कुपोषण की समस्या से निपटने को ठोस कदम उठाने की जरूरत

कुपोषण की समस्या से निपटने को ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। कुपोषण स्वास्थ्य संबंधी एक गंभीर समस्या है। शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी से यह गंभीर बीमारी होती है. बच्चों और वयस्कों में कुपोषण के लक्षण अलग-अलग हो सकते हैं. बच्चों में बौद्धिक विकास में कमी, शरीर का कम वजन, थकान, एनर्जी की कमी, चिड़चिड़ापन, स्लो बिहेवियर, सीखने में कठिनाई जैसे लक्षण कुपोषण के हो सकते हैं. वहीं अगर बात वयस्कों की करें तो उनका वजन घटना, भूख न लगना, भोजन में रुचि न होना, थकान और डिप्रेशन, फैट, मसल्स के टिश्यू में परेशानी, बीमारी से उबरने में अधिक समय लगना, घाव भरने में अधिक समय लगना आदि कुपोषण के लक्षण होते हैं। आमतौर पर यह बीमारी बच्चों में ज्यादा देखने को मिलती है। कोई बच्चा या व्यक्ति कुपोषण का शिकार तब होता है, जब उसके आहार में पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व मौजूद नहीं होते है, जैसे-फैट्स, कार्बाेहाइड्रेट, विटामिन, प्रोटीन, खनिज-लवण और पानी इत्यादि। कुपोषण दो तरह के होते हैं, अल्पपोषण में पोषक तत्वों की कमी होती है और आपका लंबाई और वजन कम हो जाता है। दूसरा होता है अतिपोषण, इसमें शरीर को आवश्यक्ता से ज्यादा पोषक तत्व मिलते हैं, जिसके कारण मोटापा या वजन बढ़ना हो सकते हैं। कुपोषण के लक्षण में, डिप्रशन, चिड़चिड़ापन, थकान, असामान्य रूप से शरीर से वसा का कम होना, इंफेक्शन, चोट का जल्दी ठीक नहीं होना, इत्यादि है। इसके मुख्य कारण है, स्वास्थ्य आहार की महंगाई, जागरुकता की कमी, नशे का ज्यादा सेवन, इत्यादि। इससे बचने के लिए अपने आहार में पर्याप्त खनिज-पदार्थों वाली चीजों का सेवन करने की जरूरत होती है। कुपोषण से थोड़ा हट कर बात करें तो सामान्य लोगों में भी बीमारियों की कमी नहीं है। कई लोग किसी न किसी तरह की बीमारियों से परेशान है, तो ऐसे में स्वास्थ्य बीमा सभी के लिए बहुत जरूरी पहलू है। कुपोषण के कारण एनीमिया, घेंघा रोग, बच्चों के हड्डियों का कमजोर होना, इत्यादि की समस्या होती है, जिसके कारण शिशुओं की मृत्यु दर बढ़ने लगती है, जो कि समाज और देश के लिए सही नहीं है। कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए भारत सरकार कई योजनाएं चला रही है, जैसे- मनरेगा, राष्ट्रीय पोषण मिशन, मिड-डे मील, समेकित बाल विकास सेवा, इत्यादि। कुपोषण की समस्या, विशेष रूप से छोटे बच्चों में व्याप्त कुपोषण, सबसे गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दों में से एक है। यह बच्चों की मृत्यु में से लगभग आधे भाग के लिये ज़िम्मेदार है और बच्चों में रुग्णता का एक प्रमुख कारण है। इससे गरीबी और भेदभाव में निहित चिकित्सा और सामाजिक विकार संबद्ध है। इसका एक आर्थिक तरंग प्रभाव भी उत्पन्न होता है जो विकास को बाधित करता है। कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिये सरकार विभिन्न योजनाओं का कार्यान्वयन कर रही है। हालाँकि उनके वित्तपोषण और कार्यान्वयन में अभी भी अंतराल मौजूद हैं। इस मुद्दे को समग्र रूप से संबोधित करने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक है। शरीर को लंबे समय तक संतुलित आहार न मिलने से व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह आसानी से किसी भी बीमारी का शिकार हो सकता है। कुपोषण बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है। आँकड़े बताते हैं कि छोटी उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण कुपोषण ही होता है। स्त्रियों में रक्ताल्पता या घेंघा रोग अथवा बच्चों में सूखा रोग या रतौंधी और यहाँ तक कि अंधत्व भी कुपोषण का ही दुष्परिणाम है। कुपोषण का सबसे गंभीर प्रभाव मानव उत्पादकता पर देखने को मिलता है और इसके प्रभाव से मानव उत्पादकता लगभग 10-15 प्रतिशत तक कम हो जाती है, जो कि अंततः देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न करती है। आँकड़े बताते हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली कुल जनसंख्या का लगभग 25.7 प्रतिशत हिस्सा अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहा है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 13.7 प्रतिशत के करीब है। यद्यपि गरीबी अकेले कुपोषण को जन्म नहीं देती, किंतु यह आम लोगों के लिये पौष्टिक भोजन की उपलब्धता को प्रभावित कर सकती है। अधिकांश भोजन और पोषण संबंधी संकट भोजन की कमी के कारण उत्पन्न नहीं होते हैं, बल्कि इसलिये उत्पन्न होते हैं क्योंकि लोग पर्याप्त भोजन प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं। जल जीवन का पर्याय है। पीने योग्य पानी की कमी, खराब स्वच्छता और खतरनाक स्वच्छता प्रथाओं के कारण आम लोग जल जनित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं, जो कि कुपोषण के प्रत्यक्ष कारणों में से एक है। देश में पौष्टिक और गुणवत्तापूर्ण आहार के संबंध में जागरूकता की कमी स्पष्ट दिखाई देती है जिसके कारण तकरीबन पूरा परिवार कुपोषण का शिकार हो जाता है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता भी कुपोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। बीते कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्राकृतिक आपदाओं जैसे-सूखा, चक्रवात, बाढ़, आदि की संख्या में काफी वृद्धि देखने को मिली है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार विश्व के 40 से अधिक विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि उत्पादन में हो रही गिरावट आने वाले वर्षों में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या में नाटकीय रूप से वृद्धि कर सकती है।
कुपोषण घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है। सामान्य रूप में खाद्य सुरक्षा का अर्थ है सब तक खाद्य की पहुंच, हर समय खाद्य की पहुंच और सक्रिय और स्वस्थ्य जीवन के लिए पर्याप्त खाद्य। जब इनमें से एक या सारे घटक कम हो जाते हैं तो परिवार खाद्य असुरक्षा में डूब जाते है। खाद्य सुरक्षा सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। उपयुक्त नीतियों के अभाव में खाद्यान्न जरूरत मंदों तक नहीं पहुंच पाता है। अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ता है, चूहों द्वारा नष्ट होता है या समुद्रों में डुबाया जाता है पर जन संख्या का बड़ा भाग भूखे पेट सोता है।
कुपोषण बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता हैं। यह जन्म या उससे भी पहले शुरू होता है और 6 महीने से 3 वर्ष की अवधि में तीव्रता से बढ़ता है। इसके परिणाम स्वरूप वृध्दि बाधिता, मृत्यु, कम दक्षता और 15 पाइंट तक आईक्यू का नुकसान होता है। सबसे भयंकर परिणाम इसके द्वारा जनित आर्थिक नुकसान होता है। कुपोषण के कारण मानव उत्पादकता 10-15 प्रतिशत तक कम हो जाती है जो सकल घरेलू उत्पाद को 5-10 प्रतिशत तक कम कर सकता है। कुपोषण के कारण बड़ी तादाद में बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। कुपोषित बच्चे घटी हुई सिखने की क्षमता के कारण खुद को स्कूल में रोक नहीं पाते। स्कूल से बाहर वे सामाजिक उपेक्षा तथा घटी हुई कमाऊ क्षमता तथा जीवन पर्यंत शोषण के शिकार हो जाते है। इस कारण बड़ी संख्या में बच्चें बाल श्रमिक या बाल वैश्यावृत्ति के लिए मजबूर हो जाते हैं। बड़े होने पर वे अकुशल मजदूरों की लम्बी कतार में जुड़ जाते हैं जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ बनता है। कुपोषण जन्म या उससे भी पहले शुरू होता है और 6 माह से 3 वर्ष की अवधि में तीव्रता से बढ़ता है। 6 माह से 3 वर्ष की उम्र में बच्चे के लिए मॉ का दूध पर्याप्त नहीं होता। बच्चा खुद खा पाने या मांग पाने में असमर्थ होता है। उसको बार-बार नरम भोजन की जरूरत होती है जो उसे कोई वयस्क ही खिला सकता है। माताओं को अजीविका कमाने के साथ-साथ और भी कई घरेलू काम करने पड़ते हैं जैसे-पकाना, पानी लाना, सफाई करना आदि। उनमें इतनी ऊर्जा या समय नहीं बचता कि वह बच्चे को बार-बार खिला सके। परिवार में भी अन्य वयस्क इसे सिर्फ मॉ की जिम्मेदारी समझते हैं। बचपन में कुपोषित बच्चे को बाद में सुधार की संभावना बहुत कम होती है। मध्यान्ह भोजन, छात्रवृत्ति, बाल श्रमिकों के लिए विशेष स्कूल आदि सहायक तो है किन्तु पहले 6 वर्षों के नुकसान की भरपाई नहीं कर सकते।

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