जलवायु परिवर्तन को रोकने को कोई गंभीर नहीं

महेंद्र पांडे। यूरोप के कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस ने हाल में बताया है कि मार्च 2024 लगातार ऐसा महीना था, जब वैश्विक स्तर पर तापमान वृद्धि का रिकॉर्ड ध्वस्त हुआ है। मार्च 2024 में वैश्विक स्तर पर मार्च के तापमान की तुलना में सर्वाधिक तापमान दर्ज किया गया है। इससे पहले मार्च महीने के तापमान का रिकॉर्ड वर्ष 2016 में दर्ज किया गया था, पर इस वर्ष का औसत तापमान पिछले रिकॉर्ड से भी 0.1 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा और पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में यह वृद्धि 1.68 डिग्री सेल्सियस अधिक रही। यही नहीं, पिछले 12 महीनों का औसत तापमान पूर्व औद्योगिक काल से 1.58 डिग्री सेल्सियस रहा है। पिछले 15 वर्षों से धरती के औसत तापमान बढ़ने की दर 0.3 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक रही है, जबकि 1970 से 2008 तक यह औसत 0.18 डिग्री सेल्सियस ही था। जाहिर है, तापमान वृद्धि अब कोई कल्पना नहीं बल्कि हकीकत है, पर इसे रोकने के लिए दुनिया कोई भी प्रभावी कदम उठाने को तैयार नहीं है। वर्ष 2016 के बाद से दुनिया में पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, कोयला और सीमेंट से संबंधित सबसे बड़ी 57 कंपनियों से जितना ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया गया है, वह वैश्विक स्तर पर जीवाश्म इंधनों से सम्बंधित कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का 80 प्रतिशत से अधिक है। जीवाश्म इंधन से जुडी कंपनियों का उत्पादन और उत्सर्जन पेरिस समझौते के बाद के वर्षों में इससे पहले के वर्षों की तुलना में बहुत बढ़ता जा रहा है। कार्बन मेजर्स डाटाबेस पर जीवाश्म इंधनों से जुड़ी सबसे अधिक ग्रीनहाउस के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार 122 कंपनियों के उत्पादन और उत्सर्जन का ब्यौरा दिया गया है। इन कंपनियों में सरकारी और निजी, दोनोंतरह की कंपनिया हैं। इन 122 कंपनियों में भारत से कोल इंडिया लिमिटेड (दसवें स्थान पर) और ओएनजीसी (46वें स्थान पर) के अतिरिक्त सिंगरेनी कोल फ़ील्ड्स (61वें स्थान पर) और अडानी इंटरप्राइजेज (118वें स्थान पर) के नाम भी शामिल हैं। इन कंपनियों में 82 पेट्रोलियम, 81 प्राकृतिक गैस, 49 कोयला और 6 सीमेंट उत्पादन से सम्बंधित हैं। ये सभी कम्पनियां अब तक 1421 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर चुकी हैं, जो वैश्विक स्तर पर इस क्षेत्र से कुल उत्सर्जन का 72 प्रतिशत है।
कार्बन ट्रैकर नामक संस्था ने दुनिया की जीवाश्म इंधनों से सम्बंधित 25 सबसे बड़ी कंपनियों को पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन में कटौती से सम्बंधित निर्धारित लक्ष्य के आधार पर वर्गीकृत किया था। इसमें कंपनियों को ए से एच के पैमाने पर वर्गीकृत किया गया था। ए वर्ग में लक्ष्य के सबसे पास वाली कम्पनियां थीं जबकी एच वर्ग में लक्ष्य से सबसे दूर वाली कम्पनियां थीं। इस वर्गीकरण में ए, बी और सी वर्ग में कोई भी कंपनी नहीं थी, जबकि डी वर्ग में केवल एक कंपनी थी। कार्बन मेजर्स डाटाबेस के संस्थापक रिचर्ड हीडे के अनुसार जीवाश्म इंधनों से जुडी कम्पनियां अपना उत्पादन यह कह कर बढाती हैं कि उपभोक्ताओं की मांग बढ़ रही है। पर, यह एक गलत तथ्य है, बड़ी कम्पनियां तमाम सरकारों के साथ मिलकर एक जाल बुन रही हैं, जिसके कारण उपभोक्ताओं को एकमात्र यही विकल्प नजर आ रहा है। पूरी दुनिया में बाढ़, चक्रवात, जंगलों में आग और भीषण जानलेवा गर्मी का प्रकोप भी बढ़ रहा है पर दुनिया के सभी देश इन आपदाओं पर खामोश हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं का कारण वैज्ञानिक तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन बता रहे हैं और तापमान वृद्धि का मुख्य कारण जीवाष्म इंधनों की बढ़ती खपत है। जीवाष्म इंधनों में संलग्न कंपनियों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ता जा रहा है और अब वे तेजी से नए क्षेत्रों में पेट्रोलियम पदार्थों की खोज और इसके उत्खनन की योजनायें बना रही हैं। वैज्ञानिक ऐसी परियोजनाओं को कार्बन बम का नाम दे रहे हैं क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन का भरपूर उत्सर्जन होगा। बेहद खतनाक माने जाने वाले परमाणु बम के तरह इसका असर केवल एक देश या क्षेत्र पर नहीं होगा, बल्कि इस उत्सर्जन का असर पूरी दुनिया झेल रही है। एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ था कि दुनिया की बड़ी पेट्रोलियम कम्पनियां अपने कारोबार के विस्तार के लिए अगले एक दशक तक हरेक दिन औसतन 10.3 करोड़ डॉलर का निवेश कर रही हैं। इन योजनाओं से होने वाला कार्बन उत्सर्जन चीन द्वारा पिछले पूरे दशक के दौरान किये जाने वाले उत्सर्जन से भी अधिक होगा। चीन दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। दुनिया की बड़ी पेट्रोलियम उत्पादक कम्पनियां इस समय कम से