-विरासत की महफिल’ में आज की संध्या रही मशहूर सांस्कृतिक कलाकार ‘मंजरी चतुर्वेदी’ के नाम
…अव्वल शबो बज़्म की रौनक शम्मा भी थी परवाना भी……
-सुबह के होते-होते आखिर खत्म हुआ अफसाना भी……
देहरादून, गढ़ संवेदना न्यूज: विरासत महफिल में तवायफ की कहानी को लेकर यही सब कुछ कहते हुए बेरहम पुरुषों को आईना दिखाया गया I विरासत के मंच पर शाबू बजरंगी रौनक शर्मा की थी, मंजरी चतुर्वेदी द्वारा विरासत में नवाब जान की कहानी को बयां किया गया, जिसमें 1857 से पहले की कहानी है जब पुरानी दिल्ली में तवायफ गजल, मुजरा एवं नृत्य कर लोगों का मनोरंजन किया करती थीं। तब उन दिनों लोग महिलाओं को सिर्फ एक तवायफ की नजर से देखते थे, जिससे लोगों का मन बहलाता रहता था लेकिन कभी भी उनके द्वारा प्रस्तुत की गई गजलें, मुजरा एवं नृत्य को कला का स्थान नहीं प्राप्त हुआ। वह कहती हैं कला कभी भी स्त्री और पुरुषों के बीच में अंतर नहीं करता l मंजरी चतुर्वेदी कहती है कि कला को कभी भी लिंग के अनुसार विभाजित नहीं करना चाहिए I मैं मानती हूं कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है, परंतु उन्होंने महिलाओं को कभी भी एक कलाकार के रूप में सामने आने नहीं दिया है। आज के इस दौर में जो भी आप नृत्य, कला संगीत, मुजरा सुनते और देखते हैं वह सब उन्हीं तवायफों द्वारा बचा के रखी गई है। मैं 15 साल से यह प्रयास कर रही हूं कि उन दिनों में प्रस्तुत होने वाले सभी कलाओं को जीवित रखा जाए और हमारे आने वाले भविष्य के युवाओं को यह पता होना चाहिए कि कला को संजोकर रखने में तवायफ का सबसे बड़ा योगदान है। विरासत की महफिल में आज की सांस्कृतिक संध्या के दौरान दी गई इस प्रस्तुति में मंजरी चतुर्वेदी के साथ एकांत कॉल ने प्रस्तुति देकर सभी के दिलों दिमाग पर अपनी अमित छाप छोड़ दी I मशहूर कलाकार एकांत कॉल ने मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमिका पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक की गलियों में ‘तवायफ’ की अदाकारी एवं खूबसूरती को पल-पल, हर-दिन, और हर शाम ‘दिलो-दिमाग’ पर लेते हुए गुज़ारने का किरदार विरासत के मंच पर बखूबी निभाया I
‘विरासत की महफिल’ में आज की संध्या रही मशहूर सांस्कृतिक कलाकार ‘मंजरी चतुर्वेदी’ के नाम……
सभी के दिलों को छू लेने वाले कलाकार मंजरी चतुर्वेदी की प्रस्तुति आज की विरासत में बेहद लोकप्रिय रही I मंजरी चतुर्वेदी एक विद्वान हैं और उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से पर्यावरण विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की है। उन्होंने प्रसिद्ध यूपी संगीत नाटक अकादमी के कथक केंद्र में कथक नृत्य की पेशेवर श्रेणी में प्रशिक्षण लिया। उन्होंने शुरुआत में अर्जुन मिश्रा के मार्गदर्शन में लखनऊ घराने के कथक में प्रशिक्षण लिया। उन्होंने प्रोतिमा बेदी के नृत्यग्राम में कलानिधि नारायण के अधीन अभिनय का भी अध्ययन किया। उन्होंने पंजाबी सूफी परंपराओं में बाबा बुल्लेशाह के योगदान का बारीकी से अध्ययन किया। महान सूफी संत मौलाना रूमी और अमीर खुसरो ने भी उन्हें प्रभावित किया और उनके नृत्य में रचनात्मक मोड़ लाया। चतुर्वेदी ने अपने करियर की शुरुआत एक कथक नर्तकी के रूप में की थी। वह राजस्थान, कश्मीर, अवध, पंजाब, तुर्कमेनिस्तान, ईरान और क्राइगिस्तान के संगीत जैसे विविध रूपों के साथ एक इंटरफेस बनाने का प्रयास करती हैं। वह विशेष रूप से सूफी रहस्यवाद की ओर आकर्षित हैं और उन्होंने अपने प्रदर्शनों में ऐसे आंदोलनों को शामिल करने का प्रयास किया है जो चक्करदार दरवेशों की ध्यान प्रथाओं की याद दिलाते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी नृत्य शैली का नाम सूफी कथक रखा है। उन्होंने दुनिया भर के 22 से ज़्यादा देशों में 300 से ज़्यादा संगीत कार्यक्रमों में बेहद शानदार प्रस्तुति दी है। पिछले दो दशकों में मंजरी जी ने पूरी दुनिया में संगीत कार्यक्रम पेश किए हैं I पिछले दशक में मंजरी चतुर्वेदी ने ग्लोबल फ्यूजन के रूप में कई अंतरराष्ट्रीय कलाकारों के साथ मिलकर काम किया है और उनके साथ प्रस्तुति दी है I कोर्टेसन प्रोजेक्ट मंजरी चतुर्वेदी की एक शानदार पहल है जो वेश्याओं, तवायफ़ों से जुड़े सामाजिक कलंक को दूर करने और उन्हें बेहतरीन कलाकार के रूप में सम्मान और स्थान दिलाने के लिए समर्पित है। “द लॉस्ट सॉन्ग्स एंड डांस ऑफ़ कोर्टेसन्स-आर्ट्स में लैंगिक भेदभाव और यह भविष्य के लिए कला को कैसे आकार देता है” एक ऐसी परियोजना है जो अविश्वसनीय महिला कलाकारों के जीवन और कहानियों को संग्रहित और प्रलेखित करती है। यह नृत्य और उन महिलाओं की कहानियों को जीवंत करता है, जिन्हें समाज द्वारा संगीत और नृत्य दोनों में प्रदर्शन करने के लिए कलंकित किया गया था और लिंग भेदभाव से ग्रस्त दुर्भाग्यपूर्ण समाज में वे प्रदर्शन कलाओं के दस्तावेज़ीकरण इतिहास का हिस्सा भी नहीं थीं। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम उनकी शानदार कहानियाँ दुनिया को बताएँ और उनका नृत्य दिखाएँ। अपर्याप्त शोध और दस्तावेज़ीकरण के मद्देनज़र, कई मिथक और गलत धारणाएँ वेश्याओं के जीवन और इतिहास को ढक लेती हैं। आज ‘वेश्या’ और ‘वेश्या’ शब्दों का परस्पर उपयोग होना असामान्य नहीं है। यह सबसे बड़ी गलती है जो लगातार की जाती रही है। लैंगिक असमानता पर आधारित इतिहास के एक बेहद अनुचित रिकॉर्ड में इन कलाओं को करने वाले पुरुषों को “उस्ताद” (मास्टर) के रूप में सम्मानित किया जाता है, जबकि उसी कला को करने वाली महिलाएँ “नाच लड़कियाँ” (नृत्य करने वाली लड़कियाँ) बन जाती हैं। भूतपूर्व पुरुष दरबारी नर्तकों की वर्तमान पीढ़ियाँ शाही दरबारों में नर्तकियों के रूप में अपने पूर्वजों की महानता का बखान करते हुए गर्व की भावना के साथ पारिवारिक वंश के बारे में बात करती हैं।
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