यहां भगवान श्रीकृष्ण को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता

देहरादून। सेम मुखेम में भगवान श्रीकृष्ण को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण सेम मुखेम में यात्रा के लिए आए थे तो उन्हें यह स्थान बेहद प्रिय लगा। उस वक्त सेम मुखेम के राजा गंगू रमोला से उन्होंने जगह मांगी तो गंगू रमोला ने जगह देने से इंकार कर दिया। जिससे क्रोधित होकर भगवान कृष्ण ने गंगू रमोला की सभी गाय भैंस को पत्थर बना दिया। उसके बाद गंगू रमोला के जगह देने के बाद भगवान श्रीकृष्ण के रुप में यहीं पर स्थापित हो गए। टिहरी जिले में स्थित प्रसिद्ध श्रीकृष्ण भगवान नागराजा मंदिर देश विदेश में प्रसिद्ध है। यहां पर हर समय मंदिर में आने जाने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ जुटी रहती है। घने जंगलों के बीच स्थित सेम मुखेम मंदिर एक वास्तुशिल्प चमत्कार भी है। माना जाता है कि यह मंदिर 1,000 साल से भी ज्यादा पुराना है और इसमें लकड़ी की बारीक नक्काशी के साथ-साथ नीचे की घाटियों के मनमोहक दृश्य भी हैं। सेम मुखेम मंदिर के समीप एक अद्भुत शिला है, जो ताकत लगाने से भी नहीं हिलती है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि एक ही उंगली से ये शिला हिलने लग जाती है। इस अद्भुत शिला की पूजा अर्चना करने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ जुटी रहती है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण यात्रा पर निकले तो सेम मुखेम उन्हें बेहद सुंदर लगा। उन्होंने वहां के राजा गंगू रमोला से कुछ जगह मांगी तो गंगू रमोला ने श्रीकृष्ण को जगह नहीं दी। जिससे नाराज होकर श्रीकृष्ण ने वहां उसकी गाय और भैंस को पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया। लेकिन उसके बाद गंगू रमोला की पत्नी ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की और उन्हें वहां पर रहने की जगह दी। जिसके बाद श्रीकृष्ण भगवान शेषनाग के रूप में वहीं पर स्थापित हो गए। उसके बाद से ही नागराजा की पूजा के लिए दूर-दराज से श्रद्धालु मंदिर में आते हैं। मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को 6 किमी की खड़ी चढ़ाई पार चढ़नी पड़ती है। श्रीकृष्ण मंदिर पहुंचने के बाद भी इस चमत्कारी शिला (पत्थर) को देखने के लिए लोगों को एक किमी की अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ती है। जहां पहुंचकर हर श्रद्धालु इस चमत्कारी पत्थर का दीदार करना चाहता है। साथ ही पत्थर पर जोर-आजमाइश करना नहीं भूलते। ढुगढुगी धार में स्थित इस पत्थर की खासियत ये है कि इस पर कितना भी जोर लगाने के बाद भी नहीं हिलता, लेकिन जैसे ही आप अंगुली से जोर लगाते हैं तो ये विशालकाय पत्थर हिलने लगता है। इसे लोग आस्था की नजर से देखते हैं। स्थानीय लोग इसे भीम का पत्थर भी मानते हैं। सेम मुखेम मंदिर में हमेशा भक्तों का तांता लगा रहता है। इसका उल्लेख धार्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि जिनकी कुंडलियों में कालसर्प दोष होता है, वह यहां पर अपनी पूजा करा कर कालसर्प के दोष से मुक्ति पाते हैं। यह मंदिर उत्तर द्वारिका के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर जो भी भक्तजन आते हैं, जैसे चर्म रोग हो, किसी प्रकार के दोष हैं, कालसर्प दोष है उसकी पूजा करके दोष समाप्त होता है।
मंदिर के निकट सप्त सेम अवस्थित लुका सेम, झुका सेम तलबला सेम अरुणीसेम, बरुणी ससेम, गुप्त सेम, प्रकटा सेम आदि रमणीय स्थल है जिनकी छटा देखते ही बनती है। इन स्थलों का मनमोहक दृश्य इतना सुहाना है कि यहाँ से पूर्व की ओर खड़े होने पर बांई ओर बंदर पूंछ श्रेणी श्रीकंठ, नीलकंठ, बुढाकेदार तथा दक्षिण की ओर नन्दा देवी दिखाई देती है। इस पौराणिक तीर्थ स्थल की मुख्य विशेषता यह की यहाँ से प्रभात का सूर्य उदय देखने योग्य है। प्रातः पौफटते ही प्रातः कालीन सूर्य जैसे ही नीलकंठ के ‌पीछे से उदित होता है, उल्टे चांद की आकृति में स्वर्ण जैसा दृश्य दिखाई देता है, किंतु जैसे ही सूर्य का पूर्व गोला बर्फीली चोटियों से आगे बढ़ता है यह नाजारा तुरंत ओझल हो जाता है। मणभागी सौड़ में प्रभात के समय के सूर्य उदय होते ही लगता है मानो की स्वर्ण चादर धीरे धीरे नीचे उत्तर रही है किंतु जैसे ही सूर्य की किरणें मणभागी सौड़ मेला स्थल पर पड़ती है स्वर्ण चादर धीरे धीरे गायब सी हो जाती हैं और फिर सूर्य सामान्य स्थलों जैसे दिखाई देने लगता है। तलबला सेम की प्राकृतिक वनस्पति बांज बुरांश नैर थूनेर, अंयार,मौरू, खौरू रयाल के सुरम्य सघन पेड़ एवं रई तथा मुरीड़ा के वृक्षों से आच्छादित है। काकड़ धूराल बारहसिंगा शेर तथा लगूर गोणी तो इन वनसम्पदों में सदा उन्मुक्त रूप से विचरण करते हैं। इन्हीं जंगलों में सामान्य वनस्पतियों के आलवा नैर-थुनैर के बड़े बड़े वृक्ष विद्यामान है, जिनकी पत्तियाँ प्राकृतिक धूप के रूप में पूजा में प्रयुक्त की जाती है. इन पत्तियों की सुगंध आज के व्यापारिक धूपों से सर्वोत्तम है।

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