मुंबई: नवी मुंबई के शहर सानपाड़ा में बीते शनिवार को नैलचामी (टिहरी गढ़वाल) के एक उत्तराखंडी युवक के जीवन की रफ्तार थम गयी। हंसती-खिलखिलाती ज़िंदगी 48 घंटे के भीतर 2 अस्पतालों के चक्कर लगा कर विदा हो गयी। अस्पताल का 5 लाख से अधिक का भारी-भरकम बिल…अस्पताल निदेशक से इतने भारी बिल पर आपत्ति…तीखा-नर्म संवाद…1.50 लाख की रकम के बाद भी अस्पताल की जिद्द 2.72 लाख भरने ही होंगे…हमारी दुहाई…कि 1.50 लाख भी परिजनों ने किसी तरह जुटा कर दिये। .होटल की साधारण नौकरी करने वाले मृत युवक के पास ऐसी कोई जमा पूंजी नहीं कि और बड़ी राशि चुकाई जा सके। जो चुकाई भी गयी, वह विदेश में आजीविका का संघर्ष झेल रहे परिजनों ने भेजी। बहरहाल, बात अंततः 1.50 लाख की राशि पर ही खत्म हुई।
होटल वाले से भी तीखा-नर्म संवाद…हमेशा की तरह होटल मालिकों की होटल कर्मचारियों के प्रति ज़िम्मेदारी से हाथ खड़ा कर देने की प्रवृति…अंततः होटल मालिकों के व्यवहार में परिवर्तन…और मदद की हल्की-सी जिम्मेदारी का एहसास। परस्पर संवाद से मसला सुलझने के बाद हॉस्पिटल या होटल का नाम लिखना उचित नहीं। शनिवार का पूरा दिन अस्पताल से शुरू होकर श्मशान में जलती चिता की तपिश के साथ खत्म हुआ। ऐसी तपिश…जो चिता से चिंता और चिंता से चिंतन पर ले जाकर बेचैन कर गयी। चिंतन भी ऐसा, जिसे हम चाहें, तो यह कह कर खारिज़ कर सकते हैं कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है और किसी का मर जाना व्यक्तिगत मसला है। उससे किसी और का क्या सरोकार !…और चिंतन ऐसा भी…कि त्योरियों पर बल पड़ जाए…कि आखिर भरे-पूरे समाज में कोई अकेला क्यों पड़ जाए। बहरहाल, पहाड़ से आकर प्रवास में निरंतर अकेले पड़ते युवाओं की दशा और दिशा कश्मकश के उस मोड़ पर ले जाती है, जहां समाज की चहल-पहल के बीच किसी अपने के…अकेले पड़ जाने की व्यथा गहरे उभर आती है। और यह व्यथा सामाजिक सरोकार के उस पक्ष पर सवाल करती है, जो चर्चा-बहस में तो दिखती है, पर धरातल पर एक बड़ा शून्य निर्माण करती है। दरसअल यह उत्तराखंड समाज के…सामूहिकता से आत्मकेंद्रित हो जाने का गंभीर परिणाम है। आत्मकेंद्रित होते चले जाने के इस सिलसिले ने मौजूद समाज को पूर्व की पीढ़ी के…उस आत्मीय चरित्र से जुदा कर दिया है, जब लोग शहर से गांव जाते थे और साथ में 2-4 को ले आते थे…साथ रख कर उनका मार्गदर्शन करते और संघर्ष कर संपन्न होते जाने की विधि समझाते। आज की जो संपन्न पीढ़ी है, उसका एक बड़ा हिस्सा अतीत की इसी सामूहिक आत्मीयता का खूबसूरत चेहरा है…और वर्तमान में आत्मीयता का यही अनमोल चरित्र हमसे खो गया है।
दरसअल, एक-दूसरे के साथ रह कर, एक-दूसरे को देख कर एक-दूसरे को समझ कर ही समाज का हर व्यक्ति नये सपने बुनता है, और सपनों को पूरा करने की प्रेरणा पाता है…लेकिन समाज जब आत्मकेंद्रित होकर छिटक जाता है, तो वह एक-दूसरे से प्रेरणा पाने और आगे बढ़ने की संभावनाओं को ख़ारिज कर देता है…शायद हम में यही कमी रह गयी है…परिणाम सम्मुख हैं…सामुदायिक तरक्की का मार्ग अवरुद्ध हो गया है और समझने-समझाने की आपसी धारा से वंचित होकर पहाड़ से शहर आ रहे युवा मार्गदर्शन के बिना अलग-थलग पड़ कर जीवन को साधने में विफल हो रहे हैं…नतीज़ा युवा भटक रहे हैं…रोजगार के लिए भटक रहे हैं…रोजगार मिल गया तो तनख्वाह के लिए भटक रहे हैं…तनख्वाह मिल गयी तो बचत की मानसिकता का अभाव है…पहाड़ और शहर के बीच सामंजस्य न बना पाने का गहरा अवसाद है…और अवसाद में शराब में डूब जाने की नियति, तो कहीं बेतरतीब जीवन के बीच सफ़र में थम जाने का गम है…जीवन में बिखराव ही बिखराव…और इस बिखराव को समेटने वाला कोई हाथ आस-पास नहीं। उत्तराखंड से प्रवास में जीवन-यापन कर रहे युवाओं की स्थिति आज बेहद पेचीदा मोड़ पर है…कह सकता हूँ कि समाज के युवाओं का…मार्गदर्शन के अभाव में असहाय अवस्था में पड़ जाना…हमारी बड़ी सामाजिक हार है।…और हार के इस एहसास के साथ जब हम अपने किसी युवा की धधकती चिता के सामने खड़े होते हैं…तो चिता की धीरे-धीरे बुझती लपटें सवाल बन कर हमारे भीतर सुलग उठती हैं…और हम जब श्मशान से लौटते हैं, तो अकेले नहीं लौटते, चिता की बुझती लपटें हमारे भीतर ऊंचे…और ऊंचे सुलग चुकी होती हैं।