जलवायु परिवर्तन का असर भुगत रही पूरी दुनिया

महेन्द्र पांडे। हम आज जिस चरम पूंजीवाद के दौर से गुजर रहे हैं, उसमें जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने के लिए किसी गंभीर पहल की उम्मीद करना व्यर्थ है। पूंजीवाद पहले समस्याएं पैदा करता है और फिर उन्हीं समस्याओं से मुनाफा कमाता है। तापमान वृद्धि में साल-दर-साल तेजी आ रही है, पर पूंजीवादी व्यवस्था ने इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर उर्जा और पवन ऊर्जा का एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। पूंजीवादी व्यवस्था ही अब प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर देशों में सत्ता का निर्धारण करती है, इसीलिए दुनिया की तमाम सरकारें जलवायु परिवर्तन को रोकने की चर्चा करने के नाम पर हरेक वर्ष बस पिकनिक मनाती हैं और फिर ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल में निर्बाध गति से झोकती हैं। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता अभूतपूर्व स्तर तक पहुँच गयी और इनमें कमी आने के आसार कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल (वर्ष 1750) की तुलना में 150 प्रतिशत अधिक हो चुकी है, इसकी औसत सांद्रता 420 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) तक पहुँच गयी। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की ऐसी सांद्रता 30 से 50 लाख वर्ष पहले भी नहीं थी, जब पृथ्वी का औसत तापमान अभी की तुलना में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक था और औसत समुद्र तल अभी की तुलना में 10 से 20 मीटर अधिक था। इसी तरह, वायुमंडल में मीथेन की सांद्रता 1923 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी) तक पहुंच गयी गई, यह सांद्रता वर्ष 1750 यानि पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 264 प्रतिशत अधिक है। तीसरी सबसे प्रभावी ग्रीनहाउस गैस, नाइट्रस ऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता 335.8 पीपीबी तक पहुंच गयी है, यह सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 124 प्रतिशत अधिक है।
जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि रोकने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र के तहत हरेक वर्ष कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) का जलसा आयोजित किया जाता है। हरेक देश ऐसे सम्मेलनों में नेट जीरो, यानि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य करने का दावा करते हैं, पर डब्लूएमओ की रिपोर्ट में कहा गया है तमाम देश जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की हरेक नीति में असफल रहे हैं। यदि दुनिया को इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकना है तो फिर प्रयासों में कई गुना तेजी लानी होगी। दुनिया कोयले के उपयोग को जिस दर से कम करती जा रही है, उससे 7 गुना अधिक दर से यह काम करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के संदर्भ में दुनिया विपरीत और गलत दिशा में जा रही है। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन देखकर यह स्पष्ट है कि दुनिया इसे नियंत्रित करने के बारे में सोच ही नहीं रही है, ऐसे में इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने का लक्ष्य ही बेईमानी है। वर्ष 1990 में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत साद्रता 350 पीपीएम थी, पर अब पृथ्वी के गर्म होने का प्रभाव 50 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और इसमें 80 प्रतिशत योगदान अकेले कार्बन डाइऑक्साइड का ही है।
