स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा

(पहली पुण्य तिथि पर संस्मरण)
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– हेमचंद्र सकलानी–
पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा जी हमारे बीच ऐसा खालीपन छोड़ गए,प्रकृति ने ऐसा पुत्र,ऐसा लाल खोया है जिसकी पूर्ति शायद कभी संभव नही हो पाएगी। यद्यपि हमारे परिवार से रिस्तेदारी के संबंध रहे लेकिन कभी संबंध रिस्तेदारी से बढ़कर भी होते हैं। माँ बताती थी कि रिश्ते मे नाना लगते हैं। हम बचपन से ही इलाहाबाद अलीगढ़ रहे इसलिए मेरा परिचय सन 1984 के बाद से हुआ पर मेरे पिताजी ताऊजी माँ जी का जिक्र वो और उनकी पत्नी अक्सर मुझे करती थीं जब भी मिलता था। लेकिन मिलने का अवसर तब खुलकर मिला जब 1989 में वे घर छोड़कर गंगा जी के पुल के निकट गंगा के किनारे बनते बांध के समीप कुटिया बनाकर रहने लगे थे बांध निर्माण के विरोध में जो बाद में गंगा कुटी के नाम से प्रसिद्ध हुई। सोलर कुकर में बना भात दाल हमने साथ मे खाया था तब पहली बार सोलर कुकर को देख था कैसे बनता है उसमें खाना। काफी देर तक बांध, पर्यावरण पर बात हुई। उसके बाद मेरा एक बड़ा लेख अवकाश समाचार पत्र में उनके बारे में रविवारीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था। 1992 में जब उत्तराखण्ड आंदोलन चरम पर था और चिन्याली उत्तरकाशी में मैं आंदोलन में अग्रणीय भूमिका निभा रहा था,तब एक रैली के दौरान हम बहुत उत्तेजना में थे मुलायम सिंह की गोलाबारी के कारण। एक सज्जन ने कहा सकलानी जब मीटिंग चले तब कोई रचना हो जाये (उस समय उत्तराखण्ड प्रथक राज्य के पक्ष में मेरे कई लेख कविताएं प्रकाशित हो रही थीं) और सच यह था मन मे शब्द बहुत उथल पुथल मचा रहे थे। और उस आंदोलन से गुजरते सड़क पर चलते चलते एक रचना ने जन्म लिया कागज पर लिखकर ब्लॉक ऑफिस के प्रांगण में जहाँ मीटिंग शुरु हुई मेरे मित्र ने वहां दीवाल पर टांग दी।

वह से समचार पत्रों ने बिना मुझे पता चले बताए प्रकाशित कर दी जब लोगों ने बताया तब कितनी खुशी हुई बात नहीं सकता। वहाँ से आदरणीय बहुगुणा जी के हाथ लगी और उन्होंने अपनी छोटी तुरंत निकली पत्रिका में स्थान दिया बाद में काफी समय बाद पत्रिका मैं उनसे लेकर आया था। डॉ पद्मेश बुड़ाकोटी ने जब 1994 में उत्तराखण्ड आंदोलन का दस्तावेज लिखा तो उसका प्रारम्भ भी मेरी उसी कविता से किया,यह मुझे तीन वर्ष बाद पता चला और तब बाद में पुस्तक मुझे प्राप्त हुई। मेरे संपादन में निकली “डूबती टिहरी की कविताओं” की भूमिका उन्होंने बहुत ही भावुकतापूर्ण ढंग से लिखी, और मुझे बहुत शाबाशी दी थी। विरासत को खोजते (भाग – १) उत्तराखण्ड की यात्राएं पुस्तक की भी बहुत अच्छी भूमिका उन्होंने लिखी,और प्रशंसा की थी, जिससे भविष्य में मुझे यात्रा संस्मरणों को लिखने की और अधिक प्रेरणा मिली क्योंकि उन्होंने स्वयम दुर्गम यात्राओं की बातें मुझे बताई थीं। सन 1999 में उत्तराखण्ड विधान सभा के अधिवेशन में उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव पटल पर आना था, मुझे उस दिन विधानसभा की कार्यवाही देखने का अवसर मिला। प्रस्ताव आपसी द्वंद के कारण पास नहीं हो सका। उस से पहले दिन विधायक होस्टल में बहुगुणा जी रुके हुए थे। प्रस्ताव पास न होने के बाद जब होस्टल में शाम को बाहर निकला तो देखा पिट्ठू पीठ पर टांगे गेट से बाहर आये मैंने पूछा तो बोले रेलवे स्टेशन जा रहा हूँ देहरादून की ट्रेन पकड़नी है। मैंने कहा तो सड़क पर क्या कर रहे हैं, बोले टैम्पो का इंतज़ार। मैंने कहा अरे किसी से बता देते कार जीप छोड़ आती, ठहरिए मैं अंदर जाकर बोलता हूँ। उन्होंने मुझे रोका कहा नहीं मैं टैम्पो से जाऊँगा, कहते हुए लकदक टेम्पो को हाथ देकर रुकवाया और पिट्ठू सहित किसी तरह अंदर जा पाए। ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे जिसकी किसी अन्य में हम कल्पना भी नहीं कर सकते। सन 2000 में एक संस्था ने डाकपत्थर में 3 सितंबर 2000 को पर्यावरण पर बड़ा सेमिनार करने का मन बनाया और बहुगुणा जी को बुलाने का जिम्मा मुझे सौंपा। मैंने बात की तो आने को मुख्य अतिथि बनने को तैयार हो गए थे। लेकिन कार्यक्रम वाले दिन से दो दिन पहले जब पता किया तो पता चला वो पुणे में एक कार्यक्रम में हैं और आ जायेंगे। लेकिन 2 तारीख सुबह तक कोई सूचना उनकी आने की मुझे मिल नहीं पा रही थी मन बहुत परेशान था सारी तैयारी हो चुकी थी। रात दस बजे मुझे जैन धर्मशाला
देहरादून के प्रबंधक का फोन आया कि बहुगुणा जी हमारी धर्मशाला में आए हुए हैं और कॉरिडोर में जमीन पर ही चादर बिछाकर सो गए हैं, उन्होंने सोने से पहले बताया कि मुझे सुबह 6 बजे की बस से डाकपत्थर सकलानी जी के यहाँ जाना है वहाँ कार्यक्रम है। वह बोला साहब मैंने बहुत कहा कि अच्छा कमरा खुलवा देता हूँ वहाँ आराम से लेट जाएँ लेकिन नहीं माने।कुछ कीजिये आप, मुझे बहुत डर लग रहा है। मुझे चैन मिला कि आ गए हैं, मैंने उससे कहा परेशान होने की जरूरत नहीं वो ऐसे ही रहते हैं। डाकपत्थर आए, एक किलोमीटर दूर मेरा घर था। मैंने बहुत कहा पिट्ठू मुझे दीजिये लेकिन नहीं माने अपने आप पीठ पर लादे और तिमंजिले पर मेरे क्वार्टर तक आये। कार्यक्रम में भाग लिया, दो जगह हमारे साथ वृक्षारोपण किया। 8 सितंबर 2005 में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के एक केम्पस में पर्यावरण कार्यक्रम था, आयोजक मेरे मित्र थे उन्होंने बहुगुणा जी और उनकी धर्मपत्नी को भी बुलाया था लेकिन मुझे उन्हें साथ लाने की जिम्मेदारी सौंपी । वहाँ कार्यक्रम में बहुत प्रसिद्ध लेखकों के तथा बहुगुणा जी के सान्निध्य में मुझे बैठने का और बोलने का फिर अवसर मिला। सन 2012 मे मेरी पुस्तक विरासत की यात्राएं (भाग-३) का लोकार्पण राजभवन में हुआ वहाँ भी उपस्तिथ होकर सारगर्भित व्यक्तव्य से कार्यकर्म को ऊँचाई प्रदान की। मैं उन भाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ जिसे हमेशा उनका आशीर्वाद और वरदहस्त की छाया मिली। सन 2018 और 2019 में भी उनके घर पर मुझे अकेले फिर दिल्ली के डॉ सूर्यप्रसाद सेमवाल जी के साथ उनसे मिलने का अवसर मिला। बहुत कम लेकिन बहुत सार्थक बोलते थे। ऐसे सीधे सरल सादगी पसंद व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं। लगा था शायद उनके बारे में ही किसी ने लिखा था –
हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
तब जाकर होता है चमन में दीदावर कोई पैदा।
हमारे देश में हजारों ऐसी विभूतियों ने समय-समय पर जन्म लिया है जिन्होंने राष्ट्र सेवा समाज सेवा में अपना बेमिसाल योगदान दिया है यह सब उन्होंने निस्वार्थ भाव से किया। उन्हें न किसी राजकीय सम्मान का न किसी नाम का न धन संपदा और नहीं सरकारी सेवा साधनों का लाभ उठाने का लालच रहा है।
