देहरादून, गढ़ संवेदना न्यूज। लोक पर्व इगास उत्तराखंड का अनूठा पर्व है। इगास दीपावली के 11वें दिन एकादशी पर मनाई जाती है। गढ़वाल में इसे इगास व कुमांऊ में बूढ़ी दीपावली कहा जाता है। भैलो इस पर्व का मुख्य आकर्षण है। आज मंगलवार को प्रदेशभर लोकपर्व इगास धूमधाम व हर्षोल्लास के साथ मनायी जा रही है। इगास पर्व के दिन सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं। रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला एक प्रकार की मशाल जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल-नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है। है। पिछले कुछ वर्षों से प्रवासी इगास को मनाने के लिए अपने गांवों में पहुंच रहे हैं, जो कि एक अच्छी शुरुआत है।
एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी बीच बग्वाल (दिवाली) का त्योहार भी था, परंतु इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस न आ सका। सबने सोचा माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दिवाली (बग्वाल) नहीं मनाई। लेकिन दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत वापस लौट आए। इसी खुशी में इगास मनाई गई।
यह पर्व भैलो खेलकर मनाया जाता है। तिल, भंगजीर, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है। कई ग्रामीण भैलो से करतब भी दिखाते हैं। पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती हैं। भैलो इस पर्व का मुख्य आकर्षण है। भैलो में चीड़ की लकड़ी के छिलके जलाए जाते हैं। भैलो को अपने ऊपर घुमाते हुए लोक गीतों और नृत्य का आनंद लिया जाता है। लोग “भैलो रे भैलो,” “काखड़ी को रैलू,” और “उज्यालू आलो अंधेरो भगलू” जैसे पारंपरिक गीत गाते हैं। यह पर्यावरण-हितैषी उत्सव भी है, क्योंकि इसमें पटाखों का उपयोग न के बराबर होता है।
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