डा. देव कृष्ण थपलियाल। दो दशक पहले, गठित इस राज्य के खेवनहारों नें जन आॅकाक्षाओं को दरकिनार कर, इस राज्य को ऐन-केंन प्रकारेण ’मुखिया‘ की कुर्सी हथियानें का जरिया बना दिया है, जब भी राज्य की चर्चा होती है, तो उस ’चर्चा’ में राज्य की मूल अवधारणा विकास अथवा संसाधनों को विकसित करनें के बजाय ’मुख्यमंत्री’ बननें/बनानें तक सिमट जाती है ? दूर्भाग्यवश राज्य स्थापना के शुरूवाती दिनों से ही ’कौंन बनेगा मुख्यमंत्री‘’ की खुली ’प्रतियोगिता‘ शुरू हो गईं थीं ? तब से सरकारें अस्तित्व में आते हीं मुख्यमंत्री बदलो’ का अभियान अंदर से शुरू हो जाता है ? विपक्ष से ज्यादा सरकार के भीतर बैठे ‘अपनें ही’ वो काम कर जाते हैं, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती ? मसलन अभी की सरकार में बैठे ज्यादातर मंत्रीगणों की टकटकी सी0एम0 की कुर्सी पर लगी है, या उन्हें इस बात का मलाल है, कि वे इस बार ’मौका’ गवाॅ गये ? फिर ’मुख्यमन्त्रीं’ किसी को भी बना लीजिए, उसका ’समय’ प्रदेश के विकास से ज्यादा ’प्रबंधन’ में ही जाया हो जाता है ? जिससे राज्य का विकास तो बाधित होता ही है, साथ में ’सरकारी मशीनरी’ भी अस्थिर व कामचलाऊ भर तक रह जातीं हैं, जिस योजना/नीति/व्यवस्था पर काम चलना चाहिए, या चल रहा होता है, वह आगे कितना चलेगा इस पर असमंजस की स्थिति बनीं रहती है ?
पिछले 21 सालों से प्रदेश के बाहर-भीतर, इस प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता चर्चा का विषय बनीं हुईं है। इस बार ’डबल इंजन’ की सरकार को प्रदेश की जनता भरपूर संमर्थन देकर सिंहासन सौंपा था, 70 विधायकों में से 57 लोगों को चूनकर भेजना, एक तरह से यह संदेश देंनें की कोशिश कीं थीं, सरकार निश्चिंत हो कर काम करे ! परन्तु इस सरकार नें पुरानें रिकार्ड को तोडते हुऐ ’मुख्यमंत्री बदलो’ का ’अभियान’ ही शुरू कर दिया ?
उत्तराखण्ड के प्रसिद्व लोकगायक नरेद्र सिंह नेगी तो यहाॅ तक कह दिया की ‘‘सूबे की मुखिया की कुर्सी तो इतनी गर्म है, कि ’कोई भी’ इसमें ज्यादा देर टिक नहीं सकता‘‘ ? जबकि पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश के अस्तित्व में आये 50 साल से अधिक का समय व्यतीत हो गया है, फिर भी वहाॅ ये 6-7 के आसपास की संख्या है । देश के कई सूबे और प्रांत ऐसे हैं, जहाॅ एक ही व्यक्ति के नेतृत्व में कई-कई सालों से सरकारें काम कर रही है। मध्य प्रदेश, पंश्चिमी बंगाल, उडीसा, दिल्ली, के साथ उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम के कई सूबों में मुखिया कई बार रिपीट हो चुके हैं, जबकी इन राज्यों में अनेक प्रतिभावान नेताओं की कतार खडी है ? परन्तु 20 साला उत्तराखण्ड में पं0 नारायण दत्त तिवारी को छोडकर कोई भी सी0एम0 अपना नियत पाॅच साल का कार्यकाल पूरा करनें में सफल नहीं पाये!
महज दो दशकों के इतनें छोटे से समयान्तराल में 11 लोंगों को सी0एम0 की शपथ लेते इस गरीब राज्य की गरीब जनता के साथ भद्दा मजाक नही ंतो और क्या है ? राजनीतिक अवसरवाद का परिणाम है, कि पहले अंतरिम सरकार के सी0एम0 नित्यानंद स्वामी को केवल 11 महीनें ही नसीब हो पाये, श्री भगत सिंह कोश्यारी को 4 माह पं0 नारायण दत्त तिवारी अपवाद स्वरूप अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा कर पाये । जन0 भुवन चंद खण्डूडी को सवा 2 साल, डाॅ0 रमेश पोखरियाल निशंक 2 साल जन0 खण्डूडी का दूसरा कार्यकाल 6 माह, था, श्री विजय बहुगुणा को 2 साल करीब, श्री हरीश रावत का पहला कार्यकाल 2 साल, दूसरा महज 1 दिन, व तीसरा कार्यकाल 10 महिनें का रहा, बडे जनमत से बनीं भाजपा सरकार के श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत नें 4 साल पूरे किये ही थे, कि अचानक उन्हें हटाकर श्री तीरथ सिंह रावत को कमान सौंपीं गईं, परन्तु उन्हें भी संवैधानिक बाध्यताओं का हवाला देकर 4 महीनें में ही ’चलता’ किया गया, हालाॅकि जानकारों की मानें तो रास्ता निकाला जा सकता था ? परन्तु उत्तराखण्ड को बलि का बकरा बना कर दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री को भी साधना था ?
