एक महान विभूति-सुन्दर लाल बहुगुणा जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता

-हेमचंद्र सकलानी-
हमारे देश में हजारों ऐसी विभूतियों ने समय-समय पर जन्म लिया है जिन्होंने राष्ट्र सेवा समाज सेवा में अपना बेमिसाल योगदान दिया है यह सब उन्होंने निस्वार्थ भाव से किया। उन्हें न किसी राजकीय सम्मान का न किसी नाम का न धन संपदा और नहीं सरकारी सेवा साधनों का लाभ उठाने का लालच रहा है। अपना सब कुछ राष्ट्र और समाज को समर्पित कर वे गुमनाम सी जिंदगी जीते रहे। उन्होंने राजनीतिज्ञों की तरह स्वाधीनता संग्राम में थोड़ा सा भाग लेकर देश से अपनी कुर्बानियों का भरपूर मुआवजा नहीं वसूला। इसके विपरीत ऐसे लोग किसी न किसी प्रकार की सामाजिक जागरण की लौ जगाने में देश देशांतर पैदल साधारण वेश में किसी फक्कड़ की तरह घूमते रहे। हजारों पर्वतों बीहड़ों में बिना किसी स्वार्थ के खाक छानते रहे। ऐसे ही एक युगपुरुष का नाम था सुंदरलाल बहुगुणा। विदेशों में लोग जिन्हें निस्वार्थ सेवाओं के कारण आधुनिक युग का गांधी नाम से पुकारते रहे।


