नई शिक्षा नीति का बेतुका विरोध, भाषा के नाम पर इसमें अड़ंगा वाला रवैया ठीक नहीं

जगमोहन सिंह राजपूत। देश में नई शिक्षा नीति चार वर्ष पहले लागू की गई थी। अब उसका तेजी से क्रियान्वयन हो रहा है, लेकिन तमिलनाडु जैसे कुछ राज्य अपने चुनावी हित के लिए भाषा के नाम पर इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं। उनका यह रवैया ठीक नहीं है, क्योंकि देश की शिक्षा व्यवस्था में समकक्षता तथा स्तरीय समानता लाना परम आवश्यक है। इसमें दो राय नहीं कि सभी राज्यों के अधिकारियों और विशेषज्ञों के सहयोग से बनी नई शिक्षा नीति देश की शिक्षा प्रणाली को भारत की संस्कृति और ज्ञान परंपरा से जोड़ने में पूरी तरह सक्षम है। यह ज्ञान-सृजन में भारत की अग्रणी भागीदारी भी लक्षित करती है। इसमें ऐसी भावी पीढ़ी तैयार करने की क्षमता है, जो भारत के प्रति समर्पित होगी और उसकी ‘विविधता में एकता’ को साकार कर विश्व के समक्ष उदाहरण बनाकर प्रस्तुत कर सकने की सामर्थ्य से परिपूर्ण होगी। उसमें भारतीय मूल्यों की समझ तो होगी ही, उसकी सराहना का भाव उसमें स्वतः ही अंतर्निहित हो जाएगा, लेकिन यह सब तभी संभव होगा, जब शिक्षा नीति का केवल राजनीति के कारण विरोध कर उसके क्रियान्वयन में बाधाएं उत्पन्न न की जाएं। हर सरकार और विशेष रूप से तमिलनाडु की स्टालिन सरकार को यह समझना चाहिए कि उसके निर्णय भारत के युवाओं की आशाओं और अपेक्षाओं पर सदैव खरे उतरें। स्टालिन सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि उसका आचरण भारत की नई पीढ़ी को प्रभावित करने वाला है। जनता के विश्वास पर खरा उतरना हर सरकार का नैतिक कर्तव्य है। ऐसा करने में पक्ष या विपक्ष में होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन दुख की बात है कि इस उत्तरदायित्व को अनेकानेक अवसरों पर भुला दिया जाता है।
अपेक्षा तो यही थी कि स्वतंत्र भारत में नेताओं की जो नई पीढ़ियां आएंगी और सत्ता संभालेंगी वे भी उन्हीं आदर्शों का पालन करेंगी जिन पर चलकर स्वतंत्रता मिली थी लेकिन अफसोस कि ऐसा करने वाले गिनती के लोग रह गए हैं। नई शिक्षा नीति हमारी इसमें मदद कर सकती है लेकिन तभी जब उसे अमल में लाने के लिए सभी अपना योगदान करें। दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, लेकिन यहां के हालिया विधानसभा चुनाव सारे देश के लिए आकर्षण और उत्सुकता का केंद्र बने रहे। विभिन्न दलों ने जिस ढंग से चुनाव प्रचार के समय एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए, जिस भाषा का उपयोग किया, उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में हो रहे शालीनता के इस हनन का बच्चों तथा युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
हमें याद रखना होगा कि देश के भविष्य के कर्णधारों की पीढ़ी की तैयारी केवल घरों और कक्षाओं में ही नहीं होती है, बल्कि उस पर समाज के विशिष्ट जनों के आचरण का भी प्रभाव पड़ता है। देश के चयनित प्रतिनिधियों और संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों का प्रभाव तो उन पर सबसे अधिक पड़ता है, क्योंकि सारे संचार माध्यम लगातार उनसे संबंधित वर्णन ही प्रचारित-प्रसारित करते रहते हैं। स्कूलों या महाविद्यालयों की कक्षाओं में नैतिकता, मानवीय मूल्यों की आवश्यकता पर अपने प्राध्यापक का प्रभावशाली भाषण सुनकर आया युवक जब संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखता है और पाता है कि वहां तो सब कुछ उससे विपरीत हो रहा है, जो उसे सिखाया-पढ़ाया गया है, तब उसकी वैचारिकता सही और गलत के बीच हिचकोले खाने लगती है।
ऐसी स्थिति में उस पर नकारात्मकता के हावी होने की ही आशंका अधिक बनती है। वह यदि अपने कुलपति या प्राचार्य की टेबल पर चढ़कर कागज फाड़कर उनके मुंह पर फेंक देता है, तब वह किसी आधिकारिक रूप से सम्मानित घोषित महानुभाव का ही अनुसरण कर रहा होता है। जब देश का युवा भारत की संसद में असंसदीय आचरण देखता है, जब वह संसद में अध्यक्ष और सभापति का असम्मान होते देखता है, तब उससे वह अनजाने और अनकहे ही बहुत कुछ अंतर्निहित कर लेता है।
संसद के सदन लगातार स्थगित होते रहें और विश्वविद्यालय में कक्षाओं के नियमित चलने के उपदेश दिए जाएं, तो इसे अनावश्यक प्रलाप ही कहा जाएगा। यदि संसद सही उदाहरण प्रस्तुत नहीं करेगी तो नगरपालिका के पार्षद से अपेक्षा क्या बेमानी नहीं होगी? कार्यकारी पीढ़ी का भावी पीढ़ी के प्रति सबसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व अनुकरणीय और शालीन आचरण प्रस्तुत करना होता है। नीतियां कितनी ही सजग, सतर्क और व्यावहारिक क्यों न हों, जब वे केवल कागजों में रह जाएं, तब समझना चाहिए कि उनके क्रियान्वयन के प्रति जिम्मेदार लोगों ने अपना काम ठीक से नहीं किया।
संविधान केवल चुनावी हार-जीत तक सीमित नहीं है। उसमें व्यावहारिक शालीनता, सेवा, अनुकरणीय आचरण, ईमानदारी तथा निष्कपटता भी अंतर्निहित हैं।
संविधान सभा की अंतिम बैठक में अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद तथा प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव आंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि भविष्य में संविधान के प्रविधानों की सार्थकता और उपयोगिता, उसका क्रियान्वयन करने के लिए चुने गए लोगों पर यानी उनकी प्रवृत्तियों, नीयत और नैतिकता पर निर्भर करेगी। अपेक्षा तो यही थी कि स्वतंत्र भारत में नेताओं की जो नई पीढ़ियां आएंगी और सत्ता संभालेंगी वे भी उन्हीं आदर्शों का पालन करेंगी जिन पर चलकर स्वतंत्रता मिली थी, लेकिन अफसोस कि ऐसा करने वाले गिनती के लोग रह गए हैं। नई शिक्षा नीति हमारी इसमें मदद कर सकती है, लेकिन तभी जब उसे अमल में लाने के लिए सभी अपना योगदान करें।