संस्कारहीनता के घातक दुष्परिणाम, नहीं रुक रहे महिलाओं पर होने वाले अपराध

प्रकाश सिंह। अगर किसी समस्या की गहराई में न उतरा जाया जाए तो वह समस्या फिर-फिर उभर कर आती है। निर्भया कांड के बाद पूरे देश में हंगामा मचा। सरकार ने जस्टिस वर्मा के नेतृत्व में एक समिति गठित की। समिति ने कानून में बदलाव के अच्छे सुझाव दिए। उन सुझावों पर अमल भी हुआ, लेकिन लगता है कि 12 वर्ष बाद भी समस्या जस की तस बनी हुई है। महिलाओं पर होने वाले अपराध रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2020 में महिला संबंधी 3,71,503 अपराध पंजीकृत हुए। 2021 में यह संख्या बढ़कर 4,28,278 हो गई और 2022 में 4,45,256 हो गई। यानी 2022 में महिला संबंधी अपराधों में 2021 की अपेक्षा चार प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। किसी समाज का मध्य वर्ग उसकी शक्ति होती है। इसी वर्ग से अधिकांश समाज सुधारक और क्रांतिकारी निकलते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में भी इसी मध्य वर्ग ने अहम भूमिका निभाई थी। दुर्भाग्य से आज यह वर्ग आंतरिक कलह, शान शौकत और भोग विलास में लिप्त है। बच्चों को महंगे स्कूल में भेज कर माता-पिता समझते हैं कि कि उनकी जिम्मेदारी पूरी हो गई। लोगों का यही लक्ष्य है कि पैसे कमाओ और जीवन का आनंद लो। बच्चों को मोबाइल और लैपटाप दे दो, वे खुश रहेंगे। मोबाइल-लैपटाप में वे कितना समय लगा रहे हैं, क्या कर रहे हैं, इसकी किसी को कोई चिंता नहीं। इसका नतीजा यह है कि मूल्यों से विहीन पीढ़ियां विकसित हो रही हैं।
पढ़ाई की बात करें तो अध्यापकों का ही स्तर इतना निम्न है कि बच्चों को क्या दोष दिया जाए। नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन के अनुसार एक-तिहाई अध्यापक ऐसे हैं, जिनमें पढ़ाने की अपेक्षित योग्यता नहीं है। उन्हें पढ़ाने की आधुनिक तकनीक का भी कोई ज्ञान नहीं है। फिर भी, कुछ बच्चे अपनी मेहनत और कोचिंग से अच्छे निकल जा रहे हैं। इनमें से कुछ सिविल सेवा परीक्षा भी पास कर लेते हैं। हालांकि, सिविल सेवा में पहुंचकर भ्रष्टाचार की कहानियां भी सामने आती हैं। ऐसे भी उदाहरण हैं कि सिविल सेवा में तो टाप किया, परंतु सचिव-मुख्य सचिव बनने के बाद महाशय सस्पेंड हो गए। बहुत से स्कूल तो फैक्ट्री की तरह चलते हैं। स्कूल में खेलने का कोई मैदान नहीं। बच्चों को केवल रटाने और किताबी कीड़ा बनाने पर जोर है। बच्चे अच्छे नंबर से पास होने चाहिए, केवल यही लक्ष्य होता है। उनके व्यक्तित्व का विकास हुआ या नहीं, उन्हें समाज और देश सेवा की प्रेरणा मिली या नहीं, इन सबसे कोई मतलब नहीं। अरविंद ने हमें बहुत पहले चेतावनी दी थी कि आज की शिक्षा व्यवस्था ऐसे विद्यार्थी तैयार कर रही है जिनमें उस सोच और शक्ति का अभाव है, जिससे एक देश महान बनता है और इसका मुख्य कारण है स्कूल और विश्वविद्यालय में हमें अपने देश के आध्यात्मिक और बौद्धिक ज्ञान के बारे में कुछ नहीं पढ़ाया जाता।
