साहित्य भी जिन्हें पाकर गर्वित होता था 

हेमचंद्र सकलानी: देहरादून। सर्व प्रथम साहित्य जगत की महान विभूति डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी की जयंती पर उन्हें श्रद्धा पूर्वक शत शत नमन करता हूं। उनकी शानदार मुस्कराते हुए छवि,हंसी को भूलना मेरे लिए आज भी नामुमकिन सा लगता है ऐसा आभास होता है जैसे निकट ही खड़े हैं। मानव समाज में समय-समय पर कुछ ऐसी विभूतियां जन्म लेती रही हैं विशेषकर साहित्य के क्षेत्र में हैं जिनके जाने के बाद एक ऐसा खालीपन छा जाता है जो हमें हर अवसर पर, हर कार्यक्रम में, अनुभव होता है या कहें सालता रहता है। ऐसे ही एक सरस्वती के वरद पुत्र रहे हैं डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी। सहृदय संवेदनशील रचनाकार के साथ आप बेहतरीन वक्ता भी रहे। कानपुर के एक छोटे से गांव में आपका जन्म हुआ था,बचपन वहीं बीता फिर संस्कृत और हिंदी में स्नातकोत्तर की परीक्षाएं पास की और फिर पीचडी।

कुछ समय वहां सर्विस करने के बाद देहरादून डीएवी कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक बने। हालांकि काफी परेशानियां झेलनी पड़ी इस दौरान। लेकिन इस पर भी देहरादून ने आपको इतना आकर्षित किया की आप यहीं के होकर रह गए। साथ ही कुछ न कुछ करने की प्रवृति ने आपको पत्रकारिता की ओर आकर्षित किया और आप नवभारत,हिंदुस्तान,और आकाशवाणी से जुड़े और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
आपकी साहित्य रुची और प्रवृत्ति ने आपको दिनकर जी,सोहनलाल द्विवेदी जी, डॉ भगवत शरण उपाध्याय जी,गोपालदास नीरज जी, डॉ रामकुमार वर्मा जी,हरिवंश राय बच्चन जी, बाबू भगवती चरण वर्मा जी, शिवमंगल सिंह सुमन जी,भवानी प्रसाद मिश्र जी,आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी जी, डॉ विजेंद्र स्नातक जी, रामनाथ अवस्थी जी जैसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय साहित्यकारों का सानिध्य और आशीर्वाद आपको प्राप्त हुआ। ऐसे लोगों का सानिध्य प्रेम स्नेह पाकर आपको साहित्य के शिखर तक तो पहुंचना ही था। सत्य तो यह है कि ऐसे व्यक्तियों का स्नेह आपको मिलना ईश्वर के वरदान से कम न था। अपने साहित्य जगत को अपनी अनेक पुस्तकों का उपहार दिया। किसी भी साहित्यिक कार्यक्रम में आपकी उपस्थिति कार्यक्रम की सफलता का सूचक होती थी। कोई भी लेखक साहित्यकार तब तक सफल साहित्यकार नहीं होता जब तक उसका व्यक्तित्व भी साहित्यिक न हो इस दृष्टि से देखा जाए तो आपका अनोखा सफल साहित्यिक व्यक्तित्व रहा।
मेरी पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर मुझे कभी उनसे कोई विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ा। चार बार अनुरोध किया और बिना किसी इफ बट के आए और अपनी उपस्तिथि से कार्यक्रम को चार चांद लगाए तो थे ही लेकिन इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण बात जो थी वह यह थी कि बिना मेरे किसी विशेष अनु विनय अनुरोध के बिना, उन्होंने पुस्तकों की बहुत सार गर्भित समीक्षा प्रस्तुत कर पुस्तकों को एक नए आयाम दिए।
सच तो यह है कि उनसे मिलने सेे पहले लेखन में मेरे तीस वर्ष गुजर गए थे और मैं अपने लेखन से कभी संतुष्ट नहीं रहा। लेकिन उन्होंने मुझसे ही जैसे मेरी पहचान पहली बार कराई थी, यद्यपि इससे पूर्व सैकड़ों बार मुझे देश की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने का अवसर मिल चुका था।
लेकिन यह सत्य है कि उनकी प्रेरणा उत्साहवर्धन से मैं अपने लेखकीय कार्य को पहचान सका और आगे बढ़ने को प्रेरित हुआ। आज भी उनके द्वारा लिखी पुस्तकों कि भूमिका और समीक्षाएं जब देखता हूं तो मन पुलकित हो उठता है।
दो बार विकासनगर डाकपत्थर में साहित्यिक कार्यक्रम थे। स्थानीय लोगों ने मुझसे अनुरोध किया कि आप को डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी को आमन्त्रित करने का कार्य दिया जाता है। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी कि कहीं उन्होंने मना कर दिया या किन्तु परंतु लगा दिया तो मैं अपनी बात को न मनवा पाने की गरिमा से तो गिरूंगा ही लेकिन स्थानीय लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे कि इतना सा भी कार्य न करवा सके। लेकिन मै भाग्यशाली समझता हूं अपने को कि त्रिवेदी जी से जब मैंने कहा तो कोई किन्तु परंतु नहीं की, न कार से लाने ले जाने की शर्त रखी न किसी तरह के परिश्रमिक की मांग रखी। रात में आए और अर्ध रात्रि में वापस गए। उनके स्नेही व्यवहार को मै कभी भूल नहीं सकता। उनका व्यक्तित्व और व्यवहार सच में कहूं तो एक सफल साहित्यकार का दर्पण था। साहित्य जगत शायद ही कभी उनकी उपस्थिति को भुला पाए,और उनके अभाव को शायद ही कभी भर पाए ।

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