4 जुलाई को खटीमा के युवा विधायक श्री पुष्कर सिंह धामीं को प्रदेश की कमान सौंपीं गईं। अनुमान लगाया जा रहा है, कि प्रदेश में युवा वोटरों की भारी तादात 57 फीसदी को देखते हुऐ, श्री धामी को लाया गया हो, परन्तु शासन-प्रशासन सम्बन्धीं अपनीं अनुभवहीनता व पार्टी के बाहर-भीतर असंतुष्ट नेताओं की बडी खेप को देखते हुऐ, जन आॅकंाक्षाओं को कितना संतुष्ट कर पाते हैं, अथवा अगले साल फरवरी तक अपनीं कुर्सी बचा पाते हैं की नहीं यह आनें वाला वक्त ही बतायेगा ? युवा वोटरों को साधनें के चक्कर में अनुभवहीन पुष्कर धामीं इस प्रदेश का कितना भला कर पाते हैं, इसमें भी संदेह है ?
पिछलें दिनों एक वरिष्ठ मंत्री तो यह कहनें से भी नहीं चूके की ’मुख्यमंत्री बदलना’ पार्टी का विशेषाधिकार है, इससे राज्य की जनता का कोई वास्ता नहीं ? जनाब ! ये भूल गये की यह ’जनतंत्र’ है, जनता की इच्छाओं के मुताबिक ही शासन चलेगा ? फिर एक ही कार्यकाल में इतनें माननीय ऊग आयेंगें तो फिर उनकी खाद-खुराक के लिए पैसा कहाॅ से आयेगा ? जिस राज्य की माली हालत इतनीं खराब हो की ’आमदनीं अठन्नी, खर्चा रूपया’ है, राज्य बजट का बडा हिस्सा करीब 43 फीसदी खर्च कर्मचारियों की तनख्वाह, पेंशन व भत्तों पर खर्च हो जाता है, तथा राज्य के विकास और कल्याणकारी योजनाओं के लिए केद्र सरकार की कृपाओं पर निर्भरता हो, करीब 40,000 करोड रूपयों का कर्ज का बोझ पहले ही राज्य पर चढा है, फिर वर्तमान और पूर्व माननीयों को प्रोटोकाॅल के तहत दी जानें वाली अलीशान सुविधाऐं कहाॅ से जुटाईं जायेंगी ? इस साल 57400.32 करोड के बजट का 29.58ः कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, व 13.03ः पेंशन पर व्यय दर्शाया गया है, विकास कार्यों के लिए 35.83ः आय का अनुमान केंद्रीय सहायता के रूप में दर्शाया गया है। इसके अलावा मंत्री जी को नहीं मालूम की नीति-नियंताओं, अधिकारी कर्मचारियों की जो फिल्डिंग सजाई जाती है, उसका विकास कार्यो पर कितना प्रभाव पडता है, उसका खामियाजा जनता को ही भूगतना पडता है।
एक ही दल/गठबंधन की सरकार, के ’एक ही मुद्दे’ पर अलग-अलग मुख्यमंत्रियों की राय चैंकानें वाली हैं ? बल्कि अस्थिरता, अंर्तकलह और अविश्वास पैदा करनें के भी सूचक हैं ? कोविड-19 के वैश्विक महामारी के दौर में हरिद्वार ’कुंभ’ को जारी रखनें के निर्णय बार-बार बदले गये, चार धाम यात्रा को लेकर गठित ’देवस्थानम् बोर्ड’ को लेकर वर्तमान मुखिया अब ‘हाई पावर कमेटी’ गठन कर, समीक्षा की बात रहें हैं, जबकि इनकी सरकार के पहले मुख्यमंत्री इस पर अपना ’स्टैंड’ साफ कर चूके थे । प्रदेश में भू-कानून को लेकर स्थानीय लोंगों में लगातार ’आक्रोश’ बढ रहा है, गरीब जनता की आशंकाऐं हैं, कि निकट भविष्य में उनकी अचल सम्पत्ति को कोई भी उद्योगपति, दुकानदार औंने-पौंनें दामों पर खरीद-बेच लेगा ? यह आशंका ऐसे ही निर्मूल नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक शह पर कभी ’विकास’ के नाम पर तो कभी स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार देंनें के नाम पर कई-कई बीघा जमीन हडपी जा चुकी है।
संविधान के भाग-6, अनुच्छेद 152-अनु0 237 राज्य शासन व्यवस्था के तहत दी गईं व्यवस्थाओं के आलोक में अनु0 164 में स्पष्ट प्रावधान है, कि ’राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करेगा’ परन्तु महामहिम भी उसी दल/गठबंधन के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करेगा, जिसे विधानमंडल में बहुमत प्राप्त हो । परन्तु बिना किसी ठोस कारणों से किसी भी योग्य नागरिक/सरकार को ’मुख्यमंत्री/सरकार’ जैसे गरिमामय पद से हटाना’ नैतिक रूप से अनुचित है, बल्कि गलत परम्परा का पोषक भी है । कहा जा रहा है, कि यह पार्टी विशेष का अंदरूनी मामला है, परन्तु सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करनें वाला कोई भी व्यक्ति/समूह कैसे ’निजी’ हो सकता है ? मुख्य विपक्षी दल काॅग्रेस के सामनें अभी मुख्यमंत्री की कुर्सी की दौड भले न हो, परन्तु पार्टी नें अपनें नये कप्तान श्री गणेश गोदियाल के सामनें चार कार्यकारी अध्यक्ष नामित कर यह स्पष्ट कर दिया कि कुसी्र दौड में उसके कोई नेता पीछे नहीं रहना चाहते हैं ? उत्तराखण्ड जैसे नितांत पहाडी राज्य, जहाॅ गरीबी के कारण लोग पलायन कर रहे हों उस राज्य मे इस तरह की परम्परा को रोकना होगा ?