्शन आसानी से किये जा सकते है। अन्य शिव मंदिर की तुलना में नीलकंठ महादेव मंदिर में चांदी से बने शिवलिंग का काफी नजदीक से दर्शन कर सकते है। मंदिर प्रांगण में अखंड धुनी जलती रहती है और उस धुनी की भभूत को श्रद्धालु प्रसाद के तौर पर लेकर जाते है।

नीलकंठ महादेव मंदिर के बारे में पुराणों की कथा के अनुसार एक बार किसी कारण देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत के लिए मंथन हुआ था और वो मंथन दूध के सागर (क्षीरसागर) में हुआ था। उस मंथन में से 14 रत्न निकले (लक्ष्मी , शंख , कौस्तुभमणि , ऐरावत , पारिजात , उच्चेश्रवा , कामधेनु , कालकूट , रम्भा नामक अप्सरा , वारुणी मदिरा , चन्द्रमा , धन्वन्तरि ,अमृत और कल्पवृक्ष)। देवता अपनी चतुराई से 14 रत्नों में से अमृत ले जाने में सफल हो गए लेकिन अमृत के साथ-साथ विष भी निकला था और वो विष इतना खतरनाक था कि उसकी एक बूंद पूरी दुनिया अर्थात संसार को खतम करने की शक्ति रखती थी, इस बात को जानकर देवता और राक्षस भयभीत हो गए और विष का निवारण पाने के लिए भगवान शिव जी के समक्ष पहुंचे। फिर भगवान शिव ने विष के प्रभाव से बचने के लिए एक उत्तर निकाला कि विष को स्वयं खुद पियेंगे। भगवान शिव ने विष से भरा घड़ा उठाया और देखते ही देखते पूरा विष पी गए लेकिन शिवजी ने विष को अपने गले से निचे नहीं निगला , उन्होंने विष को अपने गले में ही अटकाये रखा। विष पीने के बाद भगवान शिव का गला नीला हो गया और तब से भगवान शिव को “नीलकंठ” के नाम से भी जाना जाने लगा।

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