देहरादून। मां भगवती ने कालीमठ में दैत्यों के सहांर के लिए काली का रूप धारण किया था। उस समय से इस स्थान पर मां काली के रूप की पूजा की जाती है। कालीमठ मंदिर मां काली को समर्पित है। इसे भारत के प्रमुख सिद्ध शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्धापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के पुष्प अर्पित अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता और विपदाएं दूर हो जाती हैं। रुद्रप्रयाग जिले में स्थित कालीमठ मंदिर को महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली के सिद्धपीठ के रूप में जाना जाता है। इस स्थान का वर्णन दुर्गा सप्तशती में भी है। माता भगवती का यह दरबार दिव्य चमत्कारों से भरा पड़ा है। स्कंद पुराण के अंतर्गत केदारखंड के बासठवें अध्याय में मंदिर का वर्णन है। साथ यहां शिलालेखों में पूरा वर्णन है। इस मंदिर की स्थापना शंकराचार्य की ओर से की गई थी। रुद्रशूल नामक राजा की ओर से यहां शिलालेख स्थापित किए गए हैं जो बाह्मीलिपी में लिखे गए हैं। यहां मां काली ने रक्तबीज राक्षस का संहार किया था, जिसके बाद देवी मां इसी जगह पर अंर्तध्यान हो गई थीं। आज भी यहां पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित है। भारतीय इतिहास के अद्वितीय लेखक कालिदास का साधना स्थल भी यही कालीमठ मंदिर है, इसी दिव्य स्थान पर जन्म से मुर्ख रहे कालिदास ने माँ काली को प्रसन्न कर विद्वता को प्राप्त किया था। कालीमठ की माँ काली के आशीर्वाद से ही उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें से संस्कृत में लिखा हुआ एकमात्र काव्य ग्रन्थ “मेघदूत” तो विश्वप्रसिद्ध है।