देश में एक बार फिर गठबंधन युग की वापसी

देश में एक बार फिर गठबंधन युग की वापसी हुई है। देश का शासन एक गठबंधन सरकार चलाएगी। पिछले दो लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा ने जिस तरह राजकाज चलाया, वह पर्याप्त बहुमत के बूते ही संभव था। तभी भाजपा अनेक बदलावकारी फैसले ले पायी। लेकिन हालिया लोकसभा चुनाव परिणामों ने एक बार फिर देश में गठबंधन युग की वापसी कर दी है। पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में जिस तरह की राजनीतिक अस्थिरता रही है, उसे देश के हित में तो कदापि नहीं कहा जा सकता। बार-बार के चुनावों से जहां देश पर बड़ा आर्थिक बोझ पड़ता रहा है, वहीं दुनिया में देश की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ता रहा। पिछले एक दशक में देश में मजबूत सरकार के चलते अनेक अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत की प्रभावी दखल रही है। जिसकी झलक जी-20 सम्मेलन के सफल आयोजन के रूप में देखी गई। दूसरी ओर राजग सरकार के बड़े ऐतिहासिक व बदलावकारी फैसलों के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उस तरह का प्रतिरोध सामने नहीं आ पाया, जैसी कि आशंका थी। इसी तरह भारत के कई मामलों में पाक के तल्ख प्रतिरोध के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में हम उसे अलग-थलग करने में सफल रहे। लेकिन यह भी हकीकत है कि बड़ा बहुमत सत्ताधीशों को निरंकुश व्यवहार करने का मौका भी देता है। लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि हर छोटे-बड़े विपक्षी राजनीतिक दल की तार्किक बात को सुना जाए। शासन की रीति-नीति में एकतरफा फैसले लेने के बजाय विपक्ष को उसमें शामिल करना एक लोकतांत्रिक देश की जरूरत होती है। सही मायनों में मजबूत विपक्ष किसी देश में एक सचेतक की भूमिका में होता है, बशर्ते बहुमत वाली सरकार उसकी बात को तरजीह दे।
लोकसभा चुनाव के परिणामों का एक सत्य यह है कि अब देश का शासन एक गठबंधन सरकार चलाएगी। वैसे अलग-अलग राजनीतिक धरातल पर खड़े विभिन्न दलों की सत्ता व विपक्ष में भागेदारी एक मायने में लोकतंत्र की खूबसूरती है। लेकिन यदि गठबंधन में शामिल दल अल्पमत सरकार को अपनी अनुचित मांगों व राजनीतिक हितों के लिये लगातार दबाव में रखें, तो इसे लोकतंत्र के हित में नहीं कहा जाएगा। बहुत संभव है गठबंधन सरकार में शामिल होने वाले राजनीतिक दल बाहरी तौर पर साथ मिलकर चलने की बात करें और अंदरखाने अपनी मांगों को लेकर सरकार पर निरंतर दबाव बनाये रखें। इसके मूल में रिश्तों में अतीत में आई कड़वाहट की भी भूमिका हो सकती है। लेकिन ऐसे में तालमेल-सुलह ही कारगर साबित होती है। अब यह एक हकीकत है कि मौजूदा जनादेश के मद्देनजर गठबंधन सरकार बनाना सबसे बड़े दल की मजबूरी हो गई है। निश्चित रूप से पूर्ण बहुमत के साथ सहयोगी दलों के साथ सरकार चलाने और अल्पमत में सहयोगी दलों के साथ सरकार चलाने में बड़ा फर्क है। सवाल उठाया जा रहा है कि पूर्ण बहुमत वाले दो कार्यकालों में स्वच्छंद रूप से फैसले लेने वाली भाजपा क्या गठबंधन के सहयोगियों के दबाव के बीच शासन करने में खुद को सहज महसूस कर सकेगी? जिस तरह पिछले कार्यकालों में बड़े बदलावकारी फैसले लिये गए, क्या पार्टी वैसे फैसले अपने तीसरे कार्यकाल में ले पाएगी? क्या भाजपा अपने कोर इश्यू पर सहयोगियों के साथ समझौते की स्थिति में दिख सकती है? आने वाला वक्त बताएगा कि भाजपा अपने बाकी बचे एजेंडे के क्रियान्वयन में किस हद तक सहयोगी दलों के साथ समझौता करेगी। यह भी कि देश के कुछ राज्यों में इस साल होने वाले चुनावों को लेकर क्या भाजपा अपनी रणनीति में कोई बड़ा बदलाव करेगी? अब यह भी देखना होगा कि बड़े जनाधार के साथ लौटा इंडिया गठबंधन संसद में सहयोग-सामंजस्य किस हद तक बनाता है। बहरहाल, राजग सरकार की राह विपक्षी गठबंधन के तेवरों को देखते हुए इतनी आसान भी नहीं रहने वाली है। लगातार दो बार की सरकार के खिलाफ एन्टी इन्कंबेंसी के बावजूद भाजपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना बहुत बुरा प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता, लेकिन भाजपा इस बार अपने बूते पूर्ण बहुमत से दूर रह गई। भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने से उसे गठबंधन सरकार चलानी होगी। गठबंधन में शामिल दलों का सम्मान करना होगा, उनकी बात सुननी होगी। वहीं कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन ने इन चुनावों में उम्मीदों से कहीं ज्यादा सफलता हासिल की। यहां तक कि अब कांग्रेस को लोकसभा में विधिवत विपक्षी नेतृत्व का अधिकार मिलेगा। बहरहाल, वर्ष 2024 के जनादेश ने साफ किया है कि जनता लोकतंत्र में किसी भी दल को स्वच्छंद व्यवहार की अनुमति नहीं देती। वह लोकप्रहरी की भूमिका में आ जाती है। अब चाहे सामने कितना भी कद्दावर नेता क्यों न हो। जनता देश में सशक्त विपक्ष की भूमिका की जरूरत भी महसूस करती है। देश में आपातकाल के बाद भी बदलाव का जनादेश आया था। सही मायनों में यह जनादेश किसी की जीत व हार का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जीत का है। विपक्ष आरोप लगाता रहा है कि सत्तारूढ़ दल निरंकुश व्यवहार करते हुए सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग विपक्षी नेताओं को भयभीत करने को करता है। कुछ विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों को राजनीतिक दुराग्रह के लिये जेल भेजने के आरोप भी लगे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि गठबंधन सरकार के दौर में अब सत्ताधीश निरंकुश व्यवहार नहीं कर पाएंगे। निस्संदेह, इन हालिया चुनाव नतीजों के दूरगामी परिणाम होंगे। इसी साल हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी इन परिणामों का असर दिख सकता है। वहीं, इन चुनाव परिणामों ने समता-ममता के लोकतंत्र की जरूरत को पुष्ट किया है। जनादेश ने भारतीय संवैधानिक संस्थाओं को मजबूती की जरूरत भी बतायी है। निश्चित रूप से इंडिया गठबंधन को इस सम्मानजनक स्थिति में लाने में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी के मुखर प्रतिरोध ने विपक्ष को ताकत दी। वहीं दूसरी ओर इन लोकसभा चुनावों के परिणामों ने सत्ताधीशों को बताया है कि बेरोजगारी, महंगाई और आम जीवन से जुड़े मुद्दों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हरियाणा व राजस्थान में अग्निवीर भर्ती प्रक्रिया का प्रतिकार युवाओं की अभिव्यक्ति के रूप में इन चुनावों में नजर आने की बात कही जा रही है। पेपर लीक की घटनाओं ने युवाओं को ही नहीं, उनके परिजनों को भी व्यथित किया। युवाओं के देश में हर हाथ को काम देना सरकारों को अपनी प्राथमिकता बनानी होगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटों में गिरावट पार्टी को आत्ममंथन का मौका जरूर देगी। वहीं उड़ीसा व अरुणाचल में भाजपा की अप्रत्याशित कामयाबी भी सामने आई है। अब केरल में उसका खाता खुला है और तेलंगाना में सीटें बढ़ी हैं। उसका वोट प्रतिशत भी कमोबेश बढ़ा है, भले ही ये वोट सीटों में न बदल सके हों। दिल्ली, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल व गुजरात में उसकी बड़ी कामयाबी जरूर पार्टी का उत्साह बढ़ाने वाली है। लेकिन हरियाणा में डबल इंजन की सरकार के बावजूद कांग्रेस की बढ़त पार्टी के लिये चिंता बढ़ाने वाली है, क्योंकि राज्य में इसी साल विधानसभा चुनाव भी होने हैं। भाजपा के एक पक्ष में एक बात यह जरूर है कि देश में वर्ष 1962 में पं. नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस के लगातार तीसरे बार सरकार बनाने का रिकॉर्ड इस बार नरेंद्र मोदी दोहरा रहे हैं। लेकिन ये पार्टी के लिये आत्ममंथन का मौका है कि क्यों पार्टी को अपने बूते सरकार बनाने का अवसर नहीं मिल पाया। यह भी कि अब पार्टी स्वीकारे कि लोकतंत्र सत्तापक्ष और विपक्ष के सामंजस्य व तालमेल से ही समृद्ध होता है। मजबूत विपक्ष लोकतंत्र में सचेतक की भूमिका निभा सकता है।

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