अस्थिर पड़ोसियों से घिरता भारत, बढ़ सकती हैं चुनौतियां

ऋषि गुप्ता। भारत की सुरक्षा के लिए चैतरफा चुनौतियां बढ़ रही हैं। बीते दिनों ही नेपाल में चीन समर्थक सरकार बनी है जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कर रहे हैं। ओली को ‘इंडिया आउट’ अभियान का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है और हाल के वर्षों में उन्होंने अपनी राजनीतिक साख मजबूत करने के लिए भारत के साथ सीमा विवाद का मुद्दा शांत नहीं होने दिया है। बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना अब भारत में हैं और माना जा रहा है कि वह किसी तीसरे देश में शरण मिलने तक यहीं रहेंगी। यदि इस हालात को भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह एक असाधारण स्थिति है, जहां भारत को कुछ कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे, जिसमें पड़ोसी प्रथम नीति के तहत मदद भी करनी है। बांग्लादेश में फंसे हजारों भारतीयों की सुरक्षा के साथ इस बात को भी सुनिश्चित करना है कि कोई अनधिकृत रूप से सीमा पार कर भारत में प्रवेश न कर सके। इस पूरे घटनाक्रम से देश के लिए एक अभूतपूर्व सुरक्षा स्थिति पैदा हो गई है। भारत के समक्ष 1971 वाली स्थिति फिर एक बार बन पड़ी है। बांग्लादेश में रह रहे तमाम अल्पसंख्यक समूह खासकर बड़ी संख्या में हिंदू भारत में शरणार्थी के तौर पर आने की गुहार लगा सकते हैं। इससे बांग्लादेश की सीमा से सटे बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में चिंताजनक हालात पैदा हो सकते हैं।
अगर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में कट्टरपंथियों का दबदबा बढ़ता है, जिसकी भरी-पूरी आशंका है तो भारत की चुनौतियां और अधिक बढ़ जाएंगी, क्योंकि इनमें से कुछ गुटों को पाकिस्तान का समर्थन मिलता रहा है। इसके चलते ये लगातार भारत विरोधी गतिविधियां चलाते रहे हैं। पाकिस्तान आज तक भारत को अपने विभाजन यानी बांग्लादेश के निर्माण का कारण मानता रहा है और वह कोशिश करेगा कि बांग्लादेश के इस्लामिक कट्टरपंथी गुटों के साथ मिलकर भारत के खिलाफ आतंकी और असामाजिक तत्वों को सक्रिय किया जाए। बांग्लादेश में अराजकता के बीच दक्षिण एशिया में अस्थिरता और बढ़ गई है, जो भारत के हित में बिल्कुल नहीं है।
भारत की सुरक्षा के लिए चैतरफा चुनौतियां बढ़ रही हैं। बीते दिनों ही नेपाल में चीन समर्थक सरकार बनी है, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कर रहे हैं। ओली को ‘इंडिया आउट’ अभियान का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है और हाल के वर्षों में उन्होंने अपनी राजनीतिक साख मजबूत करने के लिए भारत के साथ सीमा विवाद का मुद्दा शांत नहीं होने दिया है। चूंकि ओली की ‘राष्ट्रवादी छवि’ भारत विरोध से बनी है, लिहाजा भारत के लिए जरूरी है कि वह स्थिति पर नजर रखे। यदि नेपाली जनता पुरानी पार्टियों और पुराने नेताओं की कार्यशैली से ऊबती है तो 2006 जैसा जन आंदोलन छिड़ना कोई बड़ी बात नहीं होगी। इसका सीधा असर खुली सीमा के चलते भारत पर होगा। नेपाल के बगल में ही भूटान है, जो पूरी तरह से भारत की सुरक्षा चिंताओं को लेकर फिक्रमंद है और एक मित्रतापूर्ण सहयोगी रहा है। हालांकि हाल के वर्षों में चीन ने वहां भी अपनी पैठ बनाने में कसर नहीं छोड़ी है। इसके बावजूद भारत के लिहाज से भूटान में स्थिति नियंत्रण में है।
पूर्वी पड़ोसी देश म्यांमार में भी दबावपूर्ण और अनिश्चित राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल रहा है। यहां विभिन्न विद्रोही समूह सैन्य शासन को कमजोर करने में सफल हो गए हैं। यहां अशांति और राजनीतिक अस्थिरता का सिलसिला कायम है, जिसके चलते भारत की सुरक्षा एजेंसिया भारत-म्यांमार सीमा पर नजर बनाए हुए हैं। यदि बांग्लादेश और म्यांमार की तानाशाही ताकतें चीन या पाकिस्तान जैसे देशों के प्रभाव में आकर भारत को हानि पहुंचाने की कोशिश में साथ आती हैं तो भारत के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। नई दिल्ली के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी लुक-ईस्ट और एक्ट-ईस्ट नीति में सुरक्षा पहलुओं को भी शामिल करे।
म्यांमार में आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनी हुई है। यह सही है कि श्रीलंका धीरे-धीरे भारत और आइएमएफ की मदद से आर्थिक मुसीबतों से बाहर आ रहा है, लेकिन अभी भी वहां भारत विरोधी तत्व सक्रिय हैं। मालदीव भी इस मामले में अलग नहीं, जहां राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू लगातार भारत विरोध में लगे हुए हैं। उन्होंने भी ओली की तरह ‘इंडिया आउट’ अभियान चलाया, फिर वह चाहे भारतीय सैन्य अधिकारियों का मालदीव से भारत वापस भेजने का मुद्दा रहा हो या फिर उनकी सरकार के मंत्रियों का भारत और भारत के प्रतिष्ठित नेताओं के खिलाफ टीका-टिप्पणी का मामला।
पश्चिमी सीमा क्षेत्र में पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सुरक्षा हालात पहले से ही भारत के लिए मुसीबत बने हुए हैं। हाल में जम्मू में हुए आतंकी हमलों ने भारत की चिंता बढ़ाने का काम किया है। यदि पड़ोसी देशों की राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत इन सभी देशों की सीमाओं के जुड़े होने के कारण एक प्रतिकूल स्थिति का सामना कर रहा है, जो आने वाले दिनों में सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती हैं। दक्षिण एशिया में बड़े लंबे समय से भारत की केंद्रीयता को सभी समस्याओं की जड़ माना जाता रहा है और भारत पर लगभग सभी पड़ोसी देश हस्तक्षेप का आरोप भी लगाते आए हैं, लेकिन क्या अब यही देश अपनी आंतरिक हलचल के चलते भारत के सामने मौजूद सुरक्षा संकट पर नई दिल्ली के साथ खड़े होंगे? इसका जवाब संभवतरू नकारात्मक ही मिले। दक्षिण एशिया में जैसी असामान्य परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं, उनका सामना करने के लिए भारत को असाधारण प्रयास करने की आवश्यकता है।
भारत को हर कीमत पर अपने सुरक्षा ढांचे को मजबूत करने की आवश्यकता है और पड़ोसी देशों में सिविल सोसायटी समूहों के साथ मिलकर शांति बहाली के प्रयासों पर ध्यान देना होगा। इसके साथ ही दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों और क्षेत्र में मौजूद समान विचारधारा वाली शक्तियों जैसे अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के लिए भी जरूरी है कि वे भारत की चिंताओं को समझें और अपने स्तर पर पाकिस्तान और चीन पर दबाव डालें, ताकि ये दोनों देश दक्षिण एशिया की अस्थिरता का फायदा उठाकर भारत को परेशान करने के लिए नई तिकड़में न कर सकें।

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