प्रभात पटनायक।
जिस वैज्ञानिक अमल में मानव स्वतंत्रता को बढ़ाने की संभावना छुपी है, उसका उपयोग प्रभुत्व को बढ़ाने के लिये यानी मानव स्वतंत्रता को घटाने के लिए किया गया है। पिछली सहस्त्राब्दि के दौरान विज्ञान का जो प्रस्फुटन हुआ है, उसके केंद्र में एक विडंबना है। विज्ञान के इस प्रस्फुटन में मानव स्वतंत्रता में बहुत भारी बढ़ोतरी करने की संभावना रही है। इससे मानव-प्रकृति की द्वंद्वात्मकता के दायरे में, मनुष्य की क्षमता बढ़ जाती है।
वैज्ञानिक अमल का लक्ष्य जो ‘प्रदत्त’ है उसकी सीमाओं से आगे जाना होता है और यह आगे जाना हमेशा-हमेशा के लिए एक बार लांघने के अर्थ में ही नहीं होता है बल्कि अनवरत आत्मप्रश्नांकन के जरिए, एक अनवरत गति के रूप में आगे जाना होता है। इसलिए, यह अमल संभावित रूप से मुक्ति का एक सामूहिक प्रयास होता है। लेकिन, स्वतंत्रता की यह संभावना, उल्लेखनीय रूप से अधूरी ही बनी रही है। और एक ओर तो इस प्रस्फुटन की संभावनाओं को पूरा नहीं किया जा सका है और दूसरी ओर विज्ञान के इस प्रस्फुटन का उपयोग बहुत हद तक, कुछ के द्वारा अन्य मनुष्यों तथा अन्य समाजों पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए किया गया है। विडंबना इसी तथ्य में निहित है कि जिस वैज्ञानिक अमल में मानव स्वतंत्रता को बढ़ाने की संभावना छुपी है, उसका उपयोग प्रभुत्व को बढ़ाने के लिये यानी मानव स्वतंत्रता को घटाने के लिए किया गया है।
इस विडंबना की जड़ें इस तथ्य में निहित हैं कि वैज्ञानिक प्रगति को उन्मुक्त करने के लिए, समाज पर पुराहित वर्ग की जकड़ को तोडना जरूरी था (याद करें कि पुरोहित वर्ग ने गैलीलियो को अपने बात से पीछे हटने के लिए मजबूर किया था) और पुरोहित वर्ग की जकड़ का यह तोड़ा जाना, सामंती व्यवस्था के अतिक्रमण के हिस्से के तौर पर यानी पूंजीवादी क्रांति के हिस्से के तौर पर ही हो सकता था। 1640 की अंगरेजी क्रांति इसकी सबसे प्रमुख मिसाल थी। इसलिए, यूरोप में आधुनिक विज्ञान का विकास, शुरूआत से ही अभिन्न रूप से पूंजीवाद के विकास के साथ जुड़ा हुआ था और इस तथ्य ने, इन वैज्ञानिक प्रगतियों का जो उपयोग किया गया, उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इस पूंजीवादी छाप के महत्वपूर्ण प्रतिमानिक निहितार्थ भी रहे हैं, जिन पर दार्शनिक (जैसे कि अकील बिलग्रामी) सोच-विचार करते रहे हैं। इन निहितार्थों का संबंध प्रकृति को ‘‘जड़ पदार्थ’’ की तरह बरतने और इसी तरह की ‘‘जड़ता’’ दुनिया के दूर-दराज के इलाकों की देशज आबादियों पर आरोपित करने (उन्हें ‘इतिहास-विहीन जन’ मानने) से है। यह यूरोपियों की नजरों में प्रकृति पर और उसी प्रकार इन ऐसी दूर-दराज ही आबादियों पर भी, ‘स्वामित्व’ स्थापित किए जाने को ‘न्यायोचित’ बनाता था और इसलिए, साम्राज्यवाद की परिघटना को ‘न्यायोचित’ बनाता था।