एक तरफ बच्चों को संस्कार नहीं दिए जाते और जीवन में मूल्यों का महत्व नहीं समझाया जाता। दूसरी तरफ उन्हें पाश्चात्य सभ्यता का एक घिनौना और वीभत्स स्वरूप रोज देखने को मिलता है। भारत में लगभग 75 करोड़ लोग इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं। यह देश की कुल आबादी का लगभग 52 प्रतिशत है। इस मामले में भारत दुनिया में चीन के बाद दूसरे नंबर पर है। एक दृष्टिकोण से यह हमारी प्रगति का सूचक है, परंतु इसका दूसरा पहलू भी है कि आज इंटरनेट अश्लील सामग्री से भरा पड़ा है। दुनिया में अश्‍लील सामग्री का प्रति वर्ष करीब 57 अरब डालर का उद्योग है। गूगल के अनुसार अश्लील सामग्री देखने वाले देशों में शीर्ष पर पाकिस्तान के बाद मिस्र, वियतनाम, ईरान और मोरक्को के बाद छठे स्थान पर भारत है। यह कोई गर्व का विषय नहीं है।
अश्लील सामग्री देखने के बाद मस्तिष्क में कैसे विकृत विचार उठते हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं। दुष्कर्म की घटनाएं इसी विकृति का भी परिणाम होती हैं। किसी ने सही कहा है कि अश्‍लील सामग्री थ्योरी होती है और दुष्कर्म उसकी प्रैक्टिस। कोलकाता के चर्चित दुष्कर्म एवं हत्या के कांड में जो अपराधी संजय राय पकड़ा गया, उसके मोबाइल में अश्‍लील सामग्री की बहुत सामग्री थी। निर्भया कांड के अपराधियों को भी अश्लील सामग्री देखने की लत थी। अश्‍लील सामग्री का हमारे युवा वर्ग पर भयंकर असर पड़ रहा है। ओटीटी प्लेटफार्म सेंसर से परे हैं। उनमें अश्लीलता का नंगा नाच हो रहा है। सोशल नेटवर्क साइट्स भी बड़ी चालाकी से अश्लील सामग्री परोस रही हैं। जिन बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन है, वे किसी ने किसी समय अश्‍लील सामग्री देखते होंगे। दुर्भाग्य से हमारे नेताओं और कुछ हद तक न्यायाधीशों का भी अश्‍लील सामग्री के प्रति बड़ा उदार दृष्टिकोण है। उनका कहना है कि हर व्यक्ति को यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह क्या देखे या पढ़े। ठीक है, आप स्वतंत्रता दीजिए, लेकिन बाद में इसका हल्ला मत मचाइए कि दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं, महिलाओं पर अत्याचार नहीं रुक रहे हैं, आदि इत्यादि।
महिला संबंधी अपराधों के संदर्भ में राष्ट्रपति का यह सुलझा हुआ बयान आया कि आज हमें ईमानदारी से अपने भीतर झांकना पड़ेगा और आवश्यकता इसकी है कि हम समस्या की जड़ में जाएं। उन्होंने इस पर गहरा खेद प्रकट किया कि एक गंभीर घटना होने के कुछ दिनों बाद हम उसे भूलने लगते हैं और बाद में जब उसी तरह की घटना फिर होती है तो हम उसका समाधान ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। उन्होंने महिला को भोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किए जाने की प्रवृत्ति की भी निंदा की।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी देश की प्रगति का सबसे बड़ा मानक यह है कि वहां महिलाओं को कितना सम्मान मिलता है। क्या हम अपने समाज की कमजोरी देखने, पहचानने और उसका उपाय ढूंढ़ने के लिए तैयार हैं? सेक्युलरिज्म के नाम पर हम शिक्षण संस्थानों में जैसी मूल्यविहीन शिक्षा दे रहे हैं, क्या हम उसमें संशोधन करना चाहेंगे? अश्लील सामग्री जिस सहजता से उपलब्ध है, क्या उस पर हम अंकुश लगाना चाहेंगे? अपनी संस्कृति को ध्यान में रखते हुए जब तक हम इन सवालों का सही उत्तर नहीं देंगे तब तक ये समस्याएं मुंह बाएं खड़ी रहेंगी और शायद उनका और कुत्सित रूप हमें भविष्य में देखने को मिलेगा।

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