अपना सब कुछ राष्ट्र और समाज को समर्पित कर वे गुमनाम सी जिंदगी जीते रहे। उन्होंने राजनीतिज्ञों की तरह स्वाधीनता संग्राम में थोड़ा सा भाग लेकर देश से अपनी कुर्बानियों का भरपूर मुआवजा नहीं वसूला। इसके विपरीत ऐसे लोग किसी न किसी प्रकार की सामाजिक जागरण की लौ जगाने में देश देशांतर पैदल साधारण वेश में किसी फक्कड़ की तरह घूमते रहे। हजारों पर्वतों बीहड़ों में बिना किसी स्वार्थ के खाक छानते रहे। ऐसे ही एक युगपुरुष का नाम था सुंदरलाल बहुगुणा। विदेशों में लोग जिन्हें निस्वार्थ सेवाओं के कारण आधुनिक युग का गांधी नाम से पुकारते रहे।
9 जनवरी 1927 में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के मरोरा नाम गांव के एक साधारण परिवार में बहुगुणा जी का जन्म हुआ था। बचपन गांव में ही व्यतीत हुआ था, प्राइमरी शिक्षा उत्तरकाशी में, हाई स्कूल की शिक्षा प्रताप इंटर कॉलेज टिहरी से पास की। राजशाही का विरोध करने के कारण उन्हें भागकर लाहौर जाना पड़ा, वहां सिख का वेश धारण करके रहे, क्योंकि वहां भी राजा की पुलिस उनकी खोजबीन करती रही थी। वहां एस.डी.कॉलेज लाहौर से अंग्रेजी,इतिहास, राजनीतिक शास्त्र में डिग्री हासिल की। स्वतंत्रता के बाद बहुगुणा जी स्टेट प्रजामंडल के महासचिव बने फिर टिहरी जिला कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। छुआछूत विरोधी कार्यों में जुट गए थे।
सन 1949 में वे मीरा बेन के संपर्क में आए,1956 में उनका विवाह विमला नौटियाल जी से हुआ। फिर दोनों ने मिलकर सिलयारा में नवजीवन आश्रम की स्थापना की। 1959 में बहुगुणा जी आचार्य बिनोवा भावे से मिले। बिनोवा जी ने उन्हें घूम घूम कर जन समस्याओं के निराकरण हेतु प्रेरित किया। तब से लेकर अब तक वर्षों बाद तक उनका भ्रमण कार्यक्रम जारी रहा।
सन 1962 में शराब विरोधी आंदोलन, वन और पर्यावरण की सुरक्षा हेतु गौरा देवी एवं अन्य के साथ मिलकर चिपको आंदोलन प्रारंभ किया। फिर ‌हिमालय के संवेशील क्षेत्र होने के कारण टिहरी बांध विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया और हजारों किलोमीटर की दुर्गम पर्वतीय यात्रा में पैदल चलकर गांव गांव, पगडंडी पगडंडी, ऊंचे ऊंचे पर्वत श्रृंखलाओं की करीं। कश्मीर से लेकर सुदूर आज शाम तक अपने आंदोलन की लौ जलाई। पेड़ों,वनों, पर्यावरण की सुरक्षा हेतु 1964 से 1969 में कई बार अनशन पर भी बैठे। उन्हीं के प्रयासों से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में लगभग एक हजार से अधिक मीटर की ऊंचाई पर से पेड़ों की कटाई व उन्हें नष्ट करने पर प्रतिबंध लगा।
अपने चिपको आंदोलन के उद्देश्य को लेकर उन्होंने कश्मीर से कोहिमा, भूटान, और हिमालय क्षेत्र की पैदल यात्रा है कीं। 1983 से 1990 के बीच देश विदेश की यात्राएं, पर्यावरण बचाओ तथा चिपको आंदोलन और वनों की सुरक्षा के उद्देश्य कीं तथा भारत में ही कर्नाटक, उड़ीसा, केरल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश का व्यापक भ्रमण किया।
उनके वनों की सुरक्षा, पर्यावरण की सुरक्षा, हिमालय की सुरक्षा के प्रति चलाए गए अभियानों, आंदोलनों को देखकर ही उन्हें केन्या, लंदन, जर्मनी, फ्रांस,‌‌ स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, स्वीडन, हौलैंड, फिनलैंड,‌ बेल्जियम, इटली,‌ कनाडा, अमेरिका, जापान, मेक्सिको, इंडोनेशिया,मलेशिया,थाईलैंड के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया तथा उनके विचारों को पूरे विश्व में सराहा गया।