संयुक्त राष्ट्र क्लाइमेट चेंज ने हाल में ही दुनिया के 195 देशों द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय जलवायु कार्य योजना, जिसमें 20 संशोधित कार्य योजनायें भी सम्मिलित हैं, का अध्ययन कर बताया है कि इन कार्य योजनाओं को यदि पूरा भी कर लिया जाये तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोका नहीं जा सकेगा। फिर से संशोधित कार्ययोजनाओं को प्रस्तुत करने की अवधि वर्ष 2025 में है, जाहिर है इन दो वर्षों में इसके आगे कुछ भी नहीं होना है। दुनिया इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की चर्चा करती है, घोषणा करती है और तमाम सम्मेलन आयोजित करती है, पर औद्योगिक युग के शुरुआती दौर से अब तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस शताब्दी के अंत में अभी 77 वर्ष शेष हैं। वैज्ञानिकों का आकलन है कि तापमान वृद्धि को रोकने के सन्दर्भ में दुनिया विफल रही है और यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तब सभी देशों को इसे रोकने की योजनाओं में कम से कम 45 प्रतिशत अधिक तेजी लानी पड़ेगी। दुनिया यदि ऐसी योजनाओं को 30 प्रतिशत अधिक तेजी से भी खत्म कर पाती है तब भी तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है। अभी तापमान वृद्धि का जो लक्ष्य तमाम राष्ट्रीय कार्य योजनाओं में दिखता है, यदि सभी योजनाओं और लक्ष्यों को समय से पूरा कर भी लिया जाए तब भी वर्ष 2100 तक तापमान वृद्धि 2.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जायेगी। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत कटौती की जरूरत है, जबकि वर्तमान परिस्थितियों में 10 से 20 प्रतिशत की कटौती ही संभव हो सकती है।
क्लाइमेट सेंट्रल नामक पर्यावरण से जुडी संस्था ने एक रिपोर्ट में बताया है कि पिछले एक वर्ष के दौरान तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से दुनिया की 7.6 अरब, यानि 96 प्रतिशत, आबादी प्रभावित हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रभाव की तीव्रता किसी क्षेत्र में कम और किसी में अधिक हो सकती है, पर प्रभाव हरेक जगह पड़ा है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय देश और छोटे द्वीपों वाले देश हैं, जिनका ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान लगभग नगण्य है।
साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण वर्ष 1990 से अब तक दुनिया को खरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। अमीर देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार हैं पर उनके सकल घरेलू उत्पाद में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण औसतन 1.5 प्रतिशत की गिरावट आई है, दूसरी तरफ अमीर देशों के कारण जलवायु परिवर्तन की मार झेलते गरीब देशों के सकल घरेलू उत्पाद में औसतन 6.7 प्रतिशत की हानि हो रही है। पिछले 40 वर्षों से भी अधिक समय से वैज्ञानिक इससे आगाह कर रहे थे। शुरू में वैज्ञानिकों ने कहा कि तापमान वृद्धि के ऐसे संभावित प्रभाव हो सकते हैं दुनिया उदासीन रही। इसके बाद वैज्ञानिकों ने कहा, तापमान वृद्धि के ऐसे प्रभाव हो रहे हैं, दुनिया फिर उदासीन बनी रही।
पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिकों के साथ ही प्राकृतिक आपदाएं स्वयं बता रही हैं कि तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव है, पर दुनिया अभी तक उदासीन है। अब यह आपदाएं एक-दो दिनों के समाचार से अधिक कोई महत्व नहीं रखतीं। बस इन्हीं एक-दो दिनों के लिए हम जलवायु परिवर्तन के बारे में भी बात कर लेते हैं। इन दिनों पूरी दुनिया जंगलों की आग, भयानक सूखा, बाढ़ और रिकॉर्ड तोड़ गर्मी से परेशान है। हरेक सरकार इन आपदाओं से प्रभावित लोगों की कुछ हद तक मदद कर रही है, पर ऐसी आपदाओं को भविष्य में कम किया जा सके, इसके बारे में कोई भी सरकार नहीं सोच रही है। पिछले वर्ष भी गर्मियों में ऐसे ही हालात थी, पर कुछ दिनों बाद ही सारी सरकारें इन आपदाओं को भूल गईं।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्रचंड गर्मी, असहनीय सर्दी, जंगलों की आग, जानलेवा सूखा, लगातार आती बाढ़ और ऐसी ही दूसरी आपदाओं से पूरी दुनिया बेहाल है, और इन आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती जा रही है। इन सबका असर हरेक देश की सामान्य आबादी पर ही पड़ता है। पूंजीवाद और सत्ता इन आपदाओं को प्राकृतिक आपदा साबित करती रहती है, पर यह सब पूंजीवाद की देन है। सत्ता और पूंजीवाद की जुगलबंदी के कारण पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन का असर भुगत रही है।

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