दल-बदल का सीजन 

विधानसभा चुनाव की तिथियां घोषित होते ही विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए दल-बदल का सीजन भी आरंभ हो गया है। नेता एक दल से दूसरे दल में जाने लगे हैं। जहां जिसको चुनाव लड़ने के लिए अनुकूल लग रहा हैं वे वहां का रुख कर रहे हैं। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मणिपुर व गोवा में नेता इतनी तेजी से इधर-उधर हो रहे हैं कि हिसाब रख पाना कठिन हो गया है। अधिकांश नेताओं की किसी राजनीतिक पार्टी व उसकी विचारधारा में आस्था व निष्ठा नहीं है, उन्हें तो केवल इस बात से मतलब है कि नए चुनाव में कैसे सदन का सदस्य बना जाए ताकि मंत्री बनने की संभावना बनी रहे। इस दल-बदल का चुनाव परिणामों या राजनीतिक पार्टियों की संभावनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इन दल-बदलुओं से बार-बार छली जाने वाली आम जनता क्या इस बार इन्हें कोई सबक सिखाएगी। दल-बदलुओं की वजह से राजनीतिक दलों के वफादार कार्यकर्ताओं को बहुत तकलीफ होती है, क्योंकि टिकट पाने की उनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। लेकिन लाचारी यह है कि उनके पास केवल तीन विकल्प रहते हैं। कुंठित होकर अपनी ही पार्टी में घुटते हुए अपने समय की प्रतीक्षा करते रहें, दल-बदल कर लें या अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को हरा दें।
एक राजनीतिज्ञ एक जादूगर की तरह होता है जो हमारा ध्यान उस चीज से हटा देता है जो वह वास्तव में कर रहा होता है यानी उसकी निगाहें कहीं और होती हैं और निशाना कहीं और होता है। इस सियासी जादूगरी को समझने के लिए यह बाद ध्यान में रखना आवश्यक है कि चुनाव शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, महंगाई आदि महत्वपूर्ण मुद्दों पर नहीं होते हैं, बल्कि उनका आधार जातिगत समीकरण होता है।
एक राजनीतिक परिपाटी ही बन गई है कि हर राजनीतिक दल, दल-बदलुओं का बाहें पसारकर स्वागत कर रहा है। इसमें वे दल सबसे आगे हैं, जो सत्ता में हैं। कल तक सत्तारूढ़ दल को घोर साम्प्रदायिक, देश-विरोधी और अमर्यादित बताने वाला कोई नेता दूसरी सुबह उसी दल के मंच पर उसी का झंडा थामे उसके गुणगान करता नज़र आता है। वह कहता है कि मैं तो सदा से इसी दल का समर्थक था, मजबूरी में दूसरे दल में पड़ा था। यह वास्तव में मेरी घर वापसी है। उसके समर्थक उसके नारे लगाते हैं और जनता हैरत से देखती रहती है। क्या ऐसा करके राजनीतिक दल और उनके नेता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल मंत्र और चुनाव-व्यवस्था और संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं करते? राजनीतिक दलों और नेताओं को लगता है कि कोई फर्क ही नहीं पड़ता। इसमें वे कुछ गलत, अनैतिक देखते ही नहीं। आखिर इसे क्यों उचित माना जाता है? यह उचित इसलिए नहीं है कि दल विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा के आधार पर बनते हैं। चुनाव होते हैं तो जनता राजनीतिक दलों को अपना मत सोच-विचार कर देती है। किसी प्रत्याशी को वोट देने या न देने के लिए उसके पास कुछ कारण होते हैं। जनता के लिए यह एक मौका होता है, जब वह दलों एवं नेताओं के काम-काज का, उनकी उपलब्धियों का और उनके वादे पूरे करने की सच्चाई का मूल्यांकन करती है। जनता के लोगों के पास वोट के रूप में एक ऐसा शस्त्र है, जिससे वह अपने प्रतिनिधि को बदल सकती है, एक पार्टी को हराकर दूसरी को जिता सकती है। अगर उनका प्रतिनिधि उनके लिए उपादेय नहीं होता तो वह उसे अस्वीकार कर सकती है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है लोकतांत्रिक व्यवस्था में। एक पार्टी से चुनाव जीतकर दूसरे दल में जाने वाला दल बदलू जनता के इस हथियार को बेकार करने का अपराध करता है। जो राजनीतिक दल उसे स्वीकार करते हैं वे संविधान की मूल भावना को पराजित करते का काम करते हैं। किसी को भी यह अनुमति नहीं हो सकती कि वह जनता की उस शक्ति को छीन ले, जो उन्हें संविधान ने प्रदान की है। जब एक वोटर मतदान केंद्र पर होता है तब अपना वोट देते समय वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है, इस शक्ति का प्रयोग वह अपनी उम्मीदों को ध्यान में रखकर करता है। कई बार वह विचारधारा को भी ध्यान में रखता है। दल बदलुओं को अपना मंच देकर राजनीतिक दल आम आदमी के मन में निराशा पैदा करते हैं। दल-बदल की प्रवृत्ति राजनीतिक चकाचौंध के वर्तमान माहौल में काफी तेजी से बढ़ती आई है। ईमानदार, अच्छी सोच वाले दूरदर्शी नेता लुप्त होते जा रहे हैं। राजनीति आज के दौर में बाहुबल और धन से प्रभावित ही नहीं हो रही, उसी का वर्चस्व है। राजनीति अब पूर्णकालिक रोजगार बन गया है। पहले राजनीति देश की सेवा के लिए की जाती थी, अब देश राजनेताओं की सेवा में रहता है। यह बहुत कटु और दुर्भाग्यपूर्ण बात है, लेकिन सत्य है। ऐसा नहीं होता क्यों कोई नेता बिना विचार और सिद्धांत के किसी भी पार्टी में चला जाता? आज देशभर में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो हर उस पार्टी में शामिल हो जाते हैं जो सत्ता में हो। कई ऐसे नेता हैं, जो हर पार्टी की सरकार में मंत्री बन जाते हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें विपक्ष की राजनीति करनी ही नहीं, हमेशा सत्ता पक्ष में ही रहना है। जबकि विपक्षी राजनीति जीवंत लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग है। दल-बदल कानून कई वर्ष पहले बन गया था लेकिन, उससे बचने का रास्ता भी ऐसे लोगों ने निकाल लिया है। अब सबको एक साथ बैठकर एक कानून उन लोगों के लिए बनाना चाहिए, जो बीच में ही दल-बदल करते हैं, जो भी अपनी मूल पार्टी को छोड़कर दूसरे दल में जाना चाहता है उसे कम से कम एक से दो वर्ष बिना किसी राजनीतिक पार्टी में जाए बैठना चाहिए। तत्पश्चात इनको नए दल में जाने के लिए इजाजत मिलनी चाहिए।

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