बढ़ते वायु प्रदूषण से खड़ी हो रही कई समस्याएं

भारत डोगरा। वायु प्रदूषण महज चिंता का नहीं, हमारे अस्तित्व से जुड़ा विषय बन गया है। यह ऐसा संकट है जिसे हम अपनी हर सांस के साथ अपने फेफड़ों में महसूस करते हैं। दुनिया भर में सालाना करीब 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण हुए फेफड़ों के कैंसर, हृदय रोग और स्ट्रोक से असमय जान गंवा बैठते हैं। चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड जैसे वायु प्रदूषक ग्रीनहाउस गैसें भी हैं, इसलिए उन्हें कम करना और भी जरूरी हो जाता है।
भारतीय शहर वायु प्रदूषण संकट के केंद्र में हैं। विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत का एक भी शहर 2.5 प्रति घन मीटर हवा में 5 माइक्रोग्राम पीएम (पार्टिकुलेट मैटर) के संशोधित डब्ल्यूएचओ सुरक्षा मानकों पर खरा नहीं उतरता था। इतना ही नहीं, हमारे लगभग आधे शहरों में पार्टिकुलेट मैटर इस सीमा से तकरीबन 10 गुना पाए गए। शिकागो विश्वविद्यालय में ऊर्जा नीति संस्थान (ईपीआईसी) के एक अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली जैसे अत्यधिक प्रदूषित शहर में जीवन प्रत्याशा नौ साल तक कम हो गई है। दिल्ली पीएम 2.5 सांद्रता के वार्षिक औसत के आधार पर दुनिया का चैथा सबसे प्रदूषित शहर है। चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है कि यह स्थिति राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू होने के बावजूद है जिसमें 100 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों को शामिल किया गया था।
न केवल दिल्ली जैसे भूमि से घिरे शहरों (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य छोटे-बड़े शहरों समेत) में गंभीर वायु प्रदूषण की रिपोर्ट बार-बार आई है बल्कि मुंबई जैसे तटीय शहर भी वायु प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं जिन्हें कुछ साल पहले तक ताजी समुद्री हवाओं के कारण इस तरह के प्रदूषण से सुरक्षित माना जाता था। अफसोस की बात है कि अब यह स्थिति नहीं रही और इसके लिए अंधाधुंध निर्माण समेत तमाम मनुष्य जनित कारक जिम्मेदार हैं। पूरी दुनिया इस संकट से जूझ रही है और ऐसे में वायु प्रदूषण को रोकने के मामले में कुछ उल्लेखनीय सफलताओं की ओर ध्यान नहीं जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के एक हालिया नोट में पांच शहरों- पेरिस, न्यूयॉर्क, सियोल, बोगोटा और अकरा में कुछ उत्साहजनक पहलों का उल्लेख किया गया है। घाना का अकरा वह पहला अफ्रीकी शहर है जो ‘ब्रीथलाई’ अभियान में शामिल हुआ है। ‘ब्रीथलाई’ अभियान को कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने मिलकर शुरू किया है। सियोल की एक एक पहल ने मुझे खास तौर पर प्रभावित किया जिसके तहत शहर के केन्द्र में हवा पहुंचाने के लिए नदियों और सड़कों के किनारे पेड़ लगाकर एक ‘पवन पथ वन’ बनाने पर काम चल रहा है। क्या ऐसे आविष्कार हमें भारत में प्रेरणा दे सकते हैं? जबकि एनसीएपी की लॉन्चिंग एक बहुत जरूरी कदम था लेकिन कम फंडिंग और अस्पष्ट दृष्टि के कारण शुरू से ही इसमें बाधा उत्पन्न हो गई। बेशक रायपुर जैसे शहरों में कुछ अल्पकालिक सफलताएं मिली हैं लेकिन कुल मिलाकर स्थिति बहुत निराशाजनक और चिंताजनक बनी हुई है।
चूंकि विभिन्न सरकारों के नियंत्रण में आने वाले कई शहर समान रूप से गंभीर प्रदूषण समस्याओं से जूझ रहे हैं, इसलिए दोष किसी एक पर नहीं मढ़ा जा सकता, बल्कि इसे शासन की एक बड़ी विफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। यह विफलता इसलिए है कि 21वीं सदी के शहरी शासन को पर्यावरण के मुद्दे पर जितना संवेदनशील और गंभीर होना चाहिए था, वह सुनिश्चित नहीं हो सका। अच्छी तरह से सूचित योजना और विचारशील कार्यान्वयन के बजाय, भारत में शहरी शासन अक्सर तदर्थ प्रतिक्रियाओं, लोकलुभावनवाद और भ्रष्टाचार से प्रेरित होता है। जिस बात को अब भी स्वीकार नहीं किया जा रहा है, वह यह है कि प्रदूषण नियंत्रण शहरी विकास के मूल में होना चाहिए। हमारी खराब विरासत और भविष्य के लिए बढ़ती