मुंबई: कोविड महामारी और उसके बाद लगे लॉकडाउन ने पैठणी बुनकरों के जिंदगी को बेरंग कर दिया था। ऐसे में रिलायंस फाउंडेशन ने पैठणी से जुड़े बालकृष्ण नामदेव कापसे जैसे अनेकों लोगों की तरफ मदद का हाथ बढ़ाया। आज कापसे न केवल खुद अपने पैरों पर खड़े हैं बल्कि पैठणी व्यवसाय से जुड़े 250 से अधिक कारीगरों, कामगारों और छोटे व्यवसायियों की मदद कर रहे हैं। महाराष्ट्र में शिरडी से करीब 30 किलोमीटर दूर येओला शहर के पास वडगांव के रहने वाले बालकृष्ण, मुंबई के नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर (NMACC) में पैठणी के रंग बिखरने आए थे।
बुनकरों के संघर्षों और रिलायंस फाउंडेशन की समय पर की गई मदद को याद करते हुए बालकृष्ण ने कहा “जब लॉकडाउन ने बुनकरों को अपनी चपेट में ले लिया था, तब रिलायंस फाउंडेशन के सहयोग से हमें पैठणी दुप्पटे के रुप में बुनाई का एक नया बाजार मिला। ‘स्वदेश’ प्रदर्शनी के जरिए श्रीमती नीता अंबानी ने हमें अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौका दिया। प्रदर्शनी की बदौलत हमारा काम अब दुनिया के कोने कोने तक पहुँच रहा है। कला के संरक्षक के तौर पर मैं श्रीमती अंबानी से काफी प्रभावित हुआ हूं।“
पारंपरिक पैठणी बुनकरों की दिक्कत यह है कि वे डिजाइनरों के साथ काम नहीं करते। नए डिजाइनों और उम्दा रंगों के मेल से ही पैठणी के व्यवसाय में रंग भरा जा सकता है। रिलायंस फाउंडेशन की मदद से अब बालकृष्ण जैसे लोग, डिजाइनरों के साथ काम करने लगे हैं। अब वे येओला में और उसके आसपास लगभग 1,200 हथकरघा से पैठणी बुनाई के उत्पादों की देखरेख करते हैं और यहां सालाना 25 हजार से अधिक पैठणी साड़ियों की बुनाई की जाती है।
बुनकर की जिंदगी के 6 महीनों से लेकर 2 साल तक सिर्फ एक पैठणी साड़ी बनाने में खप जाते हैं। रिलायंस फाउंडेशन का मानना है कि कारीगरों को अपनी जादुई अंगुलियों का वाजिब मेहनताना मिलना ही चाहिए। नए डिजाइनों से पैठणी बुनकरों के काम में नयापन आए, अपने काम को प्रदर्शित करने के लिए उन्हें मंच मिले, सामान बेचने के लिए ग्राहक व बाजार उपलब्ध हों, इसके लिए रिलायंस फाउंडेशन कलाकारों के साथ जुड़ कर काम कर रहा है।
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