टिहरी बांध विस्थपित कहानी

अभय पेड़ के नीचे खड़े होकर निहारने लगा था नीचे दूर बांध की अथाह जलराशि को और खोजे लगा था अपने घर को जल सतह के नीचे कहीं। मन ही मन सोचने लगा था यहां पर रहा होगा नहीं नहीं वहां पर रहा होगा। फिर अचानक जैसे जल की सतह पर उभर आता है धीरे-धीरे सिलेटी छत वाला मकान, आंगन उसमें लगाए दादा जी के आम के विशाल वृक्ष। कानों में सुनाई पड़ने लगते हैं गायों के रंभाने के स्वर, दिखाई पड़ने लगती हैं घास का गट्ठर उठाए भूली (छोटी बहन) और सर पर बंठा उठाए पगडंडी पर धीरे-धीरे पैर बढ़ाती मां। हुक्का गुड़गुड़ाते दादा दादी और उनके सामने चुप बैठी चाची बढ़जी(ताई जी), बुआ जी। फिर एक दूसरे के पीछे भागते, छीना झपटी करते उनके बच्चे। अचानक झील की सतह पर उभर आते हैं पानी से भरे खेत जिनमें रोपाई करती गीत गा रही हैं गांव की महिलाएं, तभी तीव्र गति से दौड़ती हुई आती है मोटर बोट फिर उसकी उठती गिरती लहरों में समा जाता है सब कुछ।
बांध क्या बना रिश्ते नाते जैसे सब कुछ खत्म हो गए। खत्म हो गया कहीं आपसी भाईचारा, दुआ सलाम, मेल मिलाप। दूर शहर में प्रवास के पैसों से लोगों ने बना ली थी बड़ी-बड़ी कोठियां, बड़ी-बड़ी कोठियों में आम भोले भाले सीधे-साधे लोग कैसे रहते। वह हो गए थे बहुत बड़े, बहुत ऊंचे। जो सड़क पर बुक्का (गला) फाड़ चिल्लाए थे, छाती पीट पीट कर रोए थे उन्हें चुप कराने के लिए जब छुप-छुप कर बहुत कुछ दिया गया तब वह सब भी दुम हिला कर चुप बैठ गए थे। मगर कुछ लोग पुनर्वास कार्यालयों के चक्कर लगाते लगाते जब थक गए तब वो भी चुप होकर बैठ गए थे। मंग्सीरू (घर खेत में काम करने वाला निरीह प्राणी) कब उसकी बगल में आ कर चुपचाप खड़ा हो गया था उसे पता भी न चला। मंगसीरू फटी आंखों से अभय को पहचानने की कोशिश कर रहा था।
“अरे मंग्सीरु तू कब आया” उसने पूछा था। “अ…भी-अ…भी, आपको खड़ा देखा तो चला आया।” अभय ने देखा उसकी आंखों में गहन हताशा और निराशा के भाव थे। उसकी आंखें जैसे कह रही थीं “टिहरी जब तक थी तभी मुझे क्या मिला था और किसी ने क्या दिया था। अब टिहरी डूब गई नई टिहरी बन गई। सुंदर सुंदर बंगले, ऑफिस, कॉलोनी, बाजार, सड़कें बन गईं तब भी भला मुझे क्या मिला।
वकील साहब जब तक जिंदा थे, हमारा भगवान जिंदा था। उनके साथ हमारा भगवान भी मर गया। हम जैसे अनाथ हो गए।” कहते कहते उसकी आंखें भर आई थी अचानक।
अभय को फिर झील की सतह पर उभरता अपना गांव नजर आने लगा फिर शहर, धीरे-धीरे वकील साहब का सफेद सुंदर मकान सतह पर सर उठाने लगता है। तब गांव शहर में उनका सबसे बड़ा मकान, कोठी ना होने पर भी लोग उसको कोठी कहते थे।
सामने आंगन में उभरने लगती है वकील साहब की लंबे हत्थे वाली झूलने वाली लकड़ी की बड़ी कुर्सी और सामने मुवक्किलों के लिए बनी बेंच जिस पर से कुछ उठ कर जा रहे थे तो कुछ आकर बैठ रहे थे। वकील साहब के बैठते है तब कुर्सी जैसे आगे पीछे झूलने लगती थी। वकील साहब फिर अपने मुवक्किलों से बात करने लगते हैं। कितना अच्छा लग रहा है उस झील के दर्पण में अतीत का वह दृश्य आज भी।
कितना सुंदर था वह संयुंक्त परिवार। हर कमरे के दरवाजे से एक दूसरे के पीछे भागते शैतानियां करते बच्चे। बातें करते करते हैं वकील साहब मीठी झिड़कियां देते हैं बच्चों को। बच्चे उन्हें उनकी झिड़कियां पा कर और भी मुस्कराने लगते हैं। कितना अपनापन कितनी मिठास झलक रही थी उस झिड़की में। नए वातावरण में वह भी स्वार्थों के नीचे कहीं गहरे में दफन हो गया था। वकील साहब देहरादून से आ रहे हैं पूरा घर उनकी प्रतीक्षा में बैठा है।
सारे बच्चे तख्त पर बैठे हैं एकटक देख रहे हैं नागराजा की धार को। जैसे ही बस घूं घूं की आवाज के साथ दिखाई पड़ती है खुशी के मारे सारे बच्चे खड़े हो जाते हैं। आंगन में वकील साहब के प्रवेश करते ही सारे बच्चे घेर लेते हैं वकील साहब को।वकील साहब हर बच्चे को कुछ न कुछ बांटते नजर आते हैं। बच्चे मुस्कराते खुशी से चीखते भागते हैं। तभी बड़े से बादल का टुकड़ा झील के ऊपर आ जाता है, फिर सब कुछ दिखना बंद हो जाता है। बादल हटते ही फिर जैसे सुबह हो गई हो। सब भयभीत हैं बांध बनने जा रहा है। बड़ी-बड़ी कंपनियां आ रही हैं। सैकड़ों डंपर, ट्रक, बुलडोजर जीप आ रही हैं। जल्दी ही सब बेघर हो जाएंगे फिर एक दूसरे से दूर-दूर बस जाएंगे। जो कहीं नहीं जाएंगे वो जबरन निकाल दिए जाएंगे। चर्चा हो रही है जितने मुंह उतनी बातें। सब कह रहे हैं अपनी जमीन पर बांध नहीं बनने देंगे। मंगसीरु वकील साहब के ठीक बगल में खड़ा है सहमा सहमा सा। वह धीरे से वकील साहब से पूछता है “साहब मेरा क्या होगा, मैं कहां जाऊंगा।” वकील साहब कहते हैं “तू क्यों परेशान हो रहा है, हम बांध का विरोध करेंगे। हमारा ही घर, शहर क्या डूबाने को रह गया था। क्या दिल्ली, आगरा, मेरठ को डुबो सकते हैं ये लोग।”
मंग्सीरू के चेहरे से भय के बादल कुछ सीमा तक हट जाते हैं। फिर वह कहता है “साहब कल छोटे साहब कह रहे थे मंगू अपनी झोपड़ी खेत से हटा ले और कहीं इंतजाम कर ले अपना, मैं….. कहां जाऊंगा साहब ?”
“अच्छा किसने कहा।” वकील साहब कभी तेज आवाज में नहीं बोलते थे मगर आज उनकी आवाज में कुछ तेजी थी।
” जी जग्गी साहब ने बोला था।”
वकील साहब की आवाज फिर गूंजी “जग्गी, गज्जी बाहर आओ और अपनी बहुओं को भी लाओ।”
आंगन में उस समय बहुत से लोग आए हुए थे। कुछ बांध के बारे में तो कुछ अपने मुकदमों के बारे में वकील साहब से बात करने के लिए।
जब सब घर से कमरों से बाहर आ गए आ गए तब उनकी आवाज सुनाई दी
“सुन लो अच्छी तरह तुम लोग आज और अभी मैं वह खेत और वह झोपड़ी मांग्सीरू के नाम करता हूं। भविष्य में कोई भी उसे परेशान ना करें।” कहते हुए उन्होंने मुंशी को मंग्सीरु के नाम खेत और झोपडी के कागज बनाने को कहा। जो मुंशी ने कभी तैयार नहीं किए। जग्गी और गज्जी का परिवार उस समय सकपका कर अंदर चला गया था।
एक दिन बांध का विरोध करते करते, लड़ते-लड़ते वकील साहब गुजर गए। उस दिन आसमान इतना रोया है कि कभी मानसून के दौरान भी इतना नहीं बरसा होगा। अभय को लग रहा था जैसे उस बारिश में वह अभी भी भीग रहा है। आसमान रोता भी क्यों नहीं। सज्जनता, सहृदयता की ऐसी कोई दूसरी मिसाल नहीं थी उस शहर के पास।
वर्षों पहले कचहरी में वकील साहब से काम मांगने आया था मंग्सीरू का बाप अपनी बीवी के साथ। न जाने क्या दया आई थी वकील साहब को कि दोनों को अपने घर ले आए और घर, खेतों में काम करने के लिए कहा। गाय भैंस की कोठरी के पास ही एक खाली कोठरी दे दी थी उन्हें। उसी कोठरी में मंदबुद्धि मंगसीरू का जन्म हुआ था। तब से लेकर अपने अंतिम समय तक दोनों ने वकील साहब के परिवार की जी जान से सेवा की थी।
उनकी मृत्यु के बाद मंगसीरू की, अपने बच्चों की तरह देखभाल करते रहे थे वकील साहब और मंगसीरू मा बाप के काम संभालने लगा था।
मंगसीरु के बाप ने कभी बताया था वकील साहब को कि कभी उसका बाप दादा राजा साहब के यहां महल में भागीरथी से पानी ढोने का काम करता था। बिना अपनी जमीन, जायदाद, घर के कई पीढ़ियां गुजर गई थीं मंगसीरू के परिवार की टिहरी में, पर रहे मजदूर के मजदूर।
वकील साहब को आभास हो गया था कि एक दिन आंदोलन खत्म हो जाएगा क्योंकि कुछ आंदोलनकारी परदे के पीछे अधिकारियों से सांठगांठ कर चुके थे। किसी ने प्लॉट लेकर, किसी ने नोट लेकर, किसी ने नौकरी ले। इसीलिए उन्होंने मंगसीरू को जमीन और झोपडी देने की बात की थी ताकि उस बेचारे को भी कुछ मुआवजा मिल सके। कुछ दिन बाद अधिकारियों ने शहर को जोड़ने वाले एकमात्र पुल को बंद कर दिया, फिर नदी के पानी रोक दिया। देखते देखते शहर का ऐतिहासिक पुल बांध के गर्भ में समा गया। शहर में अनाज, सब्जी, दूध पहुंचना बंद हो गया। भयभीत होकर गांव के गांव और शहर खाली होने लगा था।
सब विस्थापित कहलाए सबको कुछ न कुछ मिला लेकिन मंगसीरु की कई पीढ़ियां टिहरी में रहने के बाद भी वह विस्थापित नहीं कहलाया। वह कहां का निवासी है कोई नहीं जान सका। किसी सरकारी कार्यालय में उसका नाम दर्ज नहीं था। तभी पास खड़े मंग्सीरू के शब्द उसे सुनाई पड़े –
“साहब क्या बांध बनने का कुछ फायदा हमें भी होगा ? मुझे भी कभी नौकरी मिल पाएगी ? मुझे भी कोई रोजगार मिल पाएगा ? मुझे भी प्लाट मिल पाएगा ? मुझे भी मकान मिल पाएगा ? क्या मैं भी अपने को स्थापित कह सकूँगा ?” वह ऐसे कह रहा था जैसे विस्थापित होना कोई गर्व की बात है।
“क्यों नहीं होगा फायदा, बिजली बनेगी, उद्योग लगेंगे, फैक्ट्रियां खुलेंगी, लोगों को रोजगार मिलेगा, गरीबी दूर होगी, समृद्धि आएगी, गांव शहर- बिजली से जगमगाएंगे, हर तरफ खुशहाली आएगी।” कहते कहते अभय को अचानक लगा जैसे वह स्वयं नहीं उसके भीतर का कोई नेता बोल रहा है। पेड़ के नीचे खड़ा खड़ा अभय सोच रहा था इस बांध में तो लोगों के घर जमीन खेत डूबे मगर
मंगसीरू का तो जैसे अस्तित्व ही डूब गया था। झील की सतह पर फिर उभरते हैं प्राचीन मंदिर, सैकड़ों मकान, लंबा बाजार, गलियां, लड़कों के झुंड, कोर्ट- कचहरी, वह ऐतिहासिक सुंदर घंटाघर जो टिहरी की पहचान था। दूर दिखाई पड़ता है गांव को जोड़ता झूला पुल, स्वामी रामतीर्थ का स्मारक और उनका निवास स्थल, दूर दूर से पहाड़ी कि चोटी पर दमकता राज महल, जो सब झील की अथाह जलराशि में राजशाही के सूर्य की तरह डूब गए थे एक दिन। मंग्सीरू को वकील साहब के बेटों ने वह खेत वह झोपडी कभी नहीं दी, वरना उन विस्थपितों की तरह उसकी भी आज कहीं कोठी होती, कोई अच्छी सी कार होती, उसके बच्चे भी कहीं अच्छे स्कूल में पढ़ रहे होते, जिनके पांवों में कभी चप्पलें भी नहीं होती थीं। और वह भी आज गर्व से कह सकता था मै भी टिहरी बांध का विस्थपित हूं।

—हेमचंद्र सकलानी—