क्या ऐसे में लोकतांत्रिक शुचिता की रक्षा हो पाएगी?

देश में लोकतांत्रिक शुचिता की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, लेकिन जब इसे धरातल पर उतारने की बारी आती है तो राजनीतिक दल यह सब भूल जाते हैं। आपराधिक रिकार्ड रखने वालों को चुनाव में टिकट देने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहता। इसी लोकसभा चुनाव की बात करें तो लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर लोकसभा पहुंचने वाले 543 सांसदों में 46 फीसदी आपराधिक रिकॉर्ड रखते हैं। यह स्थिति हर नागरिक के माथे पर चिंता की लकीर लाने वाली है। क्या इस स्थिति में देश की लोकतांत्रिक शुचिता की रक्षा हो पाएगी? क्या हम मूल्यों की शुचिता का पारदर्शी समाज बना पाएंगे? क्या ये दागदार कालांतर हमारी व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेंगे? इसी दिशा में चिंतन से सिर्फ चिंता ही बढ़ती है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2109 में चुने गये सांसदों में जहां 233 यानी 43 फीसदी ने अपने विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज होने की बात स्वीकार की थी, वहीं 18वीं लोकसभा के लिये चुने गए 251 सांसदों ने आपराधिक मामले दर्ज होने की बात मानी है। जो कुल संख्या का 46 फीसदी बैठती है। फिलहाल देश के निचले सदन में आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले सांसदों की यह संख्या पिछले कई दशकों में सर्वाधिक है। वर्ष 2014 में यह संख्या 34 फीसदी, 2009 में 30 फीसदी और 2004 में 23 फीसदी थी। जनप्रतिनिधियों में दागियों की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि होना हमारे लोकतंत्र की विसंगति को ही दर्शाता है। जाहिर तौर पर इनका परोक्ष-अपरोक्ष प्रभाव लोकतंत्र की गुणवत्ता पर पड़ेगा। विडंबना यह है कि इस बार दागी 251 प्रतिनिधियों में से 170 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त सांसदों की संख्या में 2009 की लोकसभा के मुकाबले इस बार 124 फीसदी वृद्धि देखी गई है। निश्चय ही यह स्थिति बेहद चिंताजनक है।
राजनीति में प्रवेश करने वाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और नौकरशाही, कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। राजनीति का अपराधीकरण समाज में हिंसा की संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और भावी जनप्रतिनिधियों के लिये एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह सवाल प्रत्येक जागरूक नागरिक को विचलित कर रहा है कि कैसे संसद में दागियों के पहुंचने का द्वार बंद हों। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की सजग पहल के बाद ही वर्ष 2020 में निर्देश दिए गए थे कि सभी राजनीतिक दल लोकसभा व विधानसभा के उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को प्रकाशित करें। जाहिर तौर पर इस आदेश का मकसद देश की राजनीति को आपराधिक छवि वाले नेताओं से मुक्त करना ही था। लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों की प्राथमिकता जीतने वाले उम्मीदवार थे, अब चाहे उनका आपराधिक रिकॉर्ड ही क्यों न हो। ऐसा भी नहीं है कि दल विशेष ने ही दागी उम्मीदवारों को टिकट दिए हों। हर छोटे-बड़े राजनीतिक दल में दागियों की पर्याप्त संख्या रही है। जो राजनीतिक दलों की कथनी और करनी के भारी अंतर को ही उजागर करता है। आखिर कैसे देश के युवा व बच्चे अपने लोकतंत्र के प्रतिनिधियों के आचरण का अनुकरण करेंगे? सवाल है कि देश के लिये नीति निर्धारण करने वाले ऐसे दागी लोग हमारे भाग्यविधाता बने रहेंगे तो हमारा भविष्य कैसा होगा? क्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद हमारी कानून-व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेंगे? क्या होगा हमारे समाज व व्यवस्था का भविष्य? क्यों तमाम आदर्शों की बात करने वाले और दूसरे दलों के नेताओं की कारगुजारियों पर सवाल उठाने वाले नेता राजनीति को अपराधियों के वर्चस्व से मुक्त कराने की ईमानदार पहल नहीं करते? क्यों सभी राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र में शुचिता के लिये सहमति नहीं बनाते? निश्चित रूप से यदि समय रहते इस दिशा में कोई गंभीर पहल नहीं होती तो आने वाले वर्षों में दागियों का यह प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जाएगा। इसके साथ ही बड़ा संकट यह भी है कि देश के निचले सदन में येन-केन-प्रकारेण करोड़पति बने नेताओं का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है। इस बार संसद में चुनकर आए सांसदों में 504 करोड़पति हैं। ऐसे में क्या उम्मीद की जाए कि अपनी मेहनत की कमाई से जीवन यापन करने वाला आम आदमी कभी सांसद बनने की बात सोच सकता है?
राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह पक्ष है, जिसके मद्देनजर सर्वाेच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग ने कई कदम उठाए हैं, किंतु इस संदर्भ में किये गए सभी नीतिगत प्रयास समस्या को पूर्णतः संबोधित करने में असफल रहे हैं। गंभीर आपराधिक मामलों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि को शामिल किया जाता है। अपराधियों का पैसा और बाहुबल राजनीतिक दलों को वोट हासिल करने में मदद करता है। चूँकि भारत की चुनावी राजनीति अधिकांशतः जाति और धर्म जैसे कारकों पर निर्भर करती है, इसलिये उम्मीदवार आपराधिक आरोपों की स्थिति में भी चुनाव जीत जाते हैं। चुनावी राजनीति कमोबेश राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाली फंडिंग पर निर्भर करती है और चूँकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के पास अक्सर धन और संपदा काफी अधिक मात्रा में होता है, इसलिये वे दल के चुनावी अभियान में अधिक-से-अधिक पैसा खर्च करते हैं और उनके राजनीति में प्रवेश करने तथा जीतने की संभावना बढ़ जाती है। भारत के राजनीतिक दलों में काफी हद तक अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव देखा जाता है और उम्मीदवारी पर निर्णय मुख्यतः दल के शीर्ष नेतृत्व द्वारा ही लिया जाता है, जिसके कारण आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेता अक्सर दल के स्थानीय कार्यकत्र्ताओं और संगठन द्वारा जाँच से बच जाते हैं। भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अंतर्निहित देरी ने राजनीति के अपराधीकरण को प्रोत्साहित किया है। अदालतों द्वारा आपराधिक मामले को निपटाने में औसतन 15 वर्ष लगते हैं। निर्वाचन प्रणाली में सभी उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी होता है, चाहे विजयी उम्मीदवार को कितना भी (कम या अधिक) मत क्यों न प्राप्त हुआ हो। इस प्रकार की प्रणाली में अपराधियों के लिये अपने धन और बाहुबल का प्रयोग कर अधिक-से-अधिक मत हासिल करना काफी आसान होता है। निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली में मौजूद खामियाँ भी राजनीति के अपराधीकरण का प्रमुख कारण हैं। चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाखिल करते समय उम्मीदवारों की संपत्ति का विवरण, अदालतों में लंबित मामलों, सज़ा आदि का खुलासा करने का प्रावधान किया है। किंतु ये कदम अपराध और राजनीति के मध्य साँठगाँठ को तोड़ने की दिशा में अब तक सफल नहीं हो पाए हैं। भारत की राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने में नागरिक समाज का भी बराबर का योगदान रहा है। अक्सर आम आदमी अपराधियों के धन और बाहुबल से प्रभावित होकर बिना जाँच किये ही उन्हें वोट दे देता है। इसके अलावा भारतीय राजनीति में नैतिकता और मूल्यों के अभाव ने अपराधीकरण की समस्या को और गंभीर बना दिया है। अक्सर राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों के लिये अपराधीकरण की जाँच करने से कतराती हैं। राजनीति के अपराधीकरण का प्रभाव देश की राजनीति और कानून निर्माण प्रक्रिया में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की उपस्थिति का लोकतंत्र की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। राजनीति के अपराधीकरण के कारण चुनावी प्रक्रिया में काले धन का प्रयोग काफी अधिक बढ़ जाता है। राजनीति के अपराधीकरण का देश की न्यायिक प्रक्रिया पर भी प्रभाव देखने को मिलता है और अपराधियों के विरुद्ध जाँच प्रक्रिया धीमी हो जाती है। राजनीति में प्रवेश करने वाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और नौकरशाही, कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। राजनीति का अपराधीकरण समाज में हिंसा की संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और भावी जनप्रतिनिधियों के लिये एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

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