शिक्षा के बाजारीकरण और नई शैक्षिक परिपाटी में मोबाइल की अपरिहार्यता को महंगे स्कूलों ने स्टेटस सिंबल बना दिया है। लेकिन हालिया वैश्विक सर्वेक्षण बता रहे हैं कि पढ़ाई में अत्यधिक मोबाइल का प्रयोग विद्यार्थियों के लिये मानसिक व शारीरिक समस्याएं खड़ी कर रहा है। विभिन्न ऑनलाइन शैक्षिक कार्यक्रमों के चलते छात्र-छात्राओं में मोबाइल फोन का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। तमाम पब्लिक स्कूलों ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल अनिवार्य तक बना दिया है। कमोबेश सरकारी स्कूलों में ऐसी बाध्यता नहीं है। लेकिन वैश्विक स्तर पर किए गए सर्वेक्षण से यह तथ्य सामने आया है कि स्मार्टफोन एक हद तक तो सीखने की प्रक्रिया में मददगार साबित हुआ है, लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि एक समय महज बातचीत का जरिया माना जाने वाला मोबाइल फोन आज दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने वाला बेहद जरूरी उपकरण बन चुका है। खासकर कोरोना काल के चलते स्कूल-कालेजों के बंद होने के बाद तो यह पढ़ाई का अनिवार्य हिस्सा बन गया। तब लगा था कि इसके बिना तो पढ़ाई संभव ही नहीं है। लेकिन नादान बच्चों के हाथ में मोबाइल बंदर के हाथ में उस्तरे जैसा ही है। जाहिर तौर पर ये उनके भटकाव और मानसिक विचलन का कारण भी बन सकता है। अब इसके मानसिक व शारीरिक दुष्प्रभावों पर व्यापक स्तर पर बात होने लगी है। यहां तक कि आस्ट्रेलिया समेत तमाम विकसित देश स्कूलों में मोबाइल के उपयोग पर रोक लगा रहे हैं।
अब तो यूनेस्को अर्थात संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन की दुनिया में शैक्षिक स्थिति पर नजर रखने वाली टीम ने भी स्मार्टफोन के उपयोग से विद्यार्थियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर चिंता जतायी है। इसकी रिपोर्ट भारत में शिक्षा के नीति-नियंताओं की आंख खोलने वाली है। यूनेस्को की टीम के मुताबिक बीते साल के अंत तक कुल पंजीकृत शिक्षा प्रणालियों में से चालीस फीसदी ने सख्त कानून या नीति बनाकर स्कूलों में छात्रों के स्मार्टफोन के प्रयोग पर रोक लगा दी है। दरअसल, आधुनिक शिक्षा के साथ कदमताल की दलील देकर तमाम पब्लिक स्कूलों में मोबाइल के उपयोग को अनिवार्य बना दिया गया। आधुनिक समय में स्मार्टफोन कई तरह से शिक्षा में मददगार है। लेकिन यहां प्रश्न इसके निरंकुश प्रयोग का है। साथ ही दुनिया में बेलगाम इंटरनेट पर परोसी जा रही अनुचित सामग्री और बच्चों पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों पर भी दुनिया में विमर्श जारी है। जिसमें प्रश्न बच्चों की निजता का भी है। वहीं प्रश्न ज्यादा प्रयोग से बच्चों के दिमाग व शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का भी है। निस्संदेह, शिक्षकों व अभिभावकों की देखरेख में सीखने की प्रक्रिया में स्मार्टफोन का सीमित उपयोग तो लाभदायक हो सकता है। लेकिन इसका अंधाधुंध व गलत उपयोग घातक भी हो सकता है। दरअसल, स्मार्टफोन में वयस्कों से जुड़े तमाम एप ऐसे भी हैं जो समय से पहले बच्चों को वयस्क बना रहे हैं। उन्हें यौन कुंठित बना रहे हैं। बड़ी चुनौती यह है कि बच्चों की एकाग्रता भंग हो रही है। बच्चों में याद करने की क्षमता घट रही है। ऐसे में जब शिक्षा में स्मार्टफोन का उपयोग टाला नहीं जा सकता, लेकिन उसका नियंत्रित उपयोग तो किया ही जा सकता है। उसका उपयोग सीमित किया जाना चाहिए। संकट यह भी कि मोबाइल पर खेले जाने वाले ऑन लाइन गेम जहां बच्चों को मैदानी