इस तथ्य को गहराई से पहचानते हुए कि विज्ञान की स्वतंत्रता-संवद्र्घनकारी भूमिका को पूंजीवाद के ही अतिक्रमण के जरिए ही पूरी तरह से हासिल किया जा सकता है, उस युग में जब इस तरह का अतिक्रमण ऐतिहासिक एजेंडा पर आ गया था, तब के बेहतरीन वैज्ञानिक समाजवाद के लिए संघर्ष में शामिल हो गए थे। यह उनके लिए सिर्फ नागरिकों के रूप में ही आवश्यक नहीं था, ताकि विज्ञान के दुरुपयोग को रोका जा सके, यह वैज्ञानिकों के नाते भी उनके लिए नैतिक अनिवार्यता थी। वैज्ञानिक प्रगति पैदा करने वाले अपने ही अमल के दुरुपयोग के खिलाफ संघर्ष करना, उनके लिए अति-महत्वपूर्ण था। समाजवाद के लिए संघर्ष के मामले में, अल्बर्ट आइंस्टीन के उदाहरण से सभी परिचित हैं। वह एक घोषित समाजवादी ही नहीं थे बल्कि राजनीतिक गतिविधियों तथा सभाओं में सक्रिय रूप से हिस्सा भी लिया करते थे। इसके चलते अमेरिकी एफबीआई ने उनके पीछे जासूस लगा दिए थे और उन पर एक डोसियर खोल रखा था, जो अब सार्वजनिक जानकारी में आ चुका है। वास्तव में उनके समाजवादी विश्वासों के चलते हुए उन्हें उस मेनहट्टन प्रोजेक्ट में हिस्सा लेने के लिए सुरक्षा क्लीअरेंस नहीं दिया गया था, जिसने एटम बम का निर्माण किया था। इसी प्रकार ब्रिटेन में जेडी बर्नाल से लेकर जोसफ नीधम, जेबीएस हाल्डेन, हेमन लेवी, जीएस हार्डी, डोरोथी हॉजकिन तक तथा दूसरे अनेक बीसवीं सदी के बेहतरीन वैज्ञानिक, वामपंथ का हिस्सा रहे थे।
बहरहाल, नवउदारवाद के आने के साथ एक बुनियादी बदलाव आया है। विज्ञान को ‘‘माल’’ में तब्दील कर दिया गया है, जिसके तहत शोध को फंड करने की जिम्मेदारी राज्य से हटकर, निजी हाथों में और खासतौर पर कारपोरेट दानदाताओं पर आ गयी है। इसका अर्थ यह हुआ है कि वैज्ञानिकों की अपनी ऐसी रायें रखने की स्वतंत्रता बहुत ही कतर दी गयी है, जो पूंजीवाद का अतिक्रमण करने की जरूरत को रेखांकित करती हों। अगर कोई वैज्ञानिक किसी वैज्ञानिक परियोजना को चलाना चाहता है, इसके लिए उसका निजी दानदाताओं को पर्याप्त रूप से स्वीकार्य होना जरूरी हो जाता है। और अगर उस वैज्ञानिक की यह ख्याति हो कि वह समाजवादी विचारों का व्यक्ति है, यह चीज उसके खिलाफ काम करती है। विश्वविद्यालयी नियुक्तियां तक इस पर निर्भर करती हैं कि कोई वैज्ञानिक, दानदाताओं से कितना पैसा खींचने में समर्थ है।
इस तरह, उस क्षेत्र में भी जिस में हाल तक अकादमिकों को भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार रखने की स्वतंत्रता थी, अब वही राजनीतिक सीमाएं लागू होती हैं। दूसरे शब्दों में विज्ञान का एक माल में तब्दील किया जाना, एक आवश्यक नतीजे के तौर पर एक राजनीतिक अनुरूपता या कन्फर्मिज्म की और इसलिए वैज्ञानिक की ओर से एक सामाजिक दायित्वहीनता की मांग करता है। इस तरह नवउदारवाद के युग में वैज्ञानिक को इसकी ‘सुविधा’ से महरूम कर दिया जाता है कि इसकी नैतिक आवश्यकता को आत्मसात कर ले कि पूंजीवाद का अतिक्रमण करना होगा ताकि, उनका वैज्ञानिक अमल वास्तव में मानव मुक्ति में योग दे सके। और इसका निहितार्थ होता है, परिणामों पर समुचित चर्चा के बिना ही वैज्ञानिक प्रगतियों का अपनाया जाना। हमारी अपनी आंखों के सामने हो रहे इस प्रकार के विचारहीन स्वयीकरण की एक स्वतरूस्पष्ट मिसाल तो, कृत्रिम मेधा या आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस के उपयोग की ही है। बेशक, इसके अनेकानेक निहितार्थ हैं, जिनमें मैं नहीं जा रहा हूंय मेरी चिंता सिर्फ एक निहितार्थ की है और वह यह कि इससे बहुत भारी बेरोजगारी पैदा होने जा रही है, जिसकी ओर हॉलीवुड के पटकथा लेखकों की हाल की हड़ताल ने ध्यान खींचा है। कोई भी कदम, जो मानवीय श्रम की जगह पर किसी यांत्रिक उपकरण को लाता हो, संभावित रूप से मुक्तिदायी होता है। उससे काम के बोझिलपन में कमी हो सकती है या फिर पहले जितने ही श्रम से उत्पाद का परिमाण बढ़ सकता है और इस तरह आबादी के लिए मालों व सेवाओं की उपलब्धता बढ़ सकती है। लेकिन, पूंजीवाद के अंतर्गत इस तरह के मानवीय श्रम का किसी मशीनी उपकरण से कोई भी प्रतिस्थापन, मानवीय दरिद्रता को बढ़ाने का ही काम करता है।
एक मिसाल ले लेते हैं। मान लीजिए कि किसी नयी खोज से श्रम की उत्पादकता दोगुनी हो जाती है। पूंजीवाद के अंतर्गत हरेक पूंजीपति इस नयी खोज का उपयोग, पहले जितनी श्रम शक्ति का उपयोग करता था, उसमें से आधे की छंटनी करने के लिए ही करेगा। इस तथ्य से ही बेरोजगारों की फौज का सापेक्ष आकार बढ़ जाएगा और इसका नतीजा यह होगा कि जो इस छंटनी के बाद भी रोजगार में बने रहेंगे, उनकी भी वास्तविक मजदूरी में बढ़ोतरी नहीं होगी। इस तरह, अगर पहले जितना ही उत्पाद पैदा होता रहता है तो, मजदूरी का बिल आधा हो जाएगा और अधिशेष के परिमाण में बढ़ोतरी हो जाएगी। लेकिन, पहले के उत्पाद के स्तर पर जो मजदूरी का बिल था, उसमें से एक हिस्सा अब अधिशेष के खाने में चला जाएगा, इससे मांग में कमी हो जाएगी क्योंकि अधिशेष की तुलना में मजदूरी का ही कहीं बड़ा अनुपात उपभोग में जाता है। इसका नतीजा यह होगा कि आगे-आगे पहले वाले स्तर तक उत्पादन नहीं हो रहा होगा और इससे एक अतिरिक्त बेरोजगारी पैदा हो रही होगी। यह अतिरिक्त बेरोजगारी, मांग की अपर्याप्तता के चलते पैदा हो रही होगी और यह बेरोजगारी उस बेरोजगारी के ऊपर से होगी, जो श्रम उत्पादकता के दोगुने होने से शुरूआत में ही हुई होगी।
अंगरेज अर्थशास्त्री, डेविड रिकार्डो ने मांग की कमी के चलते पैदा होने वाली इस अतिरिक्त बेरोजगारी को नहीं पहचाना था। वह तो से द्वारा प्रतिपादित नियम को मानते थे कि सकल मांग में कोई कमी कभी होती ही नहीं है और न सिर्फ मजदूरी के पूरे हिस्से का उपभोग कर लिया जाता है बल्कि उपभोग में जाने वाले हिस्से के अलावा जितना भी अधिशेष होता है, उसका निवेश खुद ब खुद हो जाता है। इस पूर्व-धारणा से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि मजदूरी के हिस्से में से किसी भाग के अधिशेष की ओर चले जाने से, पहले के उत्पाद में से कुल उपभोग में तो कमी होगी, लेकिन इससे निवेश बढ़ेगा, जबकि शुरूआत के तौर पर पहले का उत्पाद तो अपरिवर्तित ही बना रहेगा। और निवेश के हिस्से में इस बढ़ोतरी से उत्पाद की वृद्धि की दर बढ़ेगी तथा इसलिए रोजगार में वृद्धि की दर भी बढ़ेगी। इसलिए, मशीनरी के उपयोग से फौरी तौर पर तो रोजगार में कमी हो सकती है, लेकिन इससे रोजगार की वृद्धि दर बढ़ेगी और इस तरह कुछ समय के बाद रोजगार, अन्यथा जितना रहा होता, उससे ज्यादा हो जाएगा।
बहरहाल, से नियम की तो कोई वैधता है ही नहीं। पूंजीवाद के अंतर्गत निवेश तो बाजार की वृद्धि की प्रत्याशा से ही तय होता है, न कि अधिशेष के परिमाण से। हां! अगर दोहन करने के लिए अछूते औपनिवेशिक बाजार उपलब्ध हों या फिर शासन ही सकल मांग में कमी पर काबू पाने के लिए सदा हस्तक्षेप करने के लिए तैयार हो, तो बात दूसरी है। अगर ऐतिहासिक रूप से प्रौद्योगिकी के बदलाव से पूंजी के महानगरों में आम बेरोजगारी पैदा नहीं हुई थी, तो इसके दो-दो कारण थे। पहला, यह कि दोहन करने के लिए उनके लिए औपनिवेशिक बाजार उपलब्ध थे और इसका नतीजा यह हुआ कि प्रौद्योगिकी में बदलाव से जो भी बेरोजगारी पैदा हो रही थी, उसका अधिकांश हिस्सा उद्योगों की ओर धकेल दिया गया, उन पर निरुद्योगीकरण थोपे जाने के रूप में।
दूसरे शब्दों में, पूंजी के महानगरों से बेरोजगारी का निर्यात हो रहा था। दूसरे, प्रौद्योगिकीय बदलाव से जो भी स्थानीय बेरोजगारी पूंजी के इन महानगरों में पैदा भी हुई, वह भी वहां जमी नहीं रही क्योंकि वहां से बेरोजगार दूसरे देशों के लिए पलायन कर गए। ‘‘लान्ग नाइन्टीन्थ सेंचुरी’’ (पहले विश्व युद्ध तक) के दौरान, पांच करोड़ यूरोपियों का श्वेत नयी बस्तियों के शीतोष्ण इलाकों जैसे कनाडा, अमरीका, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के लिए पलायन हुआ था। लेकिन, आज हालात उससे पूरी तरह से भिन्न हैं। न सिर्फ यह कि अब उपनिवेशवाद नहीं रह गया है बल्कि तीसरी दुनिया के बाजार भी, पूंजी के महानगरों में सकल मांग में आने वाली किसी भी कमी की काट करने के लिए नाकाफी हैं। इसी प्रकार, राज्य भी सकल मांग में कमी की काट नहीं कर सकता है क्योंकि वह न तो रोजकोषीय घाटे को एफआरबीएम कानून की सीमाओं से आगे ले जा सकता है और न ही अपने खर्चे में बढ़ोतरी करने के लिए, अमीरों पर कर बढ़ा सकता है। याद रहे कि राज्य अगर अपने खर्चों में बढ़ोतरी करने के लिए, मेहनतकशों पर कर बढ़ाने का सहारा लेता है, तो उससे सकल मांग में शायद ही कोई बढ़ोतरी हो सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि पूंजीवाद के संदर्भ में आज मशीनीकरण, जिसमें आर्टिफीयिल इंटेलीजेंस का उपयोग भी शामिल है, अपरिहार्य रूप से बहुत भारी बेरोजगारी पैदा करेगा।
अब जरा इस पर विचार कर लें कि इसके विपरीत, एक समाजवादी अर्थव्यवस्था में क्या होगा? समाजवादी अर्थव्यवस्था में कोई भी मशीनीकरण, जिसमें आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस का उपयोग भी शामिल है, काम के बोझिलपन को तो कमजोर करेगा, लेकिन रोजगार में, उत्पाद में तथा इसलिए मजदूरों के मजदूरी के हिस्से में कोई कमी नहीं करेगा क्योंकि समाजवादी व्यवस्था में ये सभी केंद्रीय रूप से निर्धारित होते हैं। इन दो व्यवस्थाओं के बीच का यह अंतर हमें बताता है कि क्यों आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस का हितकारी उपयोग तभी संभव है, जब पूंजीवाद का अतिक्रमण किया जा रहा हो।
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