कालीमठः दानवों का वध करने के बाद माँ काली यहां पर हो गयी थी अंतर्ध्यान


देहरादून। माँ कालीमठ मंदिर के बारे में सबसे अनोखी बात यह है कि यहां मंदिर में कोई मूर्ति नही है, यहां में मंदिर के अंदर भक्तगण कुंड की पूजा करते है, यह कुंड रजतपट श्रीयंत्र से ढका रहता है। केवल पूरे वर्ष में शारदे नवरात्रों में अष्ट नवमी के दिन इस कुंड को खोला जाता है और दिव्य देवी को बाहर ले जाया जाता है और पूजा केवल मध्यरात्रि में की जाती है, जब केवल मुख्य पुजारी मौजूद है।
कालीमठ मंदिर सबसे ताकतवर मंदिरों में से एक है, जिसमें शक्ति की शक्ति है। यह केवल ऐसी जगह है जहां देवी माता काली अपनी बहनों माता लक्ष्मी और माँ सरस्वती के साथ स्थित है। कालीमठ में महाकाली, श्री महालक्ष्मी और श्री महासरस्वती के तीन भव्य मंदिर है। इन मंदिरों का निर्माण उसी विधान से हुआ है जैसा की दुर्गासप्तशती के वैकृति रहस्य में बताया है अर्थात बीच में महालक्ष्मी, दक्षिण भाग में महाकाली और वाम भाग में महासरस्वती की पूजा होनी चाहिए। कालीमठ मंदिर के समीप मां ने रक्तबीज का वध किया था। उसका रक्त जमीन पर न पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है। इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। रक्तबीज शीला वर्तमान समय में आज भी मंदिर के निकट नदी के किनारे स्थित है।
इस मंदिर में एक अखंड ज्योति निरंतर जली रहती है एवम् कालीमठ मंदिर पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित हैं। कालीमठ मंदिर में दानवों का वध करने के बाद माँ काली मंदिर के स्थान पर अंतर्ध्यान हो गयी, जिसके बाद से कालीमठ में माँ काली की पूजा की जाती है। कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना शंकराचार्य जी ने की थी। गांव कालीमठ मूल रूप से और अभी भी गांव ‘कवल्था’ के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि भारतीय इतिहास के अद्वितीय लेखक कालिदास का साधना स्थल भी यही रहा है। इसी दिव्य स्थान पर कालिदास ने माँ काली को प्रसन्न कर विद्वता को प्राप्त की थी। इसके बाद कालीमठ मंदिर में विराजित माँ काली के आशीर्वाद से ही उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें से संस्कृत में लिखा हुआ एकमात्र काव्य ग्रन्थ “मेघदूत” जो कि विश्वप्रसिद्ध है, “रुद्रशूल” नामक राजा की ओर से यहां शिलालेख स्थापित किए गए हैं, जो बाह्मी लिपि में लिखे गए हैं । इन शिलालेखों में भी इस मंदिर का पूरा वर्णन है। मंदिर के नदी के किनारे स्थित कालीशीला के बारे में यह मान्यता है कि कालीमठ में माँ काली ने जिस शीला पर दानव रक्तबीज का वध किया, उस शीला से हर साल दशहरा के दिन वर्तमान समय में भी रक्त यानी खून निकलता है। यह भी माना जाता है कि माँ काली शुम्भ, निशुम्भ और रक्तबीज का वध करने के बाद भी शांत नहीं हुई, तो भगवान शिव माँ काली के चरणों के निचे लेट गए थे, जैसे ही माँ काली ने भगवान शिवजी के सीने में पैर रखा, तो माँ काली का क्रोध शांत हो गया और वह इस कुंड में अंतर्ध्यान हो गई, माना जाता है कि माँ काली इस कुंड में समाई हुई है और कालीमठ मंदिर में शिवशक्ति भी स्थापित
हर साल नवरात्रि में कालीमठ मंदिर में भक्तों की भीड़ का तांता लगा रहता है और दूर-दूर से श्रद्धालु माँ काली का आशीर्वाद लेने के लिए पहुंचते है। इस सिद्धपीठ में पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालु मां को कच्चा नारियल व देवी के श्रृंगार से जुड़ी सामग्री जिसमें चूड़ी, बिंदी, छोटा दर्पण, कंघी, रिबन, चुनरिया अर्पित करते हैं। देशभर में कालीमठ मंदिर एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ पर माँ काली, माँ सरस्वती और माँ लक्ष्मी के अलग अलग मंदिर बने हुए हैं।
कालीमठ मंदिर के बारे में यह मान्यता है कि सच्चे मन से मांगी गयी मनोकामना या मुराद जरुर पूरी होती है।
कालीमठ मंदिर से 8 किलोमीटर की खड़ी उचाई पर स्थित दिव्य चट्टान है जिसको काली शिला के रूप में माना जाता है, जंहा पर महाकाली माता के पैरों के निशान मौजूद है और कालीशिला के बारे में यह कहते है कि माँ दुर्गा ने शुम्भ-निशुम्भ और रक्तबीज दानव का वध करने के लिए कलिशिला में 12 वर्ष की बालिका के रूप में प्रकट हुई थी। कलिशिला में देवी देवता के 64 यंत्र है, माँ दुर्गा को इन्ही 64 यंत्रांे से शक्ति मिली थी।
कहते है कि इस स्थान पर 64 योगनिया विचरण करती है मान्यता है कि इस स्थान पर शुम्भ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी- देवताओं ने माँ भगवती जी की तपस्या की थी। तब माँ प्रकट होकर असुरों के आतंक के बारे में सुनकर माँ का शरीर क्रोध में काला हो गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर के दोनों दैत्यों का संहार कर दिया।

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