देहरादून। उत्तराखंड की धरती पर ऋतुओं के अनुसार अनेक लोक पर्व मनाये जाते हैं। ऐसे ही पर्वांे में से एक है हरेला। हरेला शब्द का तात्पर्य हरियाली से है। हरेला मनाने से घर मे सुख, समृद्धि व शांति आती है ऐसा माना जाता है। उत्तराखंड के लोक पर्व हरेला के दिन कहे जाने वाले आशीर्वचन ‘जी रये जाग रये, य त्यार य मास भेटनै रये..’ में गांव-समाज की सुख-समृद्धि व खुशहाली की कामना की गई है। हरेला प्रकृति से जुड़ा पर्व है। चतुर्मास में हर तरफ हरियाली। प्रकृति में अद्भुत निखार व मन में अथाह उल्लास होता है। चातुर्मास की वर्षा पर्वतीय क्षेत्रों की फसल के लिए उपयोगी होने से किसान हरेला को बहुत महत्व देते हैं। इस समय धान, मंडुवा, भट व मक्का की फसल तेजी से बढ़ने लगती है। घर के आसपास क्यारियों में शिमला मिर्च, बैंगन, तोरई, कद्दू, ककड़ी की बहार रहती है। फल पट्टी क्षेत्रों में सेब, नाशपाती, आड़ू, दाड़िम के पेड़ भी फलों से लदे होते हैं।
हरेला पांच या सात प्रकार के अनाज के बीजों को एक छोटी टोकरी में मिट्टी डाल कर बोया जाता है। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। 9वें दिन इसकी पाती की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें दिन यानी हरेला के दिन इसे काटा जाता है और विधि-विधान अनुसार घर के बुजुर्ग सुबह पूजा पाठ करके हरेले को देवताओं को चढ़ाते हैं। उसके बाद घर के सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है। हरेला घर मंे सुख-शांति व समृद्धि के लिए बोया और काटा जाता है। हरेला अच्छी फसल का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलों को नुकसान न हो यह भी मान्यता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे कृषि में उतना ही फायदा होगा। कुमांऊ में हरेला वैसे तो घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामुहिक रूप से स्थानीय ग्राम देवता के मंदिर में भी मनाया जाता है। गांव के लोगों द्वारा मिलकर मन्दिर में हरेला बोया जाता है और सभी लोगों द्वारा इस पर्व को हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
सावन का महीना हिन्दू धर्म मे पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। यह महीना भगवान शिव को समर्पित है और भगवान शिव को यह महीना अत्यधिक पसंद भी है। इसीलिये यह त्यौहार भी भगवान शिव परिवार को समर्पित है। उत्तराखंड की भूमि को तो शिव भूमि (देव भूमि) भी कहा जाता है, क्योंकि भगवान शिव का निवास स्थान यहीं देवभूमि कैलाश (हिमालय) में ही है। इसीलिए श्रावण मास के हरेले में भगवान शिव परिवार की पूजा-अर्चना की जाती है। शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश की मूर्तियां शुद्ध मिट्टी से बनाकर उन्हें प्राकृतिक रंग से सजाया संवारा जाता है। जिन्हें स्थानीय भाषा में डिकारे कहा जाता है। हरेले के दिन इन मूर्तियों की पूजा अर्चना हरेले से की जाती है। यह लोक पर्व हर साल कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। अंग्रेजी तारीख के अनुसार यह त्योहार हर वर्ष 16 जुलाई को होता है। लेकिन कभी-कभी इसमें एक दिन का अंतर हो जाता है। हरेला प्रकृति के संरक्षण पर जोर देता है। यह ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार है।
चतुर्मास में हर तरफ हरियाली होती है। प्रकृति में अद्भुत निखार व मन में अथाह उल्लास होता है। चातुर्मास की वर्षा पर्वतीय क्षेत्रों की फसल के लिए उपयोगी होने से किसान हरेला को बहुत महत्व देते हैं। इस समय धान, मंडुवा, भट व मक्का की फसल तेजी से बढ़ने लगती है। घर के आसपास क्यारियों में शिमला मिर्च, बैंगन, तोरई, कद्दू, ककड़ी की बहार रहती है। फल पट्टी क्षेत्रों में सेब, नाशपाती, आड़ू, दाड़िम के पेड़ भी फलों से लदे होते हैं। जानवरों के लिए पर्याप्त घास होता है। धिनाली यानी दही-दूध की बहार होती है। हरेला पर्व पहाड़ के लोक विज्ञान से जुड़ा हुआ है। इसे बीच परीक्षण त्योहार भी कहा जा सकता है। हरेले के तिनके देख काश्तकार आसानी से अंदाज लगा लेते हैं कि बीज की गुणवत्ता कैसी है और इस बार किस तरह की फसल होगी। हरेले की टोकरी में विभिन्न किस्म के अनाज बोना मिश्रित खेती के महत्व को प्रदर्शित करता है। हरेला पर्यावरण रक्षा व बारहमासा खेती को जीवंत बनाए रखने का प्रतीक पर्व है। अब लोग खेती-पशुपालन छोड़ पेंशन, मुफ्त राशन, मनरेगा, मजदूरी से गुजर करने लगे हैं। पहले परिवार आठ से 10 माह का अनाज पैदा कर लेता था। अब मुश्किल से दो से तीन माह का मिल पाता है। यही कारण है कि परंपरागत खेती व उनके बीज खत्म होने की कगार पर आ गए हैं। लोक के बीच उल्लास से मनाए जाने वाले हरेला को परंपरागत खेती बढ़ावा देने व प्रकृति को संरक्षित करने के तौर पर अपनाने की जरूरत है। हरेला पर्व पर पौधे रोपने का चलन है। पहाड़ों में चारे व फलदार प्रजाति के पौधे लगाने के साथ खेतों में मेहल व पाती की डाली रोपने का भी चलन है। इसके पीछे विज्ञान है कि चातुर्मास में पर्याप्त वर्षा होने से पौधे आसानी से लग जाते हैं।
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