जी रया ,जागि रया ,
यो दिन यो बार, भेटनैं रया,
दुबक जस जड़,
आगास जस उच्च,
धरती जस चाकव,
स्याव जसि बद्धि,
स्यूं जब तराण,
हिमालय में ह्यूं ,
गंगा में पाणि,
हर्याव त्यार मानूंनै रया,
जी रया जागी रया.
(तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो, शेर जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में हिम रहने और गंगा में पानी बहने तक इस संसार में तुम्हारा अस्तित्व बना रहे..!)
देहरादून। पर्यावरण को समर्पित ‘‘हरेला‘‘ पर्व उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक परम्परा का प्रतीक है। यह त्योहार सम्पन्नता, हरियाली, पशुपालन और पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देता है। हरेला पर्व हमारी लोक संस्कृति, प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ जुडाव का प्रतीक है।उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस पर्व को ऋतु उत्सवों में सर्वाच्च स्थान प्राप्त है। हरेला पर्व श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। परम्परानुसार पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है। जिसमें उपलब्धतानुसार पांच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य यथा-धान, मक्का, तिल, उरद, गहत, भट, जौ व सरसों के बीजों को बोया जाता है।
देवस्थान में इन टोकरियां को रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटों से सींचा जाता है। दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं। हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों में इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के डिकारे (मूर्ति्तयां) बनाने का भी रिवाज है। इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है। हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि-विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है। इसके बाद घर-परिवार की महिलाएं अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पांव, घुटनां व कंधों से स्पर्श कराते हुए और आशीर्वाद युक्त शब्दों के साथ बारी-बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं। इस दिन लोग विविध पहाड़ी पकवान बनाकर एक दूसरे के यहां बांटा जाता है। गांव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ों का रोपण करने की परम्परा है। लोक-मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है। हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की भूमिका में नजर आता है। मानव के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आयी है। यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी। हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्व को भी दर्शाता है। परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाये जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि संयुक्त परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है और तो और कहीं-कहीं पूरे गांव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गांव के मंदिर में भी बोया जाता है। हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक अवधारणा निहित है। पर्यावरण के सिद्वान्तों के अनुरूप ही हम सभी को अपनी सुविधाओं एवं आकांक्षाओं में परस्पर तालमेल बिठाना होगा। इसके लिये पग-पग पर पर्यावरण से सहयोग करना उतना ही जरुरी समझा जाना चाहिए जितना कि उससे लाभ उठाने की इच्छा। इस दृष्टि से भारतीय परंपरा का जिक्र करना उचित होगा। यहां के लोकजीवन के विविध पक्षों में पर्यावरण की महत्ता को पग-पग पर स्वीकार किया गया है। मांगलिक कार्यों में देवी देवताओं के साथ ही यहां प्रकृति पूजा का भी विधान है। विभिन्न व्रत-पर्वों में धरती के प्रतीक कलश की स्थापना कर सूर्य, चन्द्र, नवग्रह, जल, अग्नि सहित दूर्वा, वृक्ष, बेल व पत्तियों को पूजने की परम्परा चली आ रही है।
हरेला पर्व पर यहाँ वृक्षारोपण की विशिष्ट परम्परा है। आज के दिन उत्तराखंड में अनिवार्य रूप से पौधरोपण किया जाता है। फलदार वृक्षों के अलावा यहाँ बांज, फल्यांट, पांगर इत्यादि छायादार वृक्षों के पौधों को लोग अपने घरों के आसपास खाली भूमि लगाते हैं। पूर्व में कुमाऊँ में हरेले के तिनड़ों को चिट्ठियों द्वारा घर से दूर रह रहे अपने परिजनों को भेजने की एक विशिष्ठ परम्परा थी। इसके अलावा लोग मंदिर की अशीका (फूल-पाती) अपने परिजनों को चिट्ठियों द्वारा पहुंचाते थे। बदलते दौर में यह परम्परा अब ख़त्म हो चुकी है लेकिन कहीं-कहीं यह परम्परा आज भी देखी जा सकती है। हरेला की बुवाई के लिए लोग अपने खेतों की मिट्टी का प्रयोग करते हैं। लोग इस मिट्टी में सात प्रकार के अनाजों की बुवाई करते हैं। सभी बीजों के अंकुरण के बाद पता चलता है मिट्टी कैसी है। हरेला परिपक्व हो, इसी से लोग पता करते हैं उनके खेत कैसी है या इस वर्ष उनकी पैदावार कैसी होगी।