नई दिल्ली। केंद्र सरकार की तमाम नीतियों, प्रयासों और वित्तीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद पॉक्सो के मामलों की सुनवाई के लिए बनाई गई विशेष त्वरित अदालतों में 31 जनवरी 2023 तक देश में 2,43,237 मामले लंबित थे। अगर लंबित मामलों की इस संख्या में एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए तो भी इन सारे मामलों के निपटारे में कम से कम नौ साल का समय लगेगा। उत्तराखंड की बात करें तो यहां पॉक्सो के लंबित मामलों के निपटारे में तकरीबन 16 साल का वक्त लगेगा। साथ ही 2022 में देश में पॉक्सो के सिर्फ तीन फीसदी मामलों में सजा सुनाई गई। ये चौंकाने वाले तथ्य इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) की ओर से जारी शोधपत्र ‘जस्टिस अवेट्स : ऐन एनालिसिस ऑफ द एफिकेसी ऑफ जस्टिस डेलिवरी मैकेनिज्म्स इन केसेज ऑफ चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज’ से उजागर हुए हैं। यौन शोषण के शिकार बच्चों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा 2019 में एक ऐतिहासिक कदम के जरिए फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों के गठन और हर साल इसके लिए करोड़ों की राशि देने के बावजूद इस शोधपत्र के निष्कर्षों से देश के न्यायिक तंत्र की क्षमता और दक्षता पर सवालिया निशान उठ खड़े होते हैं।
शोधपत्र आगे कहता है कि मौजूदा हालात में जनवरी, 2023 तक के पॉक्सो के लंबित मामलों के निपटारे में अरुणाचल प्रदेश को 30 साल लग जाएंगे, जबकि दिल्ली को 27, बिहार को 26, पश्चिम बंगाल को 25, मेघालय को 21 और उत्तर प्रदेश को 22 साल लगेंगे।
फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों जैसी विशेषीकृत अदालतों की स्थापना का प्राथमिक उद्देश्य यौन उत्पीड़न के मामलों और खास तौर से यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम से मुड़े मामलों का त्वरित गति से निपटारा करना था। इनका गठन 2019 में किया गया और भारत सरकार ने हाल ही में केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में इसे 2026 तक जारी रखने के लिए 1900 करोड़ रुपए की बजटीय राशि के आबंटन को मंजूरी दी है। इन फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों के गठन के बाद माना गया कि वे इस तरह के मामलों का साल भर के भीतर निपटारा कर लेंगी लेकिन इन अदालतों में आए कुल 2,68,038 मुकदमों में से महज 8,909 मुकदमों में ही अपराधियों को सजा सुनाई जा सकी है।
अध्ययन से यह उजागर हुआ है कि प्रत्येक फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालत ने साल भर में औसतन सिर्फ 28 मामलों का निपटारा किया। इसका अर्थ यह है कि एक मुकदमे के निपटारे पर नौ लाख रुपए का खर्च आया। शोधपत्र के अनुसार, “प्रत्येक विशेष अदालत से हर तिमाही 41-42 और साल में कम से कम 165 मामलों के निपटारे की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन आंकड़ों से लगता है कि गठन के तीन साल बाद भी ये विशेष अदालतें अपने तय लक्ष्य को हासिल करने में विफल रही हैं।”
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए शोधपत्र आगे कहता है कि बाल विवाह बच्चों के साथ बलात्कार है। उधर, वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देश में रोजाना 4,442 नाबालिग लड़कियों को शादी का जोड़ा पहना दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि देश में हर मिनट तीन बच्चियों को बाल विवाह के नर्क में झोंक दिया जाता है जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट कहती है कि देश में बाल विवाह के रोजाना सिर्फ तीन मामले दर्ज होते हैं।
इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड के संस्थापक भुवन ऋभु ने बाल विवाह को रोकने के लिए देश में मजबूत नीतियों, कड़े कानूनों और पर्याप्त वित्तीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद सजा की मामूली दरों को गंभीर चिंता का विषय करार दिया। भुवन ऋभु ने कहा, “कानून की भावना को हर बच्चे के लिए न्याय में रूपांतरित होने की जरूरत है। अगर बच्चों के यौन शोषण के आरोपियों में महज तीन प्रतिशत को ही सजा मिल पाती है तो ऐसे में कहा जा सकता है कि कानूनी निरोधक उपाय नाकाम हैं। अगर पीड़ित बच्चों को बचाना है तो सबसे जरूरी चीज यह है कि बच्चों और उनके परिवारों की सुरक्षा की जाए, उनके पुनर्वास और क्षतिपूर्ति के इंतजाम किए जाएं और पूरा न्यायिक तंत्र निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी ऊपरी अदालतों तक मुकदमे का समयबद्ध निपटारा सुनिश्चित करे।”
यौन शोषण के पीड़ित बच्चों को एक समयबद्ध और बच्चों के प्रति मैत्रीपूर्ण तरीके से न्याय दिलाना सुनिश्चित करने और लंबित मामलों के निपटारे के लिए इस शोधपत्र में कई अहम सिफारिशें की गई हैं।
सर्वप्रथम, सभी फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतें संचालन में हों और वे कितने मामलों का निपटारा कर रहे हैं, इसकी निगरानी के लिए एक फ्रेमवर्क हो। इसके अलावा इन अदालतों से संबद्ध पुलिस से लेकर जजों और और पूरा अदालती स्टाफ को पूरी तरह सिर्फ इन्हीं अदालतों के काम के लिए रखा जाए ताकि ये प्राथमिकता के आधार पर मामलों को अपने हाथ में ले सकें। साथ ही लंबित मामलों के निपटारे के लिए इन अदालतों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही पारदर्शिता के लिए इन सभी सभी फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों के कामकाज को सार्वजनिक दायरे में लाया जाए। यह रिपोर्ट विधि एवं कानून मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एवं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से मिले आंकड़ों पर आधारित है।
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