देहरादून। उत्तराखंड में संस्कृत शिक्षा अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है। राज्य में संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्राप्त है, लेकिन उसके बावजूद इस भाषा के उन्नयन की दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। उत्तराखंड में संस्कृत विद्यालय व महाविद्यालय बदहाल हालत में हैं, कहीं शिक्षकों की कमी बनी हुई है तो कहीं विद्यालय भवन जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। ज्यादातर विद्यालय व महाविद्यालय एक या दो कमरों में संचालित हो रहे हैं। सरकार संस्कृत के उन्नयन व बढ़ावा देने के बड़े-बड़े दावे करती है लेकिन संस्कृत विद्यालयों व महाविद्यालयों की कोई सुध नहीं ले रही है। संस्कृत सिर्फ भाषा न होकर संस्कृति को समृद्ध करने का सशक्त माध्यम है। लेकिन राज्य में संस्कृत विद्यालयों व महाविद्यालयों की दशा दयनीय है। आधुनिक सुविधाएं तो दूर मजबूत कमरे, पेयजल, शौचालय और पर्याप्त संख्या में शिक्षकों तक की तैनाती नहीं है।
संस्कृत शिक्षा को जो शिक्षक बचाए हुए हैं, उन्हें वेतन के नाम पर सामान्य मजदूरों से कम मानदेय दिया जा रहा है। ठेके पर काम करने वाले इन्हीं प्रबंधकीय शिक्षकों की वजह से राज्य में संस्कृत शिक्षा जिंदा है। संस्कृत महाविद्यालयों में प्रथमा (कक्षा छह) से लेकर आचार्य (एमए) तक की शिक्षा दी जाती है। इस हिसाब से कम से कम एक विद्यालय में 25 से 30 शिक्षकों के पद होने चाहिये। इसके उलट पूर्व से यहां छात्र संख्या के आधार पर पांच-पांच, छह-छह पद स्वीकृत हैं। संस्कृत शिक्षकों के अधिकांश पद रिक्त पडे़ हैं। काफी समय से इन विद्यालय-महाविद्यालयों में नियुक्त नहीं हुई। कई शिक्षक सेवानिवृत्त हो चुके हैं। कुछ शिक्षक माध्यमिक शिक्षा से प्रतिनियुक्ति पर यहां भेजे गए। बाकी काम ठेकेदारी प्रथा के आधार पर किया जा रहा है। इसके तहत 219 प्रबंधकीय शिक्षक सेवाएं दे रहे हैं। संस्कृत विद्यालयों व महाविद्यालयों के शिक्षकों को बेहद अल्प मानदेय दिया जा रहा है। राज्य में 93 संस्कृत विद्यालय व महाविद्यालय हैं। इनमें सैकड़ों छात्र अध्ययन कर रहे हैं। शिक्षक व संसाधन मुहैया कराने में सरकारी उपेक्षा के कारण विद्यालयों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। इनमें से कुछ राजकीय संस्कृत विद्यालय तो बंद होने के कगार पर हैं।
उत्तराखंड में संस्कृत भाषा को बढ़ावा देने की बात होती रहती है, लेकिन इन दयनीय संस्कृत विद्यालयों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिस कारण इनकी हालत में सुधार नहीं हो पा रहा है। राज्य में अधिकांश संस्कृत विद्यालय व महाविद्यालय शिक्षकों की बाट जोह रहे हैं, जिससे छात्रों को अपने भविष्य की चिंता सता रही है। संस्कृत भाषा को लेकर राजनीतिक मंचों पर बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती है लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है। अधिकतर संस्कृत विद्यालय जर्जर हालत में हैं, जहां छात्रों के बैठने के लिए जगह नहीं है। जर्जर विद्यालय भवन के कारण शिक्षक व छात्र छत के नीचे बैठने से घबराते हैं। कई विद्यालय शिक्षक विहीन हैं और कुछ बंदी के कगार पर हैं। शिक्षक इस आस ममें पढ़ाने को मजबूर हैं कि जब सरकार नियुक्ति करेगी तो उन्हें मौका मिलेगा। प्रदेश में संस्कृत के प्रचार और प्रसार के लिए उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना वर्ष 2005 में की गई थी। लेकिन यह विश्वविद्यालय भी आरंभ से हीउपेक्षा का शिकार रहा। यहां भी शिक्षकों की कमी बनी हुई है।
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