देव कृष्ण थपलियाल
विश्व प्रसिद्व चिपको आॅदोलन के प्रणेता और विश्व विख्यात पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा का गत मई 21 तारीख, शुक्रवार को ऋषिकेश स्थित एम्स में निधन हो गया, वे कोरोना वाइरस से संक्रमित थे। श्री बहुगुणा 94 के निधन से हिमालयी सरोकारों की एक मजबूत कडी का टूट/बिखर गई है, खासकर तब, जब हिमालय पर तरह-तरह के मानवीय वार जारी हैं ? ’चिपको आॅदोलन’ की थाती ’पहाड’ आज हैरान-परेशान है, जिस ’’वन संपदा’’ को बचानें के लिए मातृ शक्ति नें अपनें ’’प्राणों के उत्सर्ग’’ तक की इबारत लिख दी थी ! उसी जमीन पर ’विकास’ के नाम पर रेललाइन, चार धाम यात्रा को सुगम बनानें को ’’आॅल वेदर रोड’’ तो कभी व्यासायिक गतिविधियों के लिए बडे-बडे होटल-माॅल के निर्माण के नाम पर प्राकृतिक वन संपदा का कटान/खदान बडें शर्मनाक ढंग से जारी है। श्री सुन्दर लाल बहुगुणा नें अपनें दीर्घकालिक जीवनयात्रा में हिमालय में हो रहे तमाम बडे-बडे बाॅधो-निर्माणों का गाॅधीवादी तरीके से विरोध किया था, चोटिल और घायल हिमालय के लिए वे बहुत बडे हमदर्द और चिंतक थे, वे हमेशा अपनें सिंदान्तों के लिए जीते रहे। ’’धार ऐंच पाणी, ढाल पर डाला, बीजली बणावा खाला-खाला’’ अर्थात पहाड की चोटी पर पानीं, ढलानों पर पेड, हर गाढ-गधेरे में बीजली बनाए, ताकि हिमालय के अस्तित्व को भी बचाया जा सके और स्थानीय युवाओं को भी ’काम’ मिल सके ! अक्सर बहुगुणा कहा करते थे की जितनीं बातें/माॅगे वे कर रहे हैं, वे मानव जाति के अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है, उसे चाहे आज जितना भी नकारा जाय, परन्तु एक दिन अवश्य आयेगा जब लोंगों को मेरी बातों पर विश्वास होंना शुरू हो जायेगा, लेकिन तब बहुत देर हो चुकीं होंगीं ? हम तब काफी चीजें खो चुके होंगें ?
मूलरूप से मूलरूप से श्री सुन्दर लाल बहुगुणा, गाॅधीवादी विचारक थे, उनका पूरा जीवन गाॅधीजी के अलावा श्री देवसुमन के सिदान्त और दर्शन से पेरित था। वे अपनें भाषणों में अक्सर गाॅधी और श्री देव सुमन को उदधृत किया करते थे, अपनी किशोर अवस्था में टिहरी राज्य में राजशाही बंदिशों के खिलाफ राजशाही विरोधी ’प्रजामण्डल आॅदोलन’ में 1944 से 1948 तक सक्रिय रहे, उन्होंनें श्री देव सुमन के संघर्ष को बहुत करीब से देखा और जाना था, जिसका सुंदरलाल पर ताउम्र प्रभाव रहा, तब वे अपनें बालपन के दिनों से भी गुजर रहे थे, जिसका उनके कोमल मन-मस्त्ष्कि पर गहरा असर हुआ, आजादी के संघर्ष के दिनों में वे गाॅधी जी से प्रभावित थे, स्वतंन्त्रता आॅदोलन में उनकी महत्पूर्ण भूमिका रही, 1945 से 1948 तक सुदर लाल बहुगुणा लाहौर में भूमिगत जीवन यापन करते रह,े इस दौरान वे वहाॅ अपने छद्म नाम सरदार मान सिंह से जानें जाते थे। आजादी के पश्चात उन्होंनें अनेक सामाजिक, साॅस्कृतिक और सबसे बढकर हिमालयी सरोकारों व पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया जिसका लाभ मानव जाति ही नहीं बल्की चराचर जगत में पाये जानें वाले तमाम जीवधारियों का रक्षण युगों-युगों तक संरक्षित रहेगा।