1981 में वर्ल्ड एनर्जी कॉन्फ्रेंस नैरोबी, विमेंस फायर फूड मार्च कीनिया, 1982 में पब्लिक हियरिंग ऑन इन्वायरमेंट लंदन, 1984 में फर्स्ट मार्च स्विट्जरलैंड, 1985 में वर्ल्ड फॉरेस्ट्री कांग्रेस मेक्सिको, 1986 में फर्स्ट जर्मनी, 1990 में राइट लाइवलीहुड कॉन्फ्रेंस इटली,1992 मे कनाडा,1993 एशिया,सन 2000 मे फिर कनाडा,1994 में टुवार्ड्स ए एसटेइनेबल सोसायटी कोबे जापान, यूनेस्को कॉन्फ्रेंस आन कल्चर इंडिया 1994, इंटरनेशनल कांग्रेस आप इथोनोबिलोजी भारत 1994 में, पीस एंड इन्वायरमेंट इंटरनेशनल कोंग्रेस नई दिल्ली 1995 में, एशियन डेवलपमेंट फोरम बैंकोक 1996 आदि सैकड़ों राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में आपने भाग लिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुगुणा जी के कार्यों और विचारों को व्यापक समर्थन मिला और अनेक देशों ने उन्हें अनेक पुरस्कारों और आलंकरणों से समय समय पर सम्मानित किया।
सन 1981 में भारत ने उन्हें पद्मश्री से फिर पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। जिसे एक बार उन्होंने लेने से अस्वीकार कर दिया था। 1984 में चिपको मूवमेंट पर सिंगवी नेशनल इंटीग्रेशन अवार्ड, 1985 में फ्रेंड्स ऑफ द ट्री, 1986 में रचनात्मक कार्यों के लिए जमनालाल बजाज अवार्ड, 1986 में चिपको मूवमेंट के आधार पर राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड स्टॉकहोम में,1989 में पर्यावरण सुरक्षा के लिए शेर ए कश्मीर अवार्ड,रुड़की इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय द्वारा डायरेक्टर ऑफ सोशल साइंस की सम्मानित उपाधि प्रदान की गई। सन 1992 में विश्व भारती द्वारा रवीन्द्र अवार्ड,1995 में एफ.ए.ओ. द्वारा वर्ल्ड फूड डे अवार्ड प्रदान किया गया।
कुल मिलाकर देखा जाए तो बहुगुणा जी ने विकास की उस परंपरागत धारणा को चुनौती दी जिसने आदमी को, प्रकृति पर्यावरण के कसाई के रूप में बदल दिया था। उनकी पूर्ण आस्था उस विकास में थी जहां मानव समाज की स्थाई शांति, खुशहाली और प्राकृतिक सुरक्षा की गारंटी देता हो। वनस्पति, वन, पर्यावरण, हिमालय की सुरक्षा के लिए उन्होंने कई बार अपना जीवन दांव पर लगाया है। इसी कारण उन्होंने 260.5 मीटर ऊंचे टिहरी बांध का विरोध किया था,क्योंकि यह अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र में बन रहा था, जहां वैज्ञानिकों के मतानुसार 8.5 रिएक्टर स्केल के भूकंप आ सकते थे। इसके लिए अप्रैल 1992 में उन्होंने 45 दिन का उपवास रखा जिसके बाद संसद में इस परियोजना पर व्यापक चर्चा हुई थी। 1995 में पुनः उन्होंने 49 दिन का उपवास रखा और लगभग 3 वर्षों से अधिक टिहरी बांध के समीप भागीरथी के तट पर गंगा कुटिया में गांधीवादी सिद्धांतों पर “एकला चलो रे” के आधार पर आंदोलन रत रहे थे।
सारा जीवन संघर्षों में व्यतीत करने के बाद अंत में अस्वस्थ होने पर काल के कूरुर हाथों ने 21 मई 2021 को उन्हें हम लोगों से छीन लिया। निःसंदेह ऐसी विभूतियां कभी कभी धरा पर जन्म लेती हैं जिनकी प्रतीक्षा में युग गुजर जाते हैं।

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