पहाड़ों पर जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई, तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी। हमने विकास के बहाने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट कर दिया। जोशीमठ इसी अनियोजित विकास की परिणति है। जब हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र ने धरती को हिलाकर नाजुक बना दिया और घरों में दरारें पड़ने के साथ आधारतल घंस रहा है, तब लोगों को जीवन-रक्षा से जुड़ी सच्चाइयों को क्यों छिपाया जा रहा है। स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के विपरीत जिन विकास योजनाओं को चुना है, उनके चलते अगर लोग अपने गांव और आजीविका के साधनों को खो रहे हैं, तो ऐसी परियोजनाएं किसलिए और किसके लिए।
अब रेल और बिजली के विकास से जुड़ी कंपनियां दावा कर रही हैं कि धरती निर्माणाधीन परियोजनाओं से नहीं धंस रही है, लेकिन किन कारणों से धंस रही है, इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन, जो इस क्षेत्र में तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है, उसकी बिजली उत्पादक कंपनी ने पत्र लिखकर दावा किया है कि इस क्षेत्र की जमीन धंसने में उसकी परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है। उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ रुपए की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है। नदियों पर बांध निर्माण के लिए गहरे गड्ढे खोदकर खंभे और दीवारें खड़ी की जाती हैं। कई जगह सुरंगे बनाकर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होती है, वह पहाड़ की परतों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन, तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में बढ़ जाती हैं। हिमालय क्षेत्र में अनेक रेल परियोजनाएं भी निर्माणाधीन हैं। सबसे बड़ी रेल परियोजना उत्तराखंड के चार जिलों टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली को जोड़ेगी, जिससे तीस से ज्यादा गांवों को विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। छह हजार परिवार विस्थापन के दायरे में आ गए हैं। ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना सवा सौ किमी लंबी है। इसके लिए सबसे लंबी सुरंग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो 14.8 किमी लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बाकी पंद्रह सुरंगों में ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं। इस परियोजना का दूसरा चरण कर्णप्रयाग से जोशीमठ के बजाय अब पीपलकोठी तक होगा। हिमालय की ठोस और कठोर अंदरूनी सतहों में ये विस्फोट दरारें पैदा करके पेड़ों की जड़ें भी हिला रहे हैं। अन्य जिलों के श्रीनगर, मलेथा, गौचर ग्रामों के नीचे से सुरंगें निकाली जा रही हैं। इनमें किए जा रहे धमाकों से घरों में दरारें आ गई हैं। हिमालय की अलकनंदा नदी घाटी ज्यादा संवेदनशील है। रेल परियोजनाएं इसी नदी से सटे पहाड़ों के नीचे और ऊपर निर्माणाधीन हैं। पौड़ी जिले के मलेथा, लक्ष्मोली, स्वोत और देवली में 771 घरों में दरारें आ चुकी हैं। रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हजार करोड़ रुपए की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीच पुल बनाने के लिए मजबूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं। हालांकि ये सड़कें सेना के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। सैनिकों का हिमालयी क्षेत्र में इन सड़कों के बन जाने से चीन की सीमा पर पहुंचना आसान हो गया है। लेकिन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिहाज से जो निर्माण किए जा रहे हैं, उन पर पुनर्विचार की जरूरत है। उत्तराखंड का मानचित्र बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है। चैबीस हजार करोड़ रुपए की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना ने जहां विकास और बदलाव की ऊंची छलांग लगाई है, वहीं इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी है। उत्तराखंड के सबसे बड़े पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। उत्तराखंड में देश की पहली ऐसी परियोजना पर काम शुरू हो गया है, जिसमें हिमनद (ग्लेशियर) की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है। अगर यह परियोजना सफल हो जाती है, तो पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा।
हिमालय की अधिकतम ऊंचाई पर नदी जोड़ने की इस महापरियोजना का सर्वेक्षण शुरू हो गया है। इस परियोजना की विशेषता है कि पहली बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की एक नदी को कुमाऊं मंडल की नदी से जोड़कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा। यही नहीं, एक बड़े भू-भाग को सिंचाई के लिए भी पानी मिलेगा। ‘जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है। इस परियोजना में जिस सुरंग का निर्माण कर पानी नीचे लाया जाएगा, उसके निर्माण में हिमालय के शिखर-पहाड़ों को खोदकर सुरंगों और नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा और विस्फोट से पहाड़ों को शिथिल किया जाएगा। यह स्थिति हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा साबित हो सकती है। हिमालय के लिए बांधों के निर्माण पहले से ही खतरा बनकर कई मर्तबा बाढ़, भू-स्खलन और केदरनाथ जैसे प्रलय का कारण बन चुके हैं। टिहरी में बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई, तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी। इसलिए जोशीमठ का भयावह जो मानचित्र अब दिखाई दे रहा है, वह और विस्तृत होता चला जाएगा। उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं।
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