धीरता गम्भीरता चेहरे पर सदैव पसरी शांति की झलक किसी भी महान व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होती है। बिल्कुल वैसे ही जैसे तट से जितनी दूर सागर की ओर जाएं तो सागर उतना ही धीर गम्भीर पाएंगे। उस गहराई में अपने अंदर जितने अनगिनत रत्न (प्रतिभाएं) छुपाए होता है उतना ही शांत होता है और अपने नीले सुंदरतम रुप में हमें दिखाई पड़ता है। ऐसा ही कुछ व्यक्तित्व स्वभाव और धीर गम्भीर छवि सुंदरलाल बहुगुणा जी की पहचान रही है।
9 जनवरी 1927 में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के मरोरा नाम गांव के एक साधारण परिवार में बहुगुणा जी का जन्म हुआ था। बचपन गांव में ही व्यतीत हुआ था, प्राइमरी शिक्षा उत्तरकाशी में, हाई स्कूल की शिक्षा प्रताप इंटर कॉलेज टिहरी से पास की। राजशाही का विरोध करने के कारण उन्हें भागकर लाहौर जाना पड़ा, वहां सिख का वेश धारण करके रहे, क्योंकि वहां भी राजा की पुलिस उनकी खोजबीन करती रही थी। वहां एस.डी.कॉलेज लाहौर से अंग्रेजी,इतिहास, राजनीतिक शास्त्र में डिग्री हासिल की। स्वतंत्रता के बाद बहुगुणा जी स्टेट प्रजामंडल के महासचिव बने फिर टिहरी जिला कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। छुआछूत विरोधी कार्यों में जुट गए थे।
सन 1949 में वे मीरा बेन के संपर्क में आए,1956 में उनका विवाह विमला नौटियाल जी से हुआ। फिर दोनों ने मिलकर सिलयारा में नवजीवन आश्रम की स्थापना की। 1959 में बहुगुणा जी आचार्य बिनोवा भावे से मिले। बिनोवा जी ने उन्हें घूम घूम कर जन समस्याओं के निराकरण हेतु प्रेरित किया। तब से लेकर अब तक वर्षों बाद तक उनका भ्रमण कार्यक्रम जारी रहा।
सन 1962 में शराब विरोधी आंदोलन, वन और पर्यावरण की सुरक्षा हेतु गौरा देवी एवं अन्य के साथ मिलकर चिपको आंदोलन प्रारंभ किया। फिर ‌हिमालय के संवेशील क्षेत्र होने के कारण टिहरी बांध विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया और हजारों किलोमीटर की दुर्गम पर्वतीय यात्रा में पैदल चलकर गांव गांव, पगडंडी पगडंडी, ऊंचे ऊंचे पर्वत श्रृंखलाओं की करीं। कश्मीर से लेकर सुदूर आज शाम तक अपने आंदोलन की लौ जलाई। पेड़ों,वनों, पर्यावरण की सुरक्षा हेतु 1964 से 1969 में कई बार अनशन पर भी बैठे। उन्हीं के प्रयासों से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में लगभग एक हजार से अधिक मीटर की ऊंचाई पर से पेड़ों की कटाई व उन्हें नष्ट करने पर प्रतिबंध लगा।
अपने चिपको आंदोलन के उद्देश्य को लेकर उन्होंने कश्मीर से कोहिमा, भूटान, और हिमालय क्षेत्र की पैदल यात्रा है कीं। 1983 से 1990 के बीच देश विदेश की यात्राएं, पर्यावरण बचाओ तथा चिपको आंदोलन और वनों की सुरक्षा के उद्देश्य कीं तथा भारत में ही कर्नाटक, उड़ीसा, केरल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश का व्यापक भ्रमण किया।
उनके वनों की सुरक्षा, पर्यावरण की सुरक्षा, हिमालय की सुरक्षा के प्रति चलाए गए अभियानों, आंदोलनों को देखकर ही उन्हें केन्या, लंदन, जर्मनी, फ्रांस,‌‌ स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, स्वीडन, हौलैंड, फिनलैंड,‌ बेल्जियम, इटली,‌ कनाडा, अमेरिका, जापान, मेक्सिको, इंडोनेशिया,मलेशिया,थाईलैंड के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया तथा उनके विचारों को पूरे विश्व में सराहा गया।
1981 में वर्ल्ड एनर्जी कॉन्फ्रेंस नैरोबी, विमेंस फायर फूड मार्च कीनिया, 1982 में पब्लिक हियरिंग ऑन इन्वायरमेंट लंदन, 1984 में फर्स्ट मार्च स्विट्जरलैंड, 1985 में वर्ल्ड फॉरेस्ट्री कांग्रेस मेक्सिको, 1986 में फर्स्ट जर्मनी, 1990 में राइट लाइवलीहुड कॉन्फ्रेंस इटली,1992 मे कनाडा,1993 एशिया,सन 2000 मे फिर कनाडा,1994 में टुवार्ड्स ए एसटेइनेबल सोसायटी कोबे जापान, यूनेस्को कॉन्फ्रेंस आन कल्चर इंडिया 1994, इंटरनेशनल कांग्रेस आप इथोनोबिलोजी भारत 1994 में, पीस एंड इन्वायरमेंट इंटरनेशनल कोंग्रेस नई दिल्ली 1995 में, एशियन डेवलपमेंट फोरम बैंकोक 1996 आदि सैकड़ों राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में आपने भाग लिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुगुणा जी के कार्यों और विचारों को व्यापक समर्थन मिला और अनेक देशों ने उन्हें अनेक पुरस्कारों और आलंकरणों से समय समय पर सम्मानित किया।
सन 1981 में भारत ने उन्हें पद्मश्री से फिर पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। जिसे एक बार उन्होंने लेने से अस्वीकार कर दिया था। 1984 में चिपको मूवमेंट पर सिंगवी नेशनल इंटीग्रेशन अवार्ड, 1985 में फ्रेंड्स ऑफ द ट्री, 1986 में रचनात्मक कार्यों के लिए जमनालाल बजाज अवार्ड, 1986 में चिपको मूवमेंट के आधार पर राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड स्टॉकहोम में,1989 में पर्यावरण सुरक्षा के लिए शेर ए कश्मीर अवार्ड,रुड़की इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय द्वारा डायरेक्टर ऑफ सोशल साइंस की सम्मानित उपाधि प्रदान की गई। सन 1992 में विश्व भारती द्वारा रवीन्द्र अवार्ड,1995 में एफ.ए.ओ. द्वारा वर्ल्ड फूड डे अवार्ड प्रदान किया गया।
कुल मिलाकर देखा जाए तो बहुगुणा जी ने विकास की उस परंपरागत धारणा को चुनौती दी जिसने आदमी को, प्रकृति पर्यावरण के कसाई के रूप में बदल दिया था। उनकी पूर्ण आस्था उस विकास में थी जहां मानव समाज की स्थाई शांति, खुशहाली और प्राकृतिक सुरक्षा की गारंटी देता हो। वनस्पति, वन, पर्यावरण, हिमालय की सुरक्षा के लिए उन्होंने कई बार अपना जीवन दांव पर लगाया है। इसी कारण उन्होंने 260.5 मीटर ऊंचे टिहरी बांध का विरोध किया था,क्योंकि यह अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र में बन रहा था, जहां वैज्ञानिकों के मतानुसार 8.5 रिएक्टर स्केल के भूकंप आ सकते थे। इसके लिए अप्रैल 1992 में उन्होंने 45 दिन का उपवास रखा जिसके बाद संसद में इस परियोजना पर व्यापक चर्चा हुई थी। 1995 में पुनः उन्होंने 49 दिन का उपवास रखा और लगभग 3 वर्षों से अधिक टिहरी बांध के समीप भागीरथी के तट पर गंगा कुटिया में गांधीवादी सिद्धांतों पर “एकला चलो रे” के आधार पर आंदोलन रत रहे थे।
सारा जीवन संघर्षों में व्यतीत करने के बाद अंत में अस्वस्थ होने पर काल के कूरुर हाथों ने 21 मई 2021 को उन्हें हम लोगों से छीन लिया। निःसंदेह ऐसी विभूतियां कभी कभी धरा पर जन्म लेती हैं जिनकी प्रतीक्षा में युग गुजर जाते हैं।

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