अनुशासन और करुणा के संगम-स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी 

डॉ. मंजुलता गुप्ता:
“आत्म-संयम के सिंह बनकर संसार में विचरण करो। इंद्रिय-दुर्बलताओं के मेंढकों की लातें खाकर इधर से उधर लुढ़कते मत रहो।“ स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी, एक महान ईश्वर प्राप्त संत, के मार्गदर्शक शब्दों को सँजोकर, उनके आविर्भाव दिवस, 10 मई के शुभ अवसर पर कोटि-कोटि नमन करने की कामना से, आइए उनके जीवन-वृत के बारे में जानकर धन्य होएँ।
  बंगाल के एक साधारण से आश्रम में वास करने वाले स्वामी श्रीयुक्तेश्वर, का जन्म श्रीरामपुर, कलकत्ता में 10 मई 1855 को एक धनवान्‌ व्यापारी परिवार में हुआ था। इनका बचपन का नाम प्रियनाथ कड़ार था। स्कूली पढ़ाई इन्हें बहुत उथली और धीमी प्रतीत होती थी। उनका कहना था कि “ज्ञान आँखों से नहीं, अणु परमाणुओं से आत्मसात्‌ किया जाता है। जब सत्य का तुम्हारा ज्ञान केवल तुम्हारे मस्तिष्क में न रहकर तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्व में समा जाएगा तभी तुम उसके अर्थ के बारे में कुछ कह सकते हो।“ ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए पुस्तकीय ज्ञान की आवश्यकता को वे नकारते थे।
  उनमें अपने शिष्यों को रूपांतरित करने की ऐसी शक्ति विद्यमान थी, जो उन्हें भी अपने गुरु के समान एक ईश्वर प्राप्त संत बना सकती थी। अपने एक परमप्रिय शिष्य मुकुंद को दस साल का कठोर प्रशिक्षण देकर परमहंस योगानन्द में परिवर्तित कर मानव जाति के कल्याण हेतु उन्हे योगदा योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना के लिए प्रेरित किया, जिसका सदस्य बन हर ईश्वर प्रेमी भक्त, ईश्वर को पाने के लिए ध्यान की उच्चतम प्रविधि, क्रियायोग को सीख सकता है।
  वे पूर्व एवं पश्चिम के संगम पर बल देते थे। वे पूर्व के आध्यात्मिक तेजोमंडल का निर्माण करने वाले नियमों के पुजारी होने के साथ साथ पश्चिम के प्रगतिशील युक्तिपूर्ण तरीकों के प्रशंसक थे। उनकी इसी विशेषता के कारण मृत्युंजय महावतार बाबाजी ने कुम्भ के मेले में उन्हें पूर्व व पश्चिम की एकता पर आधारित एक पुस्तक की रचना करने के लिए चुना। बाबाजी के आदेश पर उन्होने “कैवल्य दर्शनम” (Holy Science) लिखी थी।
  उनके शिष्य योगानन्दजी अपनी विशिष्ट कृति ‘योगी कथामृत,’  मन और आत्मा के द्वार खोल देने वाला एक गौरव ग्रंथ, में बताते हैं,” मैं जब भी अपने गुरु के चरणों पर माथा टेकता था, तो मेरा सम्पूर्ण शरीर जैसे एक मुक्तिप्रदायक तेज से भर जाता था।“ चेतना की इतनी उन्नत अवस्था के धनी होते हुए भी वे अत्यंत कोमल हृदय और विनम्र थे।
  योगानन्दजी अपनी इसी पुस्तक में एक अन्य स्थान पर लिखते हैं, “कभी-कभी कोई आदमी आकर अपनी किसी काल्पनिक शिकायत पर युक्तेश्वरजी को भला-बुरा कह देता। मेरे स्थितप्रज्ञ गुरु नम्रता से उसके द्वारा की जा रही अपनी निंदा सुनते और अन्दर ही अन्दर अपना विश्लेषण करते जाते, यह देखने के लिए कि वह जो दोषारोपण कर रहा है उसमें कहीं कोई सत्य का अंश तो नहीं!” यह प्रसंग निश्चय ही हमें भी आत्म-विश्लेषण की शिक्षा प्रदान करता है।
  श्रीयुक्तेश्वरजी को किसी भी प्राणी जैसे बाघ, शेर या विषैले साँपों से कोई भय नहीं था। उसका एक कारण था, उनका प्राणी जगत्‌ से प्रेम। उनका कहना था कि कोई जीव अपनी रक्षा हेतु ही मानव पर वार करता है, यदि मानव, प्रेमपूर्ण हृदय से उस जीव को आश्वस्त कर दे कि वह उसका कोई अहित नहीं करेगा तो वह हिंसक नहीं होगा। अनंतब्रह्म की गहन अनुभूति से परिपूर्ण इस ईश्वरप्रेमी के विषय में अधिक जानकारी के लिए yssi.org पर जाएँ। ऑनलाइन अथवा योगानन्दजी द्वारा स्थापित विभिन्न केन्द्रों एवं आश्रमों पर उनके जन्मोत्सव में भाग लेकर अपने परम सौभाग्य को आमंत्रित करें!

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