चिंताजनकः घातक खेलों की लत में फंसते छात्र

जीवन में बढ़ते तकनीकी संजाल में युवा पीढ़ी का फंसते जाना समाज में एक असहनशील पीढ़ी को जन्म दे रहा है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे घातक खेलों की लत में छात्र फंसे पाये गए, जो उन्हें आत्महत्या तक के लिये उकसाते रहे हैं। उनकी स्थिति किसी नशे में लिप्त होने जैसी हो जाती है। मनोवैज्ञानिक मोबाइल फोन की लत को छात्रों के व्यवहार में बदलाव का कारण भी बता रहे हैं। इससे जहां उनकी सामान्य पढ़ाई-लिखाई बाधित हो रही है, वहीं उनकी ज्ञान अर्जन की प्रवृत्ति में भी उदासीनता देखी गई है। इतना ही नहीं, इस लत को छुड़ाने की कोशिश में उनका आक्रामक व्यवहार सामने आता है। दरअसल, इसकी लत का असर उनके स्वास्थ्य पर भी देखा जा रहा है। एक ओर जहां उनकी खान-पान की आदतों में बदलाव नजर आ रहा है, वहीं शारीरिक निष्क्रियता बढ़ती जा रही है। निश्चित रूप से आधुनिक तकनीकों ने मानव जीवन में व्यापक बदलाव किया है, लेकिन तकनीक का हमारे जीवन में हस्तक्षेप एक सीमा तक ही स्वीकार किया जाना चाहिए। जैसे कर्णफूल कानों का सौंदर्य तो होते हैं, लेकिन यदि वे कानों को जख्मी करने लगें तो उनकी उपयोगिता निरर्थक हो जाती है। निस्संदेह, तकनीक वही अच्छी हो सकती है जो व्यक्ति के शारारिक व मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि करे। तकनीक मनुष्य की सुविधा और जरूरतों को ध्यान में रखकर ही ईजाद की जाती है। तकनीक हमारी मार्गदर्शक तो हो सकती हैं मगर हमारा नियंत्रण करने वाली नहीं होनी चाहिये। अभिभावकों व शिक्षकों का दायित्व बनता है कि वे छात्रों को अपने बहुमूल्य समय को बर्बाद करने से रोकें। छात्रों की शारीरिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देने से उनका शारीरिक व मानसिक विकास संभव है। निस्संदेह, यह बड़ा वैश्विक संकट है और इसके निदान की कोशिश भी वैश्विक स्तर पर मिलजुलकर की जानी चाहिए। यूनेस्को की हालिया रिपोर्ट के मद्देनजर सरकारों व नीति-नियंताओं को स्मार्टफोन के दुरुपयोग को रोकने के लिये कड़े नियम बनाने चाहिए। जिसमें समाज, सरकार, शिक्षकों व अभिभावकों की निर्णायक भूमिका हो सकती है।
हर अभिभावक इस बात को लेकर फिक्रमंद रहता है कि उनके बच्चे घंटों स्मार्टफोन में घुसे रहते हैं। उनके उलाहने पर दलील होती है कि ऑनलाइन पढ़ाई का दबाव है। खासकर कोरोना संकट के बाद छात्रों की मोबाइल के उपयोग की लत में भारी इजाफा हुआ है। जिस मोबाइल से आम अभिभावक बच्चों को दूर रखना चाहते थे, महामारी ने छात्रों को बचाव के लिये तार्किक आधार दे दिया कि ऑनलाइन क्लास चल रही है। लेकिन ज्यादातर छात्र अभिभावकों की नसीहत पर ध्यान नहीं देते। उल्टे टोकने-टाकने पर कई हिंसक प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। बहरहाल, अभिभावकों की चिंता की पुष्टि अब संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक संगठन यानी यूनेस्को ने कर दी है। यूनेस्को की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि मोबाइल व स्मार्टफोन के नजदीक रहने से छात्रों का ध्यान भंग होता है। उनकी एकाग्रता बाधित होती है। इतना ही नहीं उनकी सीखने की प्रवृत्ति पर नकारात्मक असर पड़ता है। यूनेस्को ने तो यहां तक चिंता जता दी है कि यदि छात्र एक निर्धारित सीमा से अधिक समय तक स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते हैं तो शैक्षिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। निस्संदेह, मौजूदा दौर में मोबाइल फोन व कंप्यूटर की अनदेखी संभव नहीं है। लेकिन कमोबेश स्थिति वही है कि सब्जी काटने वाला चाकू लापरवाही से प्रयोग करने से आपको चोट भी पहुंचा सकता है। दरअसल,इन आधुनिक गैजेट्स का अधिक उपयोग लाभ के बजाय हानि पहुंचाने लगता है। यही वजह है कि आधुनिक माने जाने वाले कई पश्चिमी देशों में स्कूलों में स्मार्टफोन के इस्तेमाल पर बैन लगाया गया है। विडंबना यह है कि आज महानगरों में युवाओं की आंख मोबाइल देखते हुए खुलती है। साथ दिन का एक लंबा समय मोबाइल देखने में जाया किया जाता है। यह स्थिति बेहद घातक है और इसके नशे की लत कई तरह की मानसिक व शारीरिक बीमारियां पैदा कर रही है। जो कालांतर एक मनोरोग का वाहक भी बन सकती हैं। स्कूली बच्चों में ऑनलाइन गेम्स की लत स्वयं बच्चों के लिए व उनके परिवार के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हो रही है। सच तो यह है कि आज के समय में जब हम संचार क्रांति के युग में सांस ले रहे हैं ,तब घंटों ऑनलाइन गेमिंग की लत बच्चों को मानसिक रूप से बीमार बना रही है। बच्चों को मोबाइल मिलने की वजह से वे ऑनलाइन गेमिंग के आदि हो गए और मानसिक तौर पर बीमार होने लगे हैं। मोबाइल गेम्स के चक्कर में बच्चे अभिभावकों का कहना तक नहीं मानते हैं, क्योंकि आनलाइन गेम्स उन्हें आनंद व खुशी की अनुभूति प्रदान करते हैं। मोबाइल छीनने पर वे उग्र, कभी कभी तो हिंसक भी हो जाते हैं। आनलाइन गेम्स खेलने से बच्चे जहां एक ओर पढ़ाई से दूर होने लगे हैं वहीं पर दूसरी ओर इससे उनकी आंखों, दिमाग पर भी प्रभाव पड़ता है। वास्तव में ऑनलाइन गेम्स खेलने के कारण बच्चों की आंखों की रोशनी कम होना, मोटापा, स्लीपिंग डिस ऑर्डर डिप्रेशन, अग्रेसिवनेस, एकाग्रता में कमी जैसी समस्याएं पैदा होती हैं। बहरहाल, यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो एक सर्वे के मुताबिक, भारत के 40 प्रतिशत अभिभावकों ने माना था कि उनके बच्चे सोशल मीडिया इस्तेमाल करने, वीडियोज देखने और ऑनलाइन गेम खेलने के आदि हैं। इन बच्चों की उम्र 9 साल से 17 साल के बीच है। इस सर्वे में शामिल 49 प्रतिशत अभिभावक मानते हैं कि उनके 9 साल से 13 साल के आयुवर्ग के बच्चे रोजाना 3 घंटे से ज्यादा समय इंटरनेट पर बिताते हैं। वहीं, 47 प्रतिशत अभिभावकों का मानना था कि उनके बच्चे को ऑनलाइन गेमिंग, सोशल मीडिया और शॉर्ट वीडियोज देखने की बुरी लत लग गई है। सर्वे में भाग लेने वाले 62 प्रतिशत अभिभावकों का मानना है कि उनके 13 साल से 17 साल के बच्चे प्रतिदिन 3 घंटे से ज्यादा समय स्मार्टफोन पर बिताते हैं। बच्चे आनलाइन गेम्स के चक्कर में फंसकर अपनी जान से हाथ धो रहे हैं। बच्चों का मन बहुत ही कोमल होता है और वे इन आनलाइन गेम्स के चक्कर में फंसकर ऐसे खतरनाक कदम उठा रहे हैं, जिसके बारे में सोचकर भी किसी का दिल कांप उठता है। दरअसल, आज विभिन्न प्लेटफार्म पर ऐसे आनलाइन गेम्स उपलब्ध हैं और बच्चे इनका आसानी से शिकार बन जाते हैं। वे खेल के मैदानों में न जाकर इंटरनेट के माध्यम से वर्चुअल गेम्स में रचे-बसे रहते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स, इंटरनेट, एंड्रायड फोन ने जहां हमें बहुत सी सुविधाएं प्रदान कीं हैं, वहीं दूसरी ओर इनके बहुत से खतरे भी हैं। आज न तो अभिभावकों के पास अपने बच्चों के लिए समय बचा है और न ही बच्चों के पास अभिभावकों के लिए समय है।

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