पर्वतीय गांवों में कायम है सामूहिक रूप से धान की रोपाई की समृद्धशाली परंपरा

देहरादून। उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों में आज भी सामूहिक रूप से धान की रोपाई की समृद्धशाली परंपरा कायम है। ग्रामीण महिलाएं बारी-बारी से एक-दूसरे के खेतों में रोपाई करती हैं। इससे जहां काम का बोझ कम हो जाता है, वहीं आपसी सद्भाव भी बना रहता है। बरसात शुरू होते ही नदी, नालों में पर्याप्त पानी होने के बाद इन दिनों धान की रोपाई चल रही है। जहां लोग खेती से दूर होते जा रहे हैं, वहीं पर्वतीय क्षेत्र के कई गांवों में आज भी ग्रामीणों में खेती के प्रति लगाव है। और इस दौर में भी खेती सामूहिक रूप से की जा रही है।

प्रत्येक परिवार की महिलाएं बारी-बारी से एक-दूसरे के खेतों में रोपाई का कार्य करती हैं।  रोपाई का कार्य काफी कठिन होता है ऐसे में सामूहिक रूप से कार्य करने से इसमें आसानी होती है। रोपाई के दौरान कुछ गांवों में महिलाएं लोकगीत भी गाती हैं, जिससे समय का पता नहीं चल पाता। रोपाई के बाद घर में तैयार हलुवा, आलू के गुटके और रोठी सभी एक साथ बैठकर खाते हैं। गांवों में कार्यों में आज भी सामूहिक भावना देखने को मिलती है। वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है, इससे जहां काम का बोझ कम हो जाता है वहीं ग्रामीणों में भाईचारे की भावना भी कायम रहती है। इन दिनों धान की रोपाई में ग्रामीण व्यस्त हैं। उनरकाशी जिले के रवांई घाटी में ढोल बजाओ के साथ रोपाई होती है। हर दिन एक परिवार की रोपाई पूरे ग्रामीण मिल जुल कर पूरा करते हैं। शाम को पुनः पूरा गांव एक साथ एक आंगन में रात्रि भोज का आनंद लेते हैं और अगले दिन किस परिवार की रोपाई होगी, इस पर फैसला लिया जाता है। रवांई घाटी के रामा सेराई के मठ, मुल्टाणई, पोरