देहरादून। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन एक बड़ी समस्या बना हुआ है। पलायन रूक नहीं पा रहा है। पलायन के कारण कई गांव जनविहीन हो चुके हैं और कुछ गांव जनविहीन होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस राज्य में आज भी पलायन बदस्तूर जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बेहतर जीवन-स्तर की तलाश में लोग लगातार पहाड़ों से मैदान की ओर जा रहे हैं। राज्य सरकार पलायन रोकने की दिशा में प्रयास कर रही है, लेकिन सरकार के ये प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं, जिस कारण पलायन रूक नहीं पा रहा है। इस समस्या के समाधान के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। उत्तराखंड में पलायन के प्रमुख कारणों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोजगार के अवसरों का अभाव, और कठिन भौगोलिक स्थितियां शामिल हैं। राज्य के कई दूर-दराज के गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं और बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की सुविधाएं भी नहीं हैं। रोजगार के अवसरों के अभाव में युवा वर्ग शहरों और अन्य राज्यों में नौकरी की तलाश में पलायन कर रहा है। पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, यदि इन बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं किया गया तो पहाड़ों में गांव खाली होने का सिलसिला जारी रहेगा।
पलायन आयोग ने सुझाव दिया है कि रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विकास कर गांवों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। राज्य सरकार ने इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, जिनमें स्थानीय कृषि उत्पादों का विपणन, पर्यटन को बढ़ावा, और छोटे उद्योगों का विकास शामिल है।
पलायन आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 3,07,310 लोग राज्य से पलायन कर चुके हैं, जिनमें से 28531 लोग स्थायी रूप से राज्य छोड़ चुके हैं। इस आंकड़े से स्पष्ट है कि पहाड़ों में आज भी रहने का संकट गहराता जा रहा है।गांवों की रौनक लौटाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता है। सरकार का उद्देश्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास कर वहां रहने योग्य वातावरण बनाया जाए। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राज्य सरकार गांवों में रोजगार के अवसर बढ़ाए और शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करे, तो पलायन को रोका जा सकता है। इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना भी एक कारगर उपाय साबित हो सकता है।
पलायन की चुनौती उत्तराखंड के विकास में एक बड़ी बाधा बनी हुई है। राज्य स्थापना के इतने वर्षों बाद भी पलायन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों की कमी से लोग अपने गांवों को छोड़ रहे हैं. हालांकि, सरकार इस मुद्दे को लेकर गंभीर है और कई योजनाओं पर काम कर रही है। यदि इन योजनाओं का सही तरीके से कार्यान्वयन किया जाए और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार तथा आधारभूत ढांचे का विकास किया जाए, तो उत्तराखंड के गांवों की रौनक लौट सकती है और पहाड़ों में बसावट को फिर से बढ़ावा मिल सकता है। जमीनी वास्तविकता को समझते हुए तंत्र को आगे कदम बढ़ाने होंगे। पलायन थामने के लिए विशेष अभियान चलाने की आवश्यकता है। इसके लिए बनने वाली नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों को लेकर प्रत्येक स्तर पर जिम्मेदारी, जवाबदेही तय होनी चाहिए। आर्थिकी को मजबूत करना होगा, आर्थिकी मजबूत होगी तो पलायन पर भी अंकुश लगेगा। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में इस दृष्टिकोण से देखें तो प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़ों की चमक सुकून देती है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। तीन मैदानी जिलों और शेष 10 पर्वतीय जिलों में प्रतिव्यक्ति आय में जमीन-आसमान का अंतर है। प्रत्येक जिले और विकासखंड की अपनी अलग परिस्थितियां हैं। मैदानी और पर्वतीय जिलों के मध्य आर्थिकी की खाई को पाटने के लिए ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिससे ग्रामीणों की आय के स्रोतों में वृद्धि हो। इस दिशा में पर्यटन, कृषि, मनरेगा, स्थानीय संसाधनों पर आधारित उद्यमों को बढ़ावा, गुणवत्तापूर्ण व रोजगारपरक शिक्षा, कौशल विकास, भूमि बंदोबस्त, पर्यटन-तीर्थाटन के लिए अलग-अलग नीति, स्वरोजगार में कदम बढ़ाने वालों को प्रोत्साहन, यहां के उत्पादों की ब्रांडिंग जैसे विषयों पर खास ध्यान केंद्रित करना होगा। इसके लिए गंभीरता से प्रयास हों तो पलायन थमेगा और गांवों की रौनक फिर से लौटेगी। मूलभूत सुविधाएं न होने से लोग पहाड़ छोड़कर मजबूरी में शहरी क्षेत्रों की तरफ आ रहे हैं और वहां भी स्थिति कम विकट नहीं है। ऐसे में गांवों में ढांचागत सुविधाओं के विकास के मद्देनजर जो भी योजनाएं बनें, वे गांव केंद्रित हों। साथ ही बजट का सदुपयोग हो। विकास के केंद्र में आमजन होना चाहिए। योजनाओं की मानीटरिंग की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। विशेषज्ञों का कहना है कि गांव खुशहाल व समृद्ध हों, इसके लिए विभागों की जिम्मेदारी व जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। नौकरशाही को जवाबदेह कैसे बनाया जाना है, इसके लिए नई सरकार को प्रभावी पहल करनी होगी। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में खेती की जोत बिखरी और छोटी हैं। ऐसे में पारंपरिक कृषि में वह बात नहीं रही। इसे देखते हुए नकदी फसलों पर फोकस करने के साथ ही कृषि उत्पादकता बढ़ाने को कदम उठाने होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि कृषि का बुनियादी ढांचा सुधारने के लिए कृषि और उसके रेखीय विभागों की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। खेती में यहां की परिस्थितियों के अनुसार नवोन्मेष और नवीनतम तकनीकी का समावेश होना चाहिए। सिंचाई के सीमित साधनों को देखते हुए टपक सिंचाई कारगर साबित हो सकती है। जरूरत हर स्तर पर प्रभावी पहल करने की है। मनरेगा को खेती से जोडऩा होगा। खेती-किसानी संवरेगी तो गांवों में समृद्धि व खुशहाली आएगी। जब खेती लाभकारी होगी तो पलायन भी थमेगा। पलायन का मुख्य कारण पहाड़ के गांवों में आजीविका व रोजगार के अवसर न होना है। बेहतर भविष्य की आस में लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। यह ठीक है कि गांव में सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती, लेकिन रोजगार, स्वरोजगार के अवसर तो सृजित किए जा सकते हैं। इसके लिए विभिन्न स्वरोजगारपरक योजनाओं का लाभ युवा उठा सकते हैं, लेकिन इसके लिए सबसे पहले कौशल विकास पर ध्यान देना होगा। छोटे-छोटे उद्यमों को बढ़ावा देने के साथ ही यहां की परिस्थितियों के अनुसार खाद्य प्रसंस्करण जैसी इकाइयां स्थापित हो सकती हैं। स्वरोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर सृजित हों, इसके तंत्र को अपनी जिम्मेदारी का ढंग से निर्वहन करना होगा। उद्यम स्थापना के मद्देनजर प्रक्रियागत खामियों को दूर कर इनका सरलीकरण करना होगा। यह भी देखने की जरूरत है कि युवा वर्ग क्या चाहता है, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप योजनाओं को धरातल पर मूर्त रूप दिया जाना चाहिए।