त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव 2025: मैं समय हूँ… आओ आपको दिखाऊँ इस चुनाव मैंने क्या-क्या देखा

डॉ. सतीश नौटियाल: मैंने देखा है कोरोना की भीषण आपदा के बाद लोगों को धीरे-धीरे निखरते हुए, उभरते हुए और गाँवों को संवरते हुए। शादी-ब्याह में सौहार्द और मैत्री की भावना। सुख में हर्ष और उल्लास, दुःख में अपनों की हिम्मत और विश्वास। यज्ञ-महायज्ञों में गाँव की एकता और अखण्डता।छोटी-छोटी खुशियों में मिलन का मेला। और इस तरह सब कुछ ठीक चल रहा था कि ‘पंचायत चुनाव’ ने दस्तक दे दी और फिर हुआ तू तू, मैं मैं का महा मण्डाण प्रारम्भ।
मैंने देखा (याद रहे मैं समय हूँ…) सबने अपने सारे दाँवपेंच इस चुनाव लगाये थे, कोई गधों को घोड़ों की रेस में शामिल कर रहा था तो कोई गधों को ही घोड़ा समझ बैठा था।
कहीं नौजवान मैदान में थे तो कहीं अनुभवी बुजुर्ग दौड़ में। कहीं नेता तो कहीं अभिनेता। कोई जुगाड़ू नेता थे तो कोई विशुद्ध राजनीतिज्ञ। कोई विकास का मॉडल लाया तो कोई अपने पूर्व कर्मों की दुकान। किसी ने भविष्य की योजनाओं पर चुनाव लड़ा तो किसी ने शराब, पैसा और गुंडई के दम पर।
चुनाव लड़ने की विधि सबकी अलग-अलग थी लेकिन मकसद सबका एक ही होता है वो आप भी जानते और मैं भी (मैं तो खैर समय हूँ, सबकुछ जानता हूँ)।
मैंने देखा कि इस चुनाव के महापर्व पर खूब बढ़-चढ़कर लोगों ने हिस्सा लिया। क्या इसलिए लिया की लोग जागरूक हैं? या फिर इसलिए की किसी का भाई मैदान में था तो किसी का बेटा, किसी का बाप, दादा, चाचा, बडा और भांति-भांति के रिश्तेदार।
सबने अपने अपने प्रत्याशी चुने, किसी ने भाई भतीजावाद किया तो किसी ने जातिवाद, क्षेत्रवाद, परिवारवाद और ना जाने कितने वाद-विवाद होते रहे, रह गया था तो विकासवाद। जिसकी किसी को परवाह नहीं।
मैंने देखा है समझदार पढ़े लिखे नौजवान लोगों को भी भाई भतीजावाद करते हुए, मदिरा और दो दो कौड़ियों में बिकते हुए। अब जब जिम्मेदार लोग इस वाद की भेंट चढ़ गए तो विकास किस रास्ते आपके मोहल्ले या गाँव में आयेगा?
मैंने देखा यूँ तो उत्तराखण्ड पंचायत चुनाव शांतिपूर्ण ही होते हैं, यहाँ कट्टा बन्दूक तलवार इत्यादि का वार शायद ही होता हो बस शराब और मुर्गा ही सबका क़त्ल कर देता है। हम बातें करते हैं जब राष्ट्रीय स्तर पर तो नेताओं को खूब खरी खोटी सुनाते हैं भर भर के गरियाते हैं लेकिन जब चुनाव अपने क्षेत्र में हो तो ऐसा लगता जैसे सबको सांप सूंघ गया हो, फिर हमारी स्वच्छ राजनीति, बेईमानी की भेंट चढ़ जाती है। गाँव की राजनीति में एक और चीज देखी वो थी कसमें, वोट मांगने जाने वाले नेता विकास के नाम नहीं रिश्तेदारी के नाम वोट माँगते हुए, बच्चों और देवताओं की कसमें, घंडुले, निशाण और ग्राम देवताओं के विभिन्न प्रतीक चिन्हों को सर माथे लगाकर कसमें वादे करवाकर वोट माँगना। क्या पाँचवर्षीय योजना के लिए अपने फूल से बच्चों की कसमें खाकर अपना भविष्य दांव पर लगाना सही है? इस पर पंचायतीराज व्यवस्था एक बार अवश्य मंथन करे…🤭।
मैंने देखा है मतदान दिवस की ठीक एक रात पहले वोटों को खरीद फरोख्त करने वाले नेताओं की ईमानदारी, झूठ फ़रेब से तख्ता पलटने वालों की भागीदारी। और देखा है मतदान दिवस में छोटे-छोटे गाँवों में गुटबाजी, अपने परायों में बेमतलब की नाराजगी। भाई भाइयों में षड्यंत्र ताकि ज़िंदा रहे लोकतंत्र। ओछी राजनीति से भरा पड़ा था पहाड़।
मैंने देखे उस सरकारी स्कूल के आँसू मैंने समझी उसकी पीड़ा जिसने कभी सारे गाँव को सिखाया था एकता का पाठ और आज वहीं खींचातानी से हो रहे थे दो दो फाट। वो कमरा, वो ब्लैक बोर्ड, कुर्सी,मेज, और मास्टर की छड़ी सब दुखी थे अपने शिष्यों में महाभारत होते देख। कितना सटीक नीतिशतककार कहते हैं “वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा”