इसके अलावा भारतीय समाज की अनेक विसंगतियों को लेकर भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। ’छुआछुत’ जैसी घातक प्रवृत्तियों नें मानव समाज को कलंकित किया है, सुन्दर लाल बहुगुणा नें इस कलंक गाथा जड मूल उखाडनें के लिए उन्होंनें अनेकों संघर्ष किये, ’नशाबंदी’ जो पहाड के युवाओं को खोखला करनें पर तूली है, के खिलाफ उनके इस आॅदोलन नें हजारों-लाखों युवाओं को सही मार्ग पर लानें के लिए प्रेरित किया, भटके नौजवानों नें शालीन तरीके से अपना जीवन जीना शुरू किया ।
70 के दशक का ’चिपको आॅदोलन’ देश-दुनियाॅ के ’पर्यावरण को संरक्षित’ करनें की ’भावना जगानें’ से पहले ’पर्यावरण की समझ’ को विकसित करनें वाला ज्यादा था, तब आम आदमी अपनें हमारे चारों ओंर फैली ’प्रकृति’ को समझनें की न जानकारी थी और न कोई दृष्टि । वह श्री सुन्दर लाल बहुगुणा ही थे, जिन्होंनें पहाड में महिलाओं को अपनें पेडों पर चिपक कर बचानें की मुहिम में सहयोग देंनें के साथ-साथ उसे अपनी लेखनी की ताकत से दुनियाॅ भर के बुद्विजीवियों को उनका संदेश भी भिजवाया, वे स्वयं भी प्राख्यात पत्रकार व लेखक थे, अपनें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के अलावा अपनीं पर्यावरण पर लिखित किताबों के जरिये उन्होंनें उत्तराखण्ड में फैले ’चिपको आॅदोलन’ की खुश्बु को हर मंच पर बिखेर दिया ।
90 के दशक में टिहरी में भिलंगना और भागीरथी के संगम पर बननें जा रहे भीमकाय ’टिहरी बाॅध’ के निर्माण का विरोध उन्होंनें अपनें गाॅधीवादी तरीकों से की, लगभग चार बार का लम्बा अनशन/उपवास कर देश-दुनियाॅ के तमाम वैज्ञानिकों, भूगर्भवेत्ताओं, भूगोल के जानकारों, बाॅध विशेषज्ञों तथा पर्यावरणविदों का ध्यान खिंचा, तथा इससे उत्पन्न होंनें वाली त्रासदी की तरफ सोचनें को मजबूर किया, इसकी पुष्टि के लिए सरकारों नें भी विशेषज्ञों की टीमें गठित की, और सिफारिशों को लागू भी किया, ’हनुमंत राव कमेटी’ की खास चर्चा भी हुईं, जिसमें श्री सुदंरलाल बहुगुणा की चिंताओं को खास जगह मिली, हालाॅकि टिहरी कस्बे में बडे बाॅध की जगह छोटे बाॅध’ की लडाई में वे हार गये, सरकारों/नीति-निर्धारकों के अडियल रूख नें अपनें राजनीतिक और व्यावसायिक हितों को सर्वोपरी मानते हुए इस संवेदनशील क्षेत्र में इस भीमकाय बाॅध का निर्माण करवाकर पहाड के लोगों के जीवन के साथ छल करनें काम किया। श्री बहुगुणा गाॅधीजी की ही तरह विकास को प्रकृति और पर्यावरण के अस्तित्व के साथ बढना देखना चाहते थें।
9 जनवरी 1927 को तत्कालीन प्रान्त उत्तर प्रदेश अब उत्तराखण्ड के जनपद टिहरी गढवाल की भागीरथी घाटी के गाॅव मरोडा गाॅव में हुआ माता श्रीमती पूर्णा देवी साधारण गृहणी तथा पिताजी टिहरी रियासत में उच्चाधिकारी थे,, टिहरी में इण्टरमीडिऐट की पढाई कर वे स्नातक के लिए वे लाहौर गये, अच्छी शिक्षा-दीक्षा होंनें के बावजूद उन्होंनेे उच्च शासकीय सेवा में जाना स्वीकार करनें के बजाय अपनें गुरू व आदर्श गाॅधी जी के बतायेे मार्ग का अनुसरण किया ? ताकि पीडित मानवता की सेवा के साथ-साथ गाॅधी जी के सुशासन और रामराज की