गुरु पूर्णिमा गुरु-परम्परा के प्रति कृतज्ञता

—दाजी—-

अपने विद्यार्थी-जीवन में मनाए गए उस शिक्षक-दिवस को हम सभी याद करते हैं जब हम अपने शिक्षकों को खुश किया करते थे और उन्हें खुश करके खुद भी खुश होते थे. लेकिन आज हम गुरु पूर्णिमा की बात कर रहे हैं. इस दिवस का क्या महत्त्व है? यह दिन हम अपने उन आध्यात्मिक-शिक्षकों या गुरुओं को समर्पित करते हैं जिन्होंने हमें ज्ञान एवं बोध के मार्ग पर चलने का मार्गदर्शन प्रदान किया है. शिक्षक-दिवस में जहाँ हम विद्यालय के शिक्षकों को सम्मानित करते हैं वहीं गुरु पूर्णिमा के दिन हम उन शिक्षकों श्रद्धांजलि देते हैं जो हमें आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं और हमारे अज्ञान के अन्धकार को दूर करने में हमारी सहायता करते हैं.

विभिन्न परम्पराओं में गुरु पूर्णिमा का महत्त्व

गुरु पूर्णिमा की भिन्न-भिन्न परम्पराएं हैं और हर परंपरा उसमें कुछ न कुछ अद्वितीय अंश जोड़ देती है. वैदिक काल से ही गुरु पूर्णिमा को ऋषि व्यास के सम्मान में व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता रहा है. व्यास को वेद, महाभारत और ब्रह्मसूत्र की रचना के लिए जाना जाता है. उनके इस योगदान ने हिन्दू-धर्म में गुरु-शिष्य परंपरा की स्थापना की. कहा जाता है कि ऋषि व्यास का जन्म इसी दिन हुआ था.
बौद्ध धर्म में गुरु पूर्णिमा को भगवान बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिए गए प्रथम उपदेश के सम्मान के रूप में मनाया जाता है. धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त के नाम से प्रसिद्ध यह दिन उनके उपदेशों के आरंभ और संघ की स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है.

योग-परंपरा में गुरु पूर्णिमा को उस दिन की याद में मनाया जाता है जब आदियोगी शिव ने सप्त-ऋषियों को योग-विद्या का ज्ञान देना आरंभ किया था.

जैन धर्म में त्रिनोक गुहा और गुरुओं के सम्मान में इस दिवस को त्रिनोक गुहा पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है. यह कठोर आध्यात्मिक तपस्या के चार महीनों ‘चातुर्मास’ का आरंभ है. इस दिन भगवान महावीर ने अपने प्रथम शिष्य स्वामी गौतम को दीक्षित कर त्रिनोक गुहा की भूमिका धारण की थी.

‘गुरु’ शब्द कि व्युत्पत्ति

‘गुरु’ शब्द का अर्थ है अन्धकार को दूर करने वाला. आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह दिन सभी आध्यात्मिक गुरुओं के प्रति श्रद्धांजलि व उनके मार्गदर्शन के प्रति कृतज्ञता अर्पित करने का दिन है.

हार्टफुलनेस में गुरु की भूमिका गुरु के पारंपरिक अर्थ ‘अन्धकार को दूर करने वाला’ को सार्थक करते हुए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है. ‘गुरु’ शब्द ‘गु’ और ‘रु’ से बनाया गया है. ‘गु’ का अर्थ ‘अन्धकार या अज्ञानता’ तथा ‘रु’ का अर्थ ‘प्रकाश या ‘दूर करने वाला’ होता है. इस प्रकार गुरु अज्ञानता के अंधकार को दूर कर ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करता है. हार्टफुलनेस अभ्यास में गुरु या आध्यात्मिक मार्गदर्शक को जिज्ञासु की आध्यात्मिक यात्रा के एक मुख्य कारक के रूप में देखा जाता है.

