ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का भारी अभाव बना हुआ है। गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं और चिकित्सकों की कमी के चलते रोजाना हजारों लोग इलाज न मिल पाने के कारण असमय दम तोड़ देते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के दावे ग्रामीण क्षेत्रों में जमीन पर नजर नहीं आते। देश के बीस फीसद डाक्टर ही ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। इससे गांवों में चिकित्सकों की उपलब्धता नाममात्र की रहती है। गांवों में आपरेशन थियेटर, एनेस्थीसिया के डाक्टर, पैथालाजिस्ट और टेक्नेशियन्स का जबरदस्त अभाव है। स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी के अलावा डाक्टरों की नियुक्ति जरूरत से बहुत कम हो पाई है। भारत में केवल तमिलनाडु ऐसा राज्य है, जहां गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं को संतोषप्रद कहा जा सकता है। उत्तराखंड में स्थिति बेहद खराब है। राज्यों ने कुछ साल पहले गांवों में डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए सख्त कानून बनाए थे, बावजूद उसके गांवों में सेवा देने से ज्यादातर नए डाक्टर मना कर देते हैं। विडंबना है कि नौकरी के लिए भरा गया वचन-पत्र तोड़ने पर डाक्टर हर साल करोड़ों रुपए जुर्माना भरते हैं, लेकिन गांवों में सेवा देने से मना कर देते हैं।
बडे़ डिग्रीधारी डाक्टर गांवों में अपनी सेवाएं देने को तैयार नहीं हैं। भारत में चीन की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में महज 3,100 मरीजों पर एक बिस्तर है। बिहार में अठारह हजार ग्रामीणों पर एक बिस्तर, उत्तर प्रदेश में 3,900 मरीज पर एक बिस्तर की व्यवस्था है। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में छब्बीस हजार की आबादी पर एक एलोपैथिक डाक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हर एक हजार लोगों पर एक डाक्टर होना चाहिए। भारत में तकरीबन दस हजार की आबादी पर सात डाक्टर हैं। मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआइ) में पंजीकृत एलोपैथिक डाक्टरों की कुल संख्या लगभग एक करोड़ है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की बुनियाद प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर टिकी है, लेकिन यह बुनियाद ही बेहद कमजोर है। आज देश में केवल सात लाख एमबीबीएस डाक्टर सेवा देने के लिए उपलब्ध हैं। ऐसे में पांच लाख डाक्टरों और पांच लाख विशेषज्ञों की कमी को कैसे पूरा किया जाए, यह एक बड़ा सवाल है। आयुष्मान भारत योजना से अति गरीबों की चिंता कुछ हद तक दूर हुई है, मगर सवाल है कि क्या इससे स्वास्थ्य सेवाओं और डाक्टरों की कमी से होने वाली परेशानियों को खत्म किया जा सकता है। डाक्टरों की कमी की वजह से ग्रामीणों को मजबूरन झोला छाप डाक्टरों की सेवाएं लेनी पड़ती हैं। इससे हजारों लोग बेहतर इलाज के अभाव में असमय दम तोड़ देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि गांवों में एलोपैथी के अलावा होमियोपैथी और आयुर्वेदिक चिकित्सकों की भी कमी है। केंद्र सरकार आयुर्वेद और योग को बढ़ावा देने के लिए करोड़ों रुपए हर साल उपलब्ध कराती है। मगर सेवा देने के लिए योग्य चिकित्सकों की कमी है। इसलिए एमबीबीएस के अलावा बीएमएस और आयुर्वेदिक चिकित्सकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति की जाने की जरूरत है। गांव के स्तर पर होमियोपैथी और आयुर्वेदिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी पर जल्द कदम उठाएं जाएं तो गांवों में डाक्टरों की कमी के बावजूद लोगों को बचाया जा सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी की समस्या को दूर करने के लिए एक व्यावहारिक कदम उठाने की बात सालों से कहता आया है। यह फार्मूला है, पांच साल की एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्रों को एक साल का विशेषज्ञता पाठ्यक्रम कराया जाए, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी तैनाती पर ऐसे डाक्टर बिना किसी हिचक के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी बेहतर सेवाएं दें सकें, लेकिन इससे बात नहीं बनी। फिर केंद्र सरकार ने एक दूसरा फार्मूला तैयार किया। इसके तहत एमबीबीएस डिग्रीधारी डाक्टरों को परास्नातक यानी एमएस या एमडी में दाखिला तभी मिलेगा, जब गांवों में तैनाती की अनिवार्य अवधि के लिए वे हलफनामा लिख कर देंगे। सरकार ने एक बात इसमें और जोड़ दी कि जो एमबीबीएस डिग्रीधारी छात्र हलफनामा लिख कर देंगे, अगर उनके अंक कम भी होंगे तो भी उन्हें एमएस या एमडी में प्रवेश दे दिया जाएगा। लेकिन केंद्र सरकार के इस लुभावने फार्मूले के बाद भी गांवों में सेवाएं देने वाले डाक्टरों में कोई खास रुचि नहीं दिखाई दे रही है। ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि इन तमाम कवायदों के बावजूद जब एमबीबीएस डाक्टरों में गांवों में सेवा देने की रुचि नहीं बन पा रही है, तो अब कौन-सा फार्मूला अपनाया जाएगा, जिससे ग्रामीण इलाकों में बदतर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो सकें। ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य सेवा रामभरोसे है। अ