कल्पना को साकार किया जा सके, वे स्थानीय स्तर पर काॅग्रेस पार्टी मे शामिल हो गये और पूरी सक्रियता के साथ काॅगे्रस की नीतियों और कार्यक्रमों को आगे बढानें लगे, हालाॅकि काॅगे्रस की सदस्यता ग्रहण करनें से पहले 1948 में उन्होंनें 21 साल की उम्र में वे प्रजामंडल के टिकट टिहरी राज्य विधान सभा का चुनाव लडा, जो जीवन का पहला और आखिरी चुनाव साबित हुआ, 28 साल की उम्र में वे जिला काॅग्रेस कमेटी के महामंत्री चूनें गये, बाद में विमला नौटियाल के साथ परिणय सूत्र में बंधनें के बाद उनकी सलाह पर उन्होंने राजनीतिक जीवन को त्याग, सामाजिक क्षेत्र की विसंगतियों के खिलाफ लडनें का रास्ता अख्तियार कर लिया, और आजीवन गाॅधीवादी विचार के साथ समाज के वंचितो की सेवा में जुटनें लगे,। उनके प्रयासों से उत्तराखण्ड के सीमान्त जिलों शराबवंदी और 1000 मीटर से अधिक की ऊॅचाईं पर व्यावसायिक वृक्षों पर कटान पर उत्तराखण्ड के सभी पर्वतीय जिलों में 1980 में रोक लगी। हिमालय के पर्यावरण के सवालों को बहुगुणा जी नें अनेक अंन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया। जलवायु परिवर्तन, पानी का संकट, विस्थापन और पलायन से जुडे मुद्दों को वे निरंतर उठाते रहे।
श्री सुन्दर लाल बहुगुणा नें ’हिमालय बचाओ आॅदोलन’ के जरिये अनेक जागरूकता कार्यक्रमों को संचालित किया, अंत में जब उन्हें अपनें स्वास्थ्य में गिरावट महसुस होंनें लगी, तथा तब उन्हें यह एहसास होंनें लगा की वे इस दुनियाॅ से कभी भी जा सकते हैं, तब उन्होंनें 13,14,15 मई 1992 को भागीरथी के तट पर टिहरी बाॅध स्थल के निकट हुऐ एक सम्मेलन में हिमालय के संरक्षण के लिए एक ’’घोषणा पत्र’’ तैयार करवाया जिसे उन्होंनें अपना ’हिमालय’ के नाम अपना ’वसीयतनामा’ कह कर पुकारा था । इस ’वसीयतनामा’ की कुछ मोटी-मोटी बातें निम्नलिखित है -
’’आक्रामक विकास नीति नें हिमालय में प्रकृति एवं मानव दोंनों के लिए जिंदा रहनें का संकट पैदा कर दिया है। इससे केवल इस क्षेत्र में रहनें वाले ही त्रस्त नहीं है, बल्कि इससे भी 10 गुणा लोंगों पर हिमालय की तबाही का विनाशकारी प्रभाव बाढ., भूक्षरण, और सूखे के रूप में पड रहा हैै’’।
’’यह महान् पर्वत, कई देश की सीमाऐं छूता है, और एक बडे भूभाग की जलवायु का नियमन करता है। भौतिक समृद्वि के लिए के स्रोतों के अलावा यह साॅस्कृतिक प्रेरणा एवं भावनात्मक एकता का प्रतीक भी है’’।
’’मरणासन्न हिमालय की रक्षा के लिए नई और दीर्घकालीन नीति की आवश्यकता है। इसके घाव को भरनें तथा यहाॅ के निवासियों के विकास के लिए तत्काल निम्नलिखित कदम उठाये जायें।
….. नदी नालों पर उपजाऊ भूमि जंगल तथा बस्तियों को डुबाये बिना जल विद्युत का उत्पादन उत्पादित बीजली का 20 फीसदी स्थानीय निवासियों को असिंचित भूमि पर पानीं की व्यवस्था फल चारा और रेशा प्रजाति के पौधों का रोपण, तीर्थयात्रियों, प्रकृति दर्शन एवं शान्ति की खोज में आनें वाले लोंगों की सुविधा के लिए पहाडी शैली में छोटे-छोटे आवास गृह, खनन, सडक निर्माण और बाॅधों के मलबे से ध्वस्त ढलानों की भूमि का सुधार …..