चिंताओं को देखते हुए शहरी नियोजन को बहुस्तरीय सुधारों के साथ एक बड़ी भूमिका निभाने की जरूरत है। जब दिल्ली जैसे शहर की बात आती है जिसका देश की राजधानी के रूप में खास महत्व है, तो आंकड़ों, अध्ययनों और उन पर आधारित विभिन्न पहलों की कोई कमी नहीं है। फिर भी, पूरे सिस्टम में भयावह कमियां बनी हुई हैं। हमारा अनुभव यही है कि जब वायु प्रदूषण की समस्या गंभीरतम होती है, तभी हम इस मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान देते हैं, अन्यथा इसे भुलाए रहते हैं। यानी वायु प्रदूषण के प्रति हमारी चिंता एक अवधि तक ही सीमित रहती है जिसके परिणामस्वरूप प्रदूषण के आधार स्तर में कोई कमी नहीं आई है।
उत्सर्जन मानकों सहित वाहन प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार द्वारा उठाए जा रहे विभिन्न कदमों के बारे में काफी कुछ कहा गया है। हो सकता है कि इन कदमों ने थोड़ी-बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई हो। लेकिन अगर आप व्यापक परिदृश्य को देखें तो पता चलेगा कि कैसे इन नीतियों ने निजी कार स्वामित्व की बहुत तेज वृद्धि का भी समर्थन किया है जो हमारे शहरों के स्वास्थ्य के लिहाज से सुरक्षित दर से कहीं ज्यादा है। इसके साथ ही सार्वजनिक परिवहन पर उतना ध्यान नहीं दिया गया और स्थिति यह है कि कई जगहों पर इसकी हालत बदतर ही हो गई है। एक अन्य पहलू जिसने वास्तविक परिणामों की तुलना में मीडिया का अधिक ध्यान आकर्षित किया है, वह है पराली जलाना। इसके कई समाधान सुझाए गए हैं जिनमें से कई के साथ व्यावहारिक दिक्कतें हैं। एक बहुचर्चित समाधान धान की फसल के डंठल के लिए आर्थिक रूप से लाभदायक उपयोग ढूंढना, इन्फ्रास्ट्रक्चर की स्थापना करना है। लेकिन इस तरह का ढांचा खड़ा करने में काफी निवेश की जरूरत होगी। दूसरा सुझाव है खरीफ सीजन में धान की खेती के स्थान पर कम पानी वाली फसलें उगाई जाएं। हमें बताया गया है कि इससे न केवल पराली की समस्या बल्कि पानी के अत्यधिक दोहन की समस्या भी हल हो जाएगी। स्पष्ट रूप से, दोनों दृष्टिकोण एक-दूसरे के अनुरूप नहीं हैं। लेकिन वर्षों की बहस के बाद ऐसा लगता है कि दोनों में से किसी को भी अगले स्तर पर नहीं ले जाया गया है।
गलत नीतियां जो न केवल प्रदूषण बढ़ाती हैं बल्कि, इसके अलावा, मनुष्यों, खासकर कमजोर वर्गों के लिए अत्यधिक अन्यायपूर्ण हैं।
शहरों के बाहरी इलाके में जहां सबसे गरीब लोगों को धकेला जा रहा है, वहां साफ-सफाई और पानी सहित जरूरी सुविधाओं में आनुपातिक वृद्धि नहीं हुई। निहायत गंदगी और निहायत बेरोजगारी सरकारी ‘सफाई अभियान’ के दो तुरंत दिखाई देने वाले परिणाम हैं। यह एक गंवाया हुआ अवसर है। अगर रचनात्मक रूप से उपयोग किया जाए, तो अर्ध-शहरी क्षेत्र वनीकरण और कृषि-पारिस्थितिकी का केन्द्र बन सकते हैं जो स्वच्छ हवा के साथ-साथ शहर को ताजा और स्वस्थ भोजन की आपूर्ति में योगदान दे सकते हैं। जबकि अब तक प्रदूषण में कमी की परिकल्पना एक ऐसे एजेंडे के रूप में की गई है जो गरीबों को उनके घरों और आजीविका से विस्थापित करता है, शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में हरित कार्यक्रमों के लिए एक मजबूत मामला है जो गरीबों को बड़े पैमाने पर अत्यधिक रचनात्मक नौकरियां प्रदान कर सकता है। सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण के लिए चिंताओं को मिलाकर चलना मुझे भारत में शहरी नियोजन और शासन के लिए सबसे अच्छा तरीका लगता है। प्रदूषण रोकने के किसी भी प्रयास का ठोस वैज्ञानिक आधार होना चाहिए। इस मामले में अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण काम नहीं करेगा। इसलिए, इस महत्वपूर्ण काम को आम लोगों, खास तौर पर कमजोर वर्गों की सुप्त ऊर्जा और रचनात्मकता से जोड़ा जाना चाहिए। आज उपेक्षा और बेरोजगारी से जूझ रहे सबसे गरीब लोग शहरी भारत के पारिस्थितिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते शहरों की हरियाली में उनके लिए पर्याप्त रचनात्मक आजीविका उत्पन्न की जाए।

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