मैं समय हूँ दुखी तो नहीं हूँ लेकिन चिंतित हूँ, उनके लिए जिन्होंने पंचायत चुनावों में लगा दिए एक-एक करोड़ रुपये। एक महीने तक मुफ्त का भंडारा खाने वाली जानता नेता जी के जीतने पर किस मुँह से विकास की बात करेगी? सबसे पहले तो नेता जी खर्च हुए पैसे ही तो वसूल करेंगे ना। शायद पंचायत चुनाव होते ही इसलिए हैं पाँच साल हम खाएँगे पाँच साल आप खाना। विकास के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार ज़िम्मेदार है तो गरियाने के लिए अनेकों राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय नेता।
जो भी हो इस चुनाव मैंने बहुत कुछ देखा, परिणाम आये तो कुछ चेहरे उतरे थे कुछ खिले थे और कुछ अहंकार से उठे हुए।
अब आरोप प्रत्यारोप का महा तांडव शुरू हुआ।
जीते हुए को सबने बधाई दी और हारे हुए प्रत्याशियों को भर भर के सांत्वना। हार में भी जीत वाली सांत्वना। झूठी और निरर्थक दिलासा किसी ने कहा हार में भी जीत है। किसी ने कहा हार है ही नहीं सबकी जीत है। गाँव की जीत है, क्षेत्र की जीत है। अब सबसे ज़्यादा असमंजस में हारा हुआ प्रत्याशी है, आख़िर मेरी हार हुई या जीत? सब कहते हैं तुम जीते हो तो फिर जीते किससे ? अब जीते हुए के सब दोस्त बन गए हारे हुए के दुश्मन । खैर मिला तो हार जीत में सभी प्रत्याशियों को लोगों का साथ ही। कड़ी परीक्षा उनकी है जो हारे हैं। क्या हार स्वीकार कर पाएंगे, जनादेश अपनायेंगे? लेकिन मैंने देखा अक्सर लोग हार की जिम्मेदारी स्वयं न लेकर मतदाताओं को दे देते हैं। जीतने वाले को माला पहनाई तो हारने वाले को संवेदनाएं मिली और हाशिए पर कोई खड़ा है तो वो मतदाता है। प्रत्याशी तो कल ही सबकुछ भूलकर अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में लौटेंगे लेकिन दुश्मन बने रहेंगे मतदाता। किसी ने मतदाताओं को धोखेबाज संबोधित किया तो किसी ने भगवान, किसी ने बेवक़ूफ़ तो किसी ने कुलद्रोही। ये उन सभी मतदाताओं का अपमान है जो सावन की अंधेरी सड़कों, दरकते पहाड़ों और उफनते गाढ़-गदेरों को पार करके मतदान करने आये। सभी अपने अपने निज कार्यों से समय निकाल कर अपने क्षेत्रों के बेहतर भविष्य को चुनने के लिए आये। लेकिन मतदाताओं को मिला क्या ? कहीं से वादे कहीं से अपमान तो कहीं से बेबुनियाद इल्ज़ाम। क्या मतदाता इसलिए धोखेबाज है उसने भाई भतीजावाद, क्षेत्रवाद से बढ़कर विकास को या विशुद्ध राजनीति को वोट किया होगा,
क्या किसी को इसलिए वोट करना चाहिए वो रिश्तेदार है गाँव का है क्षेत्र का है परिवार का है ? या इसलिए करना चाहिए की प्रत्याशी अपने कर्तव्य के प्रति कितना ईमानदार और कितना निष्ठावान है, वह क्या करता आया है क्या करने आया है। क्या मतदान भी व्यक्ति अपने मत से न करे? तो कैसा मतदान? राजनीति का शायद कोई धर्म नहीं होता किंतु नेताओं का धर्म होना चाहिए। कम से कम नेता को मतदाता के प्रति सौहार्द और सौम्यता बनाए रखनी चाहिए, न जाने कब मतदाता आपके नेक कार्यों से प्रभावित होकर आपके पक्ष में मतदान कर दे और कब आपकी विद्रोही नीति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा दे। मतदाता ही आपको उठाता है और वही आपको गिराता है। इसलिए लोकतंत्र के इस महापर्व पर सबका स्वागत होना चाहिए। जीतने वाले वादे निभायें, हारने वाले फिर से तैयारी में जुट जायें। याद रहे ये आपका आख़िरी चुनाव नहीं है एक हार से मतदाताओं को ना गरियायें, कहाँ कमी हुई उस पर विचार विमर्श करें और आगे उसे ना दौहराएँ। (मैं समय हूँ लौटकर जरूर आऊँगा…)।
डॉ. सतीश नौटियाल
साहित्य विभाग
श्री गुरु राम राय लक्ष्मण संस्कृत महाविद्यालय देहरादून
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