हम एक ऐसी हिमालय नीति की घोषणा करते हैं, जिसमें हिमालय का पंे्ररणादायी स्वरूप कायम रहे । इस महान् पर्वत श्रंृखला के घाव भरे, यह की जनता का आर्थिक विकास हो, और हिमालय की संपदाओं का इस प्रकार उपयोग हो जिसमें यहाॅ की नाजूक पारिस्थिति को क्षति ना पहुॅचे और भावी पीढियों को उसका लाभ निरंतर मिलता रहे, इस प्रकार नीति का उद्देश्य इस प्रकार से हो –
स्थानीय संस्थाओं के विकास के लिए अधिक स्वायत्तता जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के उपयोग क्षमता तथा साॅस्कृतिक विकास के लिए अनिवार्य है। अतः उत्तराखण्ड राज्य की स्थपना हो। पहाडों की मुख्य कार्यकारी शक्ति महिलाऐं हैं, इसलिए प्राथमिकता के आधार पर यह होंना चाहिए ।
इस घोषणा को श्री सुन्दरलाल बहुगुणा नें अपना आखिरी ’वसीयतनामा’ घोषित कर दिया, साथ ही कहा कि टिहरी बाॅध के लिए वो जो कुछ कर रहे हैं, उसे सम्पूर्ण हिमालय की सुरक्षा के संदर्भ में देखा जाना चाहिए ।
भीमकाय ‘टिहरी बाॅध’ के लिए खिलाफ उनके द्वारा किये गये लम्बे-लम्बे उपवास/अनशन नें भले उन्हें दुनियाॅभर में पहिचान दी हो, पर उनका मंतव्य सम्पूर्ण हिमालय की प्राकृतिक संपदा, वन्यजीवों एवं उसके साॅस्कृतिक स्वरूप को जिंदा रखना था। इसके लिए उन्होंनें ’कश्मीर से कोहिमा’ की ऐतिहासिक पैदल यात्रा कीं, राजसत्ताओं की जनविरोधी नीतियों का विरोध करनें में भी वे पीछे नहीं हटे । टिहरी राजशाही के खिलाफ 1944 से 1948 आॅदोलन, 1945 से 11948 लाहौर में भूमिगत जीवन, 1960 के दशक का नशाबंदी आॅदोलन, 70 के दशक का विश्व प्रसिद्व ’चिपको आॅदोलन’ आदि प्रमुख हैं, सामाजिक चेतना के लिए ग्राम स्वराज्य, दलित चेतना, वन श्रमिक, भूदान आॅदोलन प्रमुख हैं। इस दौरान उन्हें कई बार जेल, हिरासत, तथा गिरफ्तार कर कठोर से कठोर यातनाऐं दी गईं। उन्होंनें टिहरी में ठक्कर बाबा छात्रावास व पर्वतीय नवजीवन मंडल आश्रम सिल्यारा टिहरी गढवाल की स्थापना की । प्रकृति और पर्यावरण को समझने ंके लिए उन्होंनें कई पुस्तकों की रचना की, जिनमें धरती की पुकार, इकोलाॅजी इज परमानेंट इकोनाॅमी, प्रमुख है, इसके अलावा राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनके सैकडों लेख आज भी बडे चाव से पढें और उद्वरित किये जाते हैं।
उन्हे देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित पुरूस्कार-सम्मानों से नवाजा गया । 1981 में फ्रेंड आॅफ नेचर, 1986 में जमान लाल बजाज, 1987 में शेरे-ए-कश्मीर, 1987 में राइट लाइवली हुड, पुरूस्कारों से सम्मानित हुऐ, देश का सबसे प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पदम् विभूषण उन्हें 2009 में प्रदान किया गया। रूडकी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें 1989 में मानद डाॅक्टरेट डी0फिल0 प्रदान किया गया।
लेकिन श्री सुन्दर लाल बहुगुणा जैसे ’हिमालय की पीडा को सामनें से महसुस करनें वाला दूसरा हमदर्द अभी पैदा होंना मुश्किल है।