एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं

एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है। आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। यानी मूल विचार यह है कि संविधान में संशोधन के जरिये एक साथ चुनाव की व्यवस्था बन सके और इसे चुनाव प्रक्रिया का स्थायी गुण बनाया जा सके। एक साथ चुनाव कराने की बात सैद्धांतिक तौर पर समझदारी भरी लगती है और इसकी कई वजह हैं। अगर एक साथ चुनाव होंगे तो सत्ताधारी दल तथा विपक्षी दल दोनों नीतिगत मामलों पर अगले आम चुनाव होने तक ठोस तरीके से काम करेंगे। इससे अनिश्चितता कम होगी और वृद्धि को गति प्रदान करने में मदद मिलेगी। पैनल ने जो तकनीकी काम प्रस्तुत किया है वह दिखाता है कि वृद्धि, मुद्रास्फीति, निवेश और सार्वजनिक व्यय के संदर्भ में एक साथ चुनाव कराने से लाभ होगा। अलग-अलग समय पर चुनाव कराने की प्रत्यक्ष राजकोषीय कीमत बहुत अधिक नहीं है लेकिन इससे उत्पन्न नीतिगत अस्थिरता शासन को प्रभावित करती है। ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’’ की संभावनाओं और तौर तरीकों पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है।
यह विचार बेहतर है लेकिन असली चुनौती है एक ऐसी प्रणाली तैयार करना जहां एक साथ चुनाव कराए जा सकें। ऐसा इसलिए कि लोक सभा या राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव कई बार भिन्न-भिन्न वजहों से अलग-अलग समय पर हो सकते हैं। पैनल ने इस संदर्भ में यह अनुशंसा की है कि सबसे पहले राज्यों की विधान सभाओं और लोक सभा के चुनावों को सुसंगत बनाया जाना चाहिए। स्थानीय निकायों के चुनाव पहले चरण के 100 दिन के भीतर कराये जा सकते हैं। ऐसा करने के लिए समिति ने कहा है कि आम चुनाव के बाद लोक सभा की पहली बैठक एक नियत तिथि को होनी चाहिए। सभी राज्यों की विधान सभाओं कार्यकाल, इस नियत तिथि के बाद और लोक सभा के पूर्ण कार्यकाल की समाप्ति के पहले गठित सभी राज्य विधान सभाओं का कार्यकाल केवल लोक सभा के लिए अगले आम चुनाव की अवधि तक होगा। त्रिशंकु सदन या ऐसी किसी भी स्थिति में लोक सभा का अगला चुनाव केवल पिछले सदन के शेष कार्यकाल के लिए होगा। राज्यों की विधान सभाओं के नए चुनावों के मामले में नई विधान सभा केवल तब तक काम करेगी जब तक कि लोक सभा का कार्यकाल समाप्त नहीं हो जाता। सुझाई गई व्यवस्था और इसके लिए संवैधानिक प्रावधान जहां इसकी सुसंगतता सुनिश्चित करेंगे, वहीं इससे दूसरी दिक्कतें आरंभ हो जाएंगी। अगर सरकार लोक सभा का कार्यकाल समाप्त होने के करीब एक साल पहले विश्वास मत हार जाती है, तो विपक्ष अविश्वास मत लाना ही नहीं चाहेगा। ऐसी स्थिति में सरकार बनी रहेगी लेकिन वह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करेगी। यह लोकतंत्र के हित में नहीं होगा। ऐसे में यह बात अहम है कि अनुशंसाओं को केवल व्यापक राजनीतिक सहमति के साथ ही आगे बढ़ाया जाए। यह अहम है क्योंकि अधिकांश राष्ट्रीय दल इस विचार के पक्ष में नहीं हैं। इस विचार के समर्थकों और विरोधियों के अपने-अपने तर्क हैैं। इस संदर्भ में 1951-52 में हुए भारत के पहले आम चुनाव का उदाहरण भी देश के समक्ष है जिसमें न केवल लोकसभा बल्कि राज्य की विधानसभाओं, विधान परिषदों, राज्यसभा और यहां तक कि उसी दौरान राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनाव भी सम्पन्न कराए गए थे। यह सही है कि वर्ष 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए। लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल वैसी नहीं हैं। एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता पर सवाल उठ रहे हैं कि यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो पहले चुनाव में उन विधानसभाओं का क्या होगा जिनका निर्धारित कार्यकाल या तो चुनाव कराने की प्रस्तावित तिथि से पहले या बाद में समाप्त होता है। यह भी सवाल है कि क्या लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल तय होना चाहिए? यदि कार्यकाल के बीच में उपचुनाव की आवश्यकता पड़ी तो क्या होगा? यदि सत्तारूढ़ दल या गठबंधन लोकसभा या विधानसभाओं में कार्यकाल के बीच बहुमत खो देता है तो क्या होगा?  चूंकि परिस्थितियां बदलती रहती हैं और एक धारणा को पकड़कर बैठे रहने से जड़ता आती है, इसलिए नई सभावनाओं की तलाश के रास्ते सदैव खुले रहने ही चाहिए। लोकसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक सभी चुनावों पर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है, जिसे मतदान की अवधि घटाकर 3 से 5 लाख करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता है। जहां 2024 में लोकसभा चुनाव पर 1.20 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, वहीं सभी विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 3 लाख करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं। एक साथ चुनाव के पक्ष में यह भी तर्क है कि बार-बार चुनाव सरकारी मशीनरी के सामान्य कामकाज को बाधित करते हैं। एक साथ चुनाव शासन के लिए अधिक स्थिर वातावरण प्रदान करते हैं, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों को लगातार चुनाव प्रचार की स्थिति में रहने के बजाय अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलता है। इससे मतदाताओं में अधिक उत्साह हो सकता है क्योंकि उन्हें कई बार के बजाय कुछ वर्षों में केवल एक बार चुनाव में जाने की आवश्यकता होगी। इससे चुनाव प्रचार की अवधि कम हो सकती है, जो भारत में काफी लंबी होती है। ऐसा भी मत है कि चुनावों में धन और बाहुबल के प्रभाव को सीमित किया जा सकता है। तर्क यह भी है कि इससे बेहतर नीति निरंतरता और दीर्घकालिक योजना की संभावना है, क्योंकि सरकारों के पास अधिक स्थिर कार्यकाल होंगे। बार-बार चुनावों के कारण चुनाव वाले राज्य या चुनाव वाले क्षेत्र में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है जिस कारण सरकारों के संपूर्ण विकास कार्यक्रम और गतिविधियां रुक जाती हैं। राष्ट्रव्यापी चर्चाओं के बावजूद 1967 के बाद पटरी से उतरी हुई एक साथ चुनाव की गाड़ी पुनः पटरी पर नहीं लौट सकी। स्वयं भारत निर्वाचन आयोग ने महसूस किया कि एक साथ चुनाव कराने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) मशीनों की बड़े पैमाने पर खरीद की आवश्यकता होगी। एक साथ चुनाव कराने के लिए आयोग को उम्मीद है कि ईवीएम और वीवीपैट की खरीद के लिए आज की दर पर कुल 9284.15 करोड़ रुपये की जरूरत होगी। मशीनों को हर पंद्रह साल में बदलने की भी आवश्यकता होगी जिस पर फिर से व्यय करना होगा। इसके अलावा, इन मशीनों की भंडारण लागत में वृद्धि होगी। देेखा जाए तो एक साथ चुनाव लागू करने के लिए सबसे बड़ी अड़चन संवैधानिक है जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं का निर्धारित कार्यकाल सबसे बड़ा बाधक है, इसलिए सबसे पहले मौजूदा प्रावधानों में महत्वपूर्ण बदलाव की आवश्यकता होगी। एक साथ चुनाव के लिए विधानसभाओं के कार्यकाल लोकसभा के र्काकाल के अनुरूप बनाने होंगे और इसके लिए किसी का कार्यकाल घटाना और किसी का बढ़ाना पड़ सकता है जो कि संविधान संशोधन के बिना संभव नहीं है।

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