खेलों से दूर कर रहे हैं, वहीं स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। निश्चित तौर पर फोन छात्र-छात्राओं का सहायक तो बन सकता है, लेकिन उनके दिमाग को नियंत्रित करने वाला नहीं। तकनीक के जरिये विकास की अंधी दौड़ में हम बहुत कुछ खो रहे हैं। इंसान कभी मशीन से संचालित नहीं हो सकता। मानवीय संवेदनाएं और अहसास कभी कृत्रिम नहीं हो सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई तकनीक, मशीन व उपकरण सहयोगी तो हो सकते हैं, मगर मालिक नहीं हो सकते। कमोबेश यही बात शिक्षा में तेजी से बढ़ते स्मार्टफोन के उपयोग और उसके घातक प्रभावों को लेकर कही जा सकती है।
शोध एवं अध्ययनों में पाया गया है कि जो छात्र अपने फोन के करीब रहकर पढ़ाई करते हैं, उन्हें ध्यान केंद्रित करने में बहुत मुश्किल होती है, भले ही वे इसका उपयोग न कर रहे हों। स्मार्टफोन के उपयोग से नींद की गुणवत्ता कम होने, तनाव बढ़ने, एकाग्रता बाधित होने, स्मृति लोप होने, अवांछित सामग्री का अधिक उपयोग करने, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ने जैसे खतरे उभरें हैं। शोध-अध्ययन के आंकड़े यह संकेत देते हैं कि डिजिटल शिक्षा और स्मार्टफोन के इस्तेमाल में बच्चों की भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। यह बदलाव शिक्षा के क्षेत्र में नए अवसर पैदा कर रहा है, लेकिन साथ ही इसके साथ कई चुनौतियाँ भी हैं, डिजिटल शिक्षा को संतुलित और सुरक्षित बनाना आने वाले समय में एक प्रमुख चुनौती है। डिजिटल शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के साथ, यह आवश्यक हो गया है कि स्मार्टफोन और इंटरनेट का सही, संयमपूर्ण और सुरक्षित उपयोग सुनिश्चित किया जाए ताकि बच्चों का विकास सही दिशा में एवं समग्रता से हो। मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग छात्रों के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के लिए बुरा है तथा इसके लगातार उपयोग से चिंता का स्तर बढ़ता है, आत्म-सम्मान कम होता है तथा अकेलेपन की भावना बढ़ती है। इसका अंधाधुंध व गलत उपयोग घातक भी हो सकता है। कुछ सर्वेक्षण के परिणामों ने विश्वविद्यालय के संसाधनों और शैक्षणिक जानकारी तक मोबाइल पहुँच के लिए छात्रों की बढ़ती माँग को प्रदर्शित किया, साथ ही अपने साथियों और प्रशिक्षकों के साथ तेज, व्यक्तिगत, इंटरैक्टिव डिजिटल संचार की बढ़ती ज़रूरतों को भी दर्शाया। भारत में स्मार्टफोन के उपयोग को बैन करने का निर्णय जल्दबाजी में न हो, पहले अनुसंधान हो, परामर्श किया जाना चाहिए तथा उनके अनुप्रयोग पर गहन विचार किया जाना चाहिए। अध्ययनों में स्मार्टफोन के ज्यादा इस्तेमाल और बच्चों में डिप्रेशन की बढ़ती दरों के बीच संबंध देखने को मिला है। अत्यधिक स्मार्टफोन के उपयोग से सामाजिक अलगाव, खराब स्लीप पैटर्न, शारीरिक गतिविधि में कमी आती है। इसके अलावा बच्चे आमने-सामने बात करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। ये कारक, साइबरबुलिंग और ऑनलाइन उत्पीड़न के जोखिम के साथ मिलकर, डिप्रेशन के लक्षणों के बढ़ावा देते हैं। स्मार्टफोन के उपयोग और डिप्रेशन के बीच की कड़ी में योगदान देने वाला एक प्रमुख कारक नींद के पैटर्न पर नकारात्मक प्रभाव है। स्मार्टफोन की स्क्रीन से निकलने वाली ब्लू लाइट बच्चों की स्लीप साइकिल में बाधा डाल रही है, जिससे नींद आने और आराम की नींद लेने में कठिनाई होती है। अपर्याप्त नींद बच्चों और किशोरों में डिप्रेशन का बढ़ना और चिढ़चिढ़ाहट पैदा करने की एक बड़ी वजह है।