हार्टफुलनेस परंपरा में गुरु की भूमिका

हार्टफुलनेस का एक अद्वितीय पहलू दिव्य ऊर्जा प्राणाहुति का संचरण है. गुरु के द्वारा दी जाने वाली यह प्राणाहुति ध्यान को गहरा, आध्यात्मिक प्रगति को तेज तथा सूक्ष्म शरीर को शुद्ध करती है. इसे सीधे एक दिव्य कृपा के रूप में ग्रहण किया जाता है और यह हमारे भीतर के अन्धकार और अज्ञानता को दूर करती है. हार्टफुलनेस के मननशील अभ्यास जैसे ध्यान, सफ़ाई तथा आन्तरिक जुड़ाव धीरे-धीरे हमारे हृदय और मन को शुद्ध करते हुए आन्तरिक रूपान्तरण को आसान बना देते हैं.

गुरु अभ्यासियों के सामने स्वयं को एक जीवंत उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है. अपने जीवन एवं आचरण से वह जिज्ञासुओं को भी अपने भीतर प्रेम, करुणा, विनम्रता और भक्ति के गुण उत्पन्न करने की प्रेरणा प्रदान करता है. यह जीवंत उदाहरण अभ्यासियों को प्रोत्साहित करता रहता है और उन्हें अपने आध्यात्मिक लक्ष्य के मार्ग पर बनाए रखता है.

हार्टफुलनेस के एक गुरु चारीजी ने अपनी पुस्तक ‘मानव विकास में सद्गुरु की भूमिका’ में गुरु को ‘काल की यात्रा करने वाला’ कहा है. उनके अनुसार गुरु जिज्ञासु के रूपान्तरण को आरंभ करने के लिए भविष्य से वर्तमान में आता है. गुरु की चेतना इतनी विकसित होती है कि गुरु और शिष्य की चेतना की तुलना करना मनुष्य और अमीबा की चेतना की तुलना करने जैसा होगा. जब शिष्य की चेतना के विकास में तेजी लाने हेतु या उसका रूपान्तरण करने हेतु गुरु उतर कर उसके स्तर तक आता है तो यह काल और आकाश को पार करने की यात्रा के समान होता है. ऐसा रूपान्तरण लाने हेतु गुरु विभिन्न आयामों की जो यात्रा करता है उसे समझना हमारी वर्तमान चेतना के लिए कठिन है. वेद व्यास, भगवान बुद्ध या शाहजहाँपुर के बाबूजी महाराज जैसे प्राचीन गुरु ऐसी गहन आध्यात्मिक क्षमताओं के उदाहरण थे.

एक दूसरा रोचक पहलू यह है कि गुरु की आध्यात्मिक उपस्थिति हर सच्चे जिज्ञासु के साथ उसकी आध्यात्मिक यात्रा की अपनी गति के अनुसार रहती है. कोई तेज प्रगति करे अथवा धीरे-धीरे गुरु अपनी गति को उसकी गति के साथ व्यवस्थित कर लेता है. लेकिन गुरु के मार्गदर्शन का सक्रियतापूर्वक उपयोग करते हुए अपनी प्रगति को तेज करना हमारी बुद्धिमानी होगी. मेरे गुरु बाबूजी महाराज कहा करते थे कि गुरु का काम सेवा करना है. कभी-कभी गुरु शिष्य के भीतर सोई हुई आध्यात्मिक अभिलाषाओं को अप्रत्यक्ष रूप से भी जगा देता है.

कृतज्ञता का दिवस
उस गुरु की क्या गुरु-दक्षिणा हो सकती है जो हमारे जीवन में ज्ञान, दिव्य-कृपा और आशीष का एक मूर्त रूप है? गुरु का इस धरती पर देहरूप में हमारे साथ विचरण करने के चुनाव का हमें आशीर्वाद मिलना ही हमारा एक महानतम सौभाग्य है. मेरी दृष्टि में मेरी अभिलाषा यही होनी चाहिए कि मेरे गुरु का जो सपना है मैं उसमें पूरी तरह रूपांतरित हो जाऊँ तथा उनके प्रयासों का सम्मान करते हुए अपने हृदय में सोए उस सामर्थ्यवान बीज से एक लहलहाता वृक्ष उत्पन्नकर उसके असंख्य सामर्थ्यवान बीजों से इस ब्रह्माण्ड को प्रेम, सौन्दर्य एवं ज्ञान के बगीचे में परिवर्तित कर दूँ. मेरे लिए अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता की यही परम अभिव्यक्ति होगी. आपकी अभिव्यक्ति क्या होगी?

लेखक- दाजी (हार्टफुलनेस के गाइड तथा श्री रामचन्द्र मिशन के अध्यक्ष)

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