कम 200 नई परियोजनाओं पर काम कर रही हैं, इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक परियोजनाएं शुरू की जा चुकी हैं। इन परियोजनाओं के पूरे जीवन चक्र के दौरान सम्मिलित तौर पर 1 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होगा, उत्सर्जन की यह मात्रा पूरी दुनिया द्वारा वार्षिक उत्सर्जन की मात्रा का 18 गुना है। इस सन्दर्भ में बड़ा तथ्य यह भी है कि पेट्रोलियम कंपनियों के विस्तार की योजनायें मध्य-पूर्व या रूस जैसे देशों में नहीं बल्कि तापमान वृद्धि पर प्रवचन देने वाले अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में शुरू की जा रही हैं। इन्टरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार यदि दुनिया को तापमान वृद्धि की भयानक मार से बचाना है तब वर्ष 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी, पर इस चेतावनी से परे मानो उत्सर्जन को दुगुना करने की तैयारी चल रही है। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार यदि वर्ष 2050 तक दुनिया को कार्बन-न्यूट्रल बनाना है तो जीवाश्म इंधनों की किसी भी नई परियोजना को शुरू नहीं करने के जरूरत है। वर्ष 2015 में जब तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था तब वैज्ञानिकों ने बताया था कि प्रथ्वी के नीचे दबे पेट्रोलियम पदार्थों के आधे, प्राकृतिक गैस के एक-तिहाई और कोयले के 80 प्रतिशत भण्डार को भूमि के नीचे ही रखना होगा। इसके बाद जब 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य पर चर्चा की जाने लगी, तब वैज्ञानिकों ने बताया था कि पेट्रोलियम पदार्थों के 60 प्रतिशत और कोयले के 90 प्रतिशत भंडारों को जमीन के नीचे ही रखना होगा। इस चेतावनी के बाद भी कंपनियों में नए भंडारों को खोजकर उनके उत्खनन की होड़ लगी है और दुनिया तमाशा देख रही है।
वैश्विक स्तर पर कोयले से 2130 गिगावाट बिजली उत्पादन होता है, पर यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक रोकना है तो वर्ष 2040 तक दुनिया के हरेक ऐसे संयत्र को बंद करना होगा। इसके लिए अगले 17 वर्षों तक हरेक वर्ष कम से कम 126 गीगावाट बिजली उत्पादन के संयंत्र को बंद करने की जरूरत है, यानि हरेक सप्ताह कम से कम दो संयंत्रों को बंद करना होगा। पूरी दुनिया में बाढ़, चक्रवात, जंगलों में आग और भीषण जानलेवा गर्मी का प्रकोप भी बढ़ रहा है  पर दुनिया के सभी देश इन आपदाओं पर खामोश हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं का कारण वैज्ञानिक तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन बता रहे हैं और तापमान वृद्धि का मुख्य कारण जीवाष्म इंधनों की बढ़ती खपत है। जीवाष्म इंधनों में संलग्न कंपनियों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ता जा रहा है और अब वे तेजी से नए क्षेत्रों में पेट्रोलियम पदार्थों की खोज और इसके उत्खनन की योजनायें बना रही हैं। वैज्ञानिक ऐसी परियोजनाओं को कार्बन बम का नाम दे रहे हैं क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन का भरपूर उत्सर्जन होगा। बेहद खतनाक माने जाने वाले परमाणु बम के तरह इसका असर केवल एक देश या क्षेत्र पर नहीं होगा, बल्कि इस उत्सर्जन का असर पूरी दुनिया झेल रही है। एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ था कि दुनिया की बड़ी पेट्रोलियम कम्पनियां अपने कारोबार के विस्तार के लिए अगले एक दशक तक हरेक दिन औसतन 10.3 करोड़ डॉलर का निवेश कर रही हैं। इन योजनाओं से होने वाला कार्बन उत्सर्जन चीन द्वारा पिछले पूरे दशक के दौरान किये जाने वाले उत्सर्जन से भी अधिक होगा। चीन दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। दुनिया की बड़ी पेट्रोलियम उत्पादक कम्पनियां इस समय कम से कम 200 नई परियोजनाओं पर काम कर रही हैं, इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक परियोजनाएं शुरू की जा चुकी हैं। इन परियोजनाओं के पूरे जीवन चक्र के दौरान सम्मिलित तौर पर 1 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होगा, उत्सर्जन की यह मात्रा पूरी दुनिया द्वारा वार्षिक उत्सर्जन की मात्रा का 18 गुना है। इस सन्दर्भ में बड़ा तथ्य यह भी है कि पेट्रोलियम कंपनियों के विस्तार की योजनायें मध्य-पूर्व या रूस जैसे देशों में नहीं बल्कि तापमान वृद्धि पर प्रवचन देने वाले अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में शुरू की जा रही हैं। इन्टरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार यदि दुनिया को तापमान वृद्धि की भयानक मार से बचाना है तब वर्ष 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी, पर इस चेतावनी से परे मानो उत्सर्जन को दुगुना करने की तैयारी चल रही है। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार यदि वर्ष 2050 तक दुनिया को कार्बन-न्यूट्रल बनाना है तो जीवाश्म इंधनों की किसी भी नई परियोजना को शुरू नहीं करने के जरूरत है।

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