भारतीय राजनीति में अस्वीकार्य शब्दों का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से देश की राजनीति में जिस प्रकार के अस्वीकार्य शब्दों का प्रयोग हो रहा है, वह भारत के किसी भी स्वाभिमानी नागरिक को शर्मिंदा करता है। एक संस्कारवान समाज में कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा किस सीमा तक संवेदनशीलता, शालीनता और पारस्परिकता का विध्वंस कर सकती है, वह देश दिन-प्रतिदिन देख रहा है। सिद्धांत और नैतिकता आधारित राजनीति की चर्चा तक पर लगभग पूर्ण विराम लग चुका है। इसे लेकर अधिकांश संवेदनशील नागरिक अपने-अपने ढंग से चिंतित हैं। इस समय चुनाव जीतने की पहली सीढ़ी अकूत धनराशि बन गई है, भले ही वह कैसे भी कमाई गई हो। पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री, जैसे अनेकानेक संवैधानिक पदों पर रह चुके नेताओं की संख्या लाखों में तो होगी ही। सत्ता में एक बार पहुंचकर पदच्युत होना इनमें से अधिकांश के लिए बर्दाश्त के बाहर होता है, क्योंकि वे वहां केवल स्व-सेवा के लिए पहुंचे थे, जन सेवा के लिए नहीं। कुछ तो मानते हैं कि अपने परिवार के स्वतंत्रता संग्राम में ‘अप्रतिम’ योगदान के एवज में सत्ता के शिखर पर बने रहने का ‘दैविक अधिकार’ उन्हें ही प्राप्त है। देश के हर कोने में इस समय कितने ही ऐसे लोग सत्ता में पुनः वापसी के लिए हर प्रकार से प्रयास कर रहे हैं।
भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को दो शब्दों में समेटा जा सकता है-व्यग्रता में उग्रता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बनकर उभरे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। अन्ना हजारे के नाम पर मिली प्रसिद्धि के बाद उन्हें अपने सारे वादे भूल जाने में कोई समय नहीं लगा। उनमें सत्ता प्राप्ति की कामना इस तेजी से उभरी कि 2014 में ही वह वाराणसी में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ आए। अभी भी वह हर राज्य में भावी मुख्यमंत्री की घोषणा जिस अंदाज से करते हैं, वह उनकी बढ़ती व्यग्रता को ही दर्शाता है। आजकल उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों पर ध्यान केंद्रित कर दिया है। कई वर्षों से उन्होंने कट्टर ईमानदारी शब्द का जमकर उपयोग किया। वह कई बार अपने मंत्रियों के संबंध में यह भी कह चुके हैं कि ‘मैंने पेपर देख लिए हैं, कुछ भी गलत नहीं है, व्यक्ति तो कट्टर ईमानदार है, बस बदले की राजनीति का शिकार है।’ वह आइआइटी में पढ़े हैं, आइआरएस रहे हैं और मानते हैं कि इतनी ऊंची डिग्री और विशिष्टता प्राप्त करने के पश्चात उनका कहा गया हर वाक्य ब्रह्म वाक्य माना जाना कहिए। उनके एक मंत्री फर्जी डिग्री प्रकरण में दोषी पाए गए थे। उसके लिए देश से क्षमा किसी ने नहीं मांगी। वह भी कट्टर ईमानदार की श्रेणी में ही रखे गए थे।
लगता है अरविंद केजरीवाल फर्जी-डिग्री प्रकरण के उस कष्ट को भूल नहीं पाए हैं। उन्हें लगता है कि यदि नरेन्द्र मोदी की डिग्री किसी तरह फर्जी घोषित हो जाए तो इसका व्यापक राजनीतिक लाभ संभव है। मनुष्य अपने कष्ट के निवारण के लिए क्या-क्या सुनहरी संकल्पनाएं नहीं करता है। अपनी लगातार बढ़ती आंतरिक पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री को बिना पढ़ा-लिखा घोषित करना उचित माना। इसे बार-बार दोहराने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। केजरीवाल समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस तरह वह उन अनगिनत लोगों का अपमान कर रहे, जो उनके अनुसार अनपढ़ माने जाने चाहिए। वह भूल गए हैं कि इस देश की विकास यात्रा में सबसे बड़ा योगदान तो उन अनपढ़ किसानों का है, जिन्हें उनके जैसे लोग रूढ़िवादी कहते हैं। कृषि में नए तरीके अपनाकर देश की भूख को मिटाने में उन किसानों का अहम योगदान है। दिल्ली में एक और नवाचार लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। जब मुख्यमंत्री को मनमाना बोलने की इच्छा होती है-जिस पर कोई केस नहीं हो सकता हो तो तुरंत ही एक दिन का विधानसभा सत्र बुला लिया जाता है। उन्हें उससे अधिक अनुशासित और आज्ञाकारी श्रोता और कहां मिल सकते हैं। अपनी पढ़े-लिखे वाली संकल्पना की उड़ान ने मुख्यमंत्री को इतना विचलित कर दिया है कि उन्हें जब एक कहानी सुनाने की तलब लगी तो तुरंत ही विधानसभा का सत्र आहूत कर लिया गया। विधानसभा में अनपढ़ और पढ़े-लिखे के अंतर की कहानी पूरे मनोयोग से सुनाई गई। नरेन्द्र मोदी की दोनों डिग्रियां सभी के देखने के लिए वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। नरेन्द्र मोदी ने स्वयं कहा है कि उन्होंने नियमित विद्यार्थी बनकर नहीं, मगर पत्राचार के माध्यम से इन्हें प्राप्त किया था। ऐसा देश में लाखों-करोड़ों लोगों ने किया है और ईमानदारी से किया है। उसमें से जितने लोगों ने मोदी-डिग्री प्रकरण के संबंध में जाना होगा, उन्हें कहीं न कहीं अपमान बोध तो हुआ ही होगा। यही नहीं, वे भारतवासी भी जो नरेन्द्र मोदी को आदर देते हैं, आक्रोशित हुए होंगे। अनेक विद्वानों, चिंतकों, साधकों ने कहा है कि ज्ञान और अध्ययन के क्षेत्र में आप जितना अधिक आगे बढ़ते हैं, आपको उतना ही ज्यादा आभास होता है कि आप कितना कम जानते हैं।
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