लोकायुक्त की नियुक्ति का मसला लटका

देहरादून। उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण लोकायुक्त की नियुक्ति का मसला वर्षों से लटका हुआ है। लोकायुक्त मामले में राजनीतिक दलों में सन्नाटा सा ही नजर आ रहा है। राज्य की मौजूदा धामी सरकार वैसे तो तमाम नए कानूनों को लाकर खुद की पीठ थपथपा रही है, लेकिन लोकायुक्त की बात आते ही सब ठंडे बस्ते में जाता हुआ नजर आता है। राज्य सरकार नकल रोधी कानून से लेकर धर्मांतरण और यूनिफॉर्म सिविल कोड तक पर बेहद सक्रिय नजर आती है। पिछले एक साल में धामी सरकार ने ऐसे ही कई विवादित और बड़े फैसलों पर अपनी मुहर लगाई है, लेकिन लोकायुक्त जैसे गंभीर मामले पर सरकार एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी है। वैसे यह पहली सरकार नहीं है जिसने लोकायुक्त पर अपनी खामोशी बरती है, इससे पहले त्रिवेंद्र सरकार और हरीश रावत सरकार भी लोकायुक्त के मामले पर कोई खास पहल नही कर पाये।
शायद यही कारण है कि लोकायुक्त को लटकाने की यह परंपरा आगे की सरकारें भी जारी रखे हुए हैं। वह बात अलग है कि विपक्ष में आने के बाद लोकायुक्त गठन पर राजनीतिक दलों के नेताओं के कंठ फिर खुल जाते हैं और वे सत्ताधारी दल पर इसे लेकर हमलावर भी नजर आते हैं। 2017 के चुनाव से पहले तो भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में भी 100 दिन के भीतर लोकायुक्त लाने का वादा तक किया था, लेकिन अब तक भी भाजपा सरकार लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर पाई। वर्ष 2011 में तत्कालीन भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने पहली बार लोकायुक्त विधेयक विधानसभा में पारित किया था। इसके तहत मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अफसर तक लोकायुक्त के दायरे में लाने की कोशिश की गई। लोकायुक्त को राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिली, जिसके बाद प्रदेश में सत्ता बदल गई। इसके बाद विजय बहुगुणा ने विधानसभा में नया लोकायुक्त विधेयक 2014 पारित करवाया। 2014 का यह विधेयक भुवन चंद्र खंडूड़ी के समय आए विधेयक से कमजोर बताया गया। इस विधेयक में मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के दायरे से बाहर रखा गया। विजय बहुगुणा सरकार वाले लोकायुक्त विधेयक को भी लागू नहीं कराया जा सका। त्रिवेंद्र सरकार में 2017 के दौरान विधानसभा में विधेयक लाया गया था, तब से यह विधेयक विधानसभा में अटका हुआ है।
वर्तमान में राज्य की सभी जांच एजेंसी सरकार के अधीन हैं, जिसका पूरा नियंत्रण राज्य के राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में रहता है। राज्य में कोई भी ऐसी जांच एजेंसी नहीं है जिसके पास यह अधिकार हो कि वह बिना शासन की पूर्वानुमति के किसी राजपत्रित अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुकदमा पंजीकृत कर सके या जांच को किसी न्यायालय में चार्जशीट दाखिल कर सके। वर्तमान व्यवस्था में राज्य सरकार के प्रभाव व हस्तक्षेप से मुक्त ऐसी कोई भी जांच एजेंसी नहीं है जो किसी भी जनप्रतिनिधि या किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच और कार्रवाई कर सकें। विजिलेंस विभाग भी राज्य पुलिस का ही हिस्सा है, जिसका सम्पूर्ण नियंत्रण पुलिस मुख्यालय, सतर्कता विभाग या मुख्यमंत्री कार्यालय के पास ही रहता है। विजिलेंस का भारतीय प्रशासनिक सेवा, राज्य प्रशासनिक सेवा के किसी अधिकारी या किसी शीर्ष राजनैतिक व्यक्ति पर कार्यवाही का कोई इतिहास नहीं है। जांच एजेंसी को किन-किन बिंदुओं पर जांच करनी है, जांच एजेंसी में नियुक्ति व स्थानांतरण सहित सभी प्रशासनिक अधिकार, जांच समिति का बजट, चार्जशीट दाखिल करने की स्वीकृति देना, अभियोग दर्ज करने की स्वीकृति देना, जांच की पूरी मॉनिटरिंग, जांच अधिकारियों को सभी प्रकार के निर्देश देना, जांच की समीक्षा करना आदि पूरा नियंत्रण राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में रहता है। जांच एजेंसियों में राज्य सरकार के नियंत्रण वाले कर्मचारी और अधिकारी ही जांच अधिकारी होते हैं। राज्य के अब तक के इतिहास में किसी शीर्ष राजनैतिक या प्रशासनिक व्यक्ति की जांच और कार्रवाई का नहीं होना इसका स्पष्ट प्रमाण है। प्रतियोगी परीक्षा में हुई धांधली, खनन भूमि सहित प्रशासनिक स्तर पर गंभीर भ्रष्टाचार के अनगिनत प्रकरणों में, जनप्रतिनिधियों व लोकसेवकों की अर्जित अकूल संपत्ति की कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया।

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