देश में इस समय लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। दो चरण का मतदान हो चुका है। उत्तराखंड समेत कुछ राज्यों में मतदान हो चुका है, जबकि कई राज्यों में विभिन्न चरणों में मतदान होना है। देश में मतदाता खामोश हैं। ऐसा नहीं लग रहा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है। चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। इस समय मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को जुबान पर नहीं लाना चाहते? क्या उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए।
सभी मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं। 70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चैड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेजी से गिरी है।
एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6 प्रतिशत निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11 प्रतिशत रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करंे।
नागरिकों की प्राथमिकताओं में मतदान प्राथमिकता नहीं रह गयी है, खासकर देश का भविष्य युवा वर्ग तो इस लोकतंत्री प्रक्रिया से दिल दिमाग और देशभक्ति के साथ जुड़ने की कोशिश ही नहीं कर रहा है, देश का नौकरीपेशा मतदाता वर्ग जहां मतदान दिवस का अवकाश अपने परिवार के साथ मौजमस्ती के साथ मनाने को आतुर रहता है। वहीं युवा वर्ग की भी प्राथमिकता में मतदान नहीं है, उसकी सोच है कि ‘‘अवकाश की मौजमस्ती में यदि समय मिला तो वोट डाल आएंगें’’ और यदि वह इन क्षणों में मतदान केन्द्र पर जाता है और उसे वहां वोट डालने वालों की लम्बी लाइन नजर आती है तो वह बिना वोट डाले वापस अपनी मस्ती में शामिल हो जाता है, कुल मिलाकर मतलब यह कि मतदान अब युवाओं की प्राथमिकता नहीं रहा, और इस वर्ग के सदस्यों को परिवार के वृद्धजन कितना ही लोकतंत्री महत्व नागरिक कर्तव्य का ज्ञान दे, किंतु इस कथित अरूचिपूर्ण उपदेश को वह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल बाहर करता है, मतदान प्रतिशत दिनों दिन कम होने का यह भी एक मुख्य कारण है। भारत की इस अहम् समस्या के पीछे दोेषी युवा वोटर नहीं बल्कि हम सब है, जिन्होंने हमारी नई पीढ़ी को राष्ट्रीयता व राष्ट्रभक्ति का पाठ ही नहीं पढ़ाया, यदि उनकी प्रारंभिक घरेलु शिक्षा में इस विषय को भी शामिल कर लिया होता तो आज हमें यह दिन देखने को मजबूर नहीं होना पड़ता। वैसे यदि अपने दिल पर हाथ रखकर यदि हम यह आत्मचिंतन करें कि हम स्वयं कितने राष्ट्रªभक्त व नागरिक कर्तव्यों व अधिकारों के सही उपयोगकर्ता है? तो हम स्वयं अपने से ही निराश होगें, क्योंकि हम भी पारिवारिक व सामाजिक आपाधापी में देश और अपने कर्तव्यों के बारे में आत्मचिंतन-मनन करने का वक्त ही कहां मिल पाता है? हमें अपनी नीजी चिंताओं के साथ राष्ट्र की चिंता के साथ भी जुड़ना पड़ेगा और आज की राजनीति देश को किस दिशा में ले जा रही है, इस पर गंभीर देशहित में आत्मचिंतन करना पड़ेगा, वर्ना फिर हमें भी वही घीसी-पीटी कहावत ‘‘अब पछतावत होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत’’, बार-बार दोहराना पड़ेगा, इसलिए चुनावी लोकतंत्र की इस अहम् बेला में इन संकेतों को गंभीरता से लेकर आत्मचिंतन कर देशहित में कुछ संकल्प लें।
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