विकास सारस्वत। दक्षिण-पूर्व एशिया के अभूतपूर्व औद्योगिक विकास और पश्चिमी देशों द्वारा उत्पादन क्षेत्र को पुनः बढ़ावा देने के प्रयासों से मुकाबला करने के लिए भारत को विनिर्माण को न सिर्फ गति देनी होगी, बल्कि इसमें गुणात्मक सुधार लाकर वैश्विक बाजार में अपना स्थान भी बनाना होगा। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण भारत को पहले-पहल कुछेक क्षेत्र चयनित कर अपने लिए क्षेत्र-विशिष्ट उद्योगों की पहल करनी होगी और फिर धीरे-धीरे यथासंभव क्षेत्रों में विस्तार हो सकता है। ऐसा भी नहीं है कि हम बहुत निराशाजनक स्थिति में हैं। सदी की शुरुआत तक भारत वैश्विक विनिर्माण पटल पर किसी गिनती में नहीं था। 2006 में हम विनिर्माण करने वाले शीर्ष दस देशों में आए और आज हम शीर्ष पांच देशों में से एक हैं। मोबाइल फोन निर्माण में दूसरा बड़ा उत्पादक बनने के बाद आज सेमीकंडक्टर युग में प्रवेश कर भारत ने उच्च प्रौद्योगिकी-गहन उद्योग में जगह बनाई है, परंतु 140 करोड़ आबादी वाले देश में हमें श्रम की खपत वाले उद्योगों को भी गंभीरता से लेना होगा। खासकर तब जब सबसे अधिक रोजगार सृजन इसी क्षेत्र से उत्पन्न होता है और भारत की अधिकांश अर्धकुशल एवं अकुशल श्रम शक्ति इसी क्षेत्र में खपाई जा सकती है।
पिछले दो दशकों से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 14 से 16 प्रतिशत के बीच अटकी हुई है। इसी दौरान चीन में यह हिस्सेदारी लगभग 30-35 प्रतिशत रही है। हाल के समय में सेवा क्षेत्र में आई बढ़त के कारण यह आंकड़ा घट कर 27 प्रतिशत पर आया है। यह कहना अनुचित होगा कि सरकारों ने विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के प्रयास नहीं किए हैं। नीति निर्धारण स्तर पर कई सराहनीय पहल हुई हैं।
उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना, बुनियादी ढांचा विकास के लिए एकीकृत और व्यापक पीएम गतिशक्ति मास्टर प्लान, उदार एफडीआई नीति, निवेशकों को मंजूरी के लिए एक एकीकृत पोर्टल प्रदान करने के लिए नेशनल सिंगल विंडो स्कीम, वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी, कारपोरेट कर में कटौती आदि बहुत सी नीतियां और निर्णय विनिर्माण को गति देने के लिए गए हैं। बावजूद इसके कुछ ढांचागत एवं व्यावहारिक समस्याएं अब भी उद्योगों के लिए चुनौती बनी हुई हैं।
ऐसी ही एक चुनौती उद्योगों के लिए भूमि की सीमित उपलब्धता है। उत्तर भारत में यह समस्या अधिक है। ऐसे में जहां कम कृषि पैदावार वाली भूमि को औद्योगिक उपयोग में लाने के प्रयास करने होंगे, वहीं चिह्नित भूमि का सर्वोत्तम उपयोग भी सुनिश्चित करना होगा। देखा गया है कि औद्योगिक क्षेत्रों में बहुत सी जमीन केवल निवेश और पुनर्विक्रय के लिए निष्क्रिय पड़ी है।
अमेरिका द्वारा बनाए जा रहे टैरिफ दबाव के बीच प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को तो रेखांकित किया ही, चीन से संबंधों को सामान्य बनाने का भी फैसला हुआ। इसी सिलसिले में इलेक्ट्रिक वाहन, रिन्यूएबल एनर्जी, टेक्सटाइल मशीनरी, विद्युत एवं कृषि उपकरण, आटो पार्ट्स जैसे उद्योगों में चीनी निवेश को अनुमति दी गई है।
पड़ोसी देश से रिश्तों में सुधार और विश्व की दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों के बीच आर्थिक सहयोग का बढ़ना अच्छी बात है, परंतु चीन के साथ पहले से ही भारी व्यापार घाटा झेल रहे भारत के लिए चुनौती यह भी है कि वह अपने विनिर्माण क्षेत्र को गति दे, अन्यथा यह घाटा और भी बढ़ सकता है।
सरकार के काफी प्रयासों के बावजूद कौशल विकास की मुहिम कुछ खास कारगर नहीं हो पाई है। आवश्यकता है कि कौशल विकास का दायित्व निजी संस्थाओं के बजाय विश्वसनीय उद्योग निकायों को दिया जाए। स्वयं राष्ट्रीय कौशल विकास निगम के अनुसार भारत में 2.9 करोड़ कुशल श्रमिकों की कमी है। अकेले सेमीकंडक्टर क्षेत्र में दो वर्षों में 15 लाख दक्ष कामगारों की आवश्यकता होगी। करीब 80 प्रतिशत रोजगार सृजन करने वाले छोटे एवं मझोले उद्योगों को ऋण पाने में आज भी कठिनाई होती है।
विनिर्माण क्षेत्र में श्रम कानूनों को लेकर अनुकूल स्थिति नहीं है। जैसे 300 से ज्यादा कर्मियों वाले उद्योगों में छंटनी मुश्किल है, जबकि सेवा क्षेत्र में यह नीति लचीली है। इसके अलावा कमजोर ब्रांडिंग, अनुसंधान और नवीनीकरण में ढिलाई, पेशेवर दृष्टिकोण की कमी जैसी कुछ समस्याएं हैं, जिन्हें उद्योग जगत ने खुद खड़ा किया है। नई शिक्षा नीति में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को दिया गया महत्व इस दिशा में सराहनीय प्रयास है, परंतु अभिभावकों की मानसिकता में बदलाव से ही अपेक्षित परिणाम निकल पाएंगे।
समाज के सबसे अच्छे मानव संसाधन का अधिकांश हिस्सा उद्यमशील न होकर नौकरियों की ओर भाग रहा है। हमारे सामाजिक सोच में ऐसा बदलाव आया है जो प्रतिभावान और प्रतिभाहीन दोनों ही वर्गों को कल कारखानों से विरत कर कुर्सी-मेज वाली जीविका की ओर मोड़ रहा है। एक राष्ट्र के तौर पर अनुशासन और निष्ठा की कमी भी उद्यमशीलता को प्रभावित कर रही है। आवश्यकता इसकी है कि उद्यमियों को व्यापारी से उत्पादक बनाने के लिए प्रेरित किया जाए और श्रम एवं श्रमिकों के लिए समाज में सम्मान जगाया जाए।
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्टाचार को सहन करके कोई भी देश उद्यमी या विकसित नहीं हो पाया है। सरकारी लालफीताशाही और भ्रष्टाचार उद्यमशील भारत के रास्ते में बड़ी बाधा हैं। नियमों के अनुपालन को सरल और न्यूनतम बनाने के अलावा नौकरशाही को समन्वयक के रोल में लाना होगा।
उद्योग से संबंधित विभागों में नौकरशाही की सफलता इससे तय करनी होगी कि वह कितने नए उद्योग लगवाने में सफल रहे, कितने उद्योगों का विस्तार हुआ और उन उद्योगों में कितने ऐसे उद्योग थे जो आयात पर निर्भरता को कम करते हैं या निर्यात को बढ़ावा देते हैं। युवा जनसांख्यिकी, बढ़ता मध्यम वर्ग, तेजी से विकसित होता बुनियादी ढांचा ऐसे कुछ कारण हैं जिनके चलते विनिर्माण में भारत का भविष्य संभावनाओं से भरा हुआ है। आवश्यकता केवल इतनी है कि तात्कालिक लक्ष्यों से परे एक दूरगामी नीति के तहत विनिर्माण को राष्ट्रीय मिशन बनाकर कार्य किया जाए।
समाज के सबसे अच्छे मानव संसाधन का अधिकांश हिस्सा उद्यमशील न होकर नौकरियों की ओर भाग रहा है। हमारे सामाजिक सोच में ऐसा बदलाव आया है जो प्रतिभावान और प्रतिभाहीन दोनों ही वर्गों को कल कारखानों से विरत कर कुर्सी-मेज वाली जीविका की ओर मोड़ रहा है। एक राष्ट्र के तौर पर अनुशासन और निष्ठा की कमी भी उद्यमशीलता को प्रभावित कर रही है।
भारत में महिला श्रम बल की बेहद कम भागीदारी है, जो 37 प्रतिशत से 41.7 प्रतिशत के बीच बनी हुई है। जबकि वैश्विक औसत और चीन की दर लगभग 60 प्रतिशत है। चीन, जापान और अमेरिका जैसे देश इस बात का प्रमाण हैं कि जब महिलाएं अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाती हैं, तो समावेशी विकास संभव हो पाता है। जापान ने ‘वुमेनामिक्स’ रणनीति अपनाकर महिला भागीदारी को 74 प्रतिशत तक पहुंचाया है।
आर्थिकी में महिलाओं की कम भागीदारी विकास पर नकारात्मक असर डाल रही है। इसे बदलना होगा। कर्नाटक की ‘शक्ति’ योजना जो महिलाओं को मुफ्त सार्वजनिक बस यात्रा प्रदान करती है एक बेहतरीन उदाहरण है। 2023 में इसके लांच के बाद से महिला यात्रियों की संख्या में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है।
अमेरिका की अर्थव्यवस्था को मजबूती भी महिलाओं की भागीदारी से मिली है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि इस लैंगिक अंतर को समाप्त करने से भारत 2025 तक अपनी जीडीपी में 27 प्रतिशत यानी 770 अरब डालर की वृद्धि कर सकता है। 2047 तक यह आंकड़ा 14 लाख करोड़ डालर तक पहुंच सकता है, पर इसके रास्ते में सांस्कृतिक रूढ़िवादिता, नीतिगत निष्क्रियता और रोजगार के लिए प्रणालीगत बाधाएं आड़े आ सकती हैं। भारत इस समय अपने जनसांख्यिकीय लाभांश के शिखर पर है। यह एक ऐसा दौर है जब काम करने वाली आबादी आश्रितों की तुलना में बहुत अधिक है। यह अवसर सीमित समय के लिए है और 2045 तक समाप्त हो जाएगा। चीन, जापान और अमेरिका जैसे देश इसी अवसर का लाभ उठाकर विकसित हुए हैं। भारत को इस क्षणिक अवसर को स्थायी समृद्धि में बदलने के लिए तुरंत कदम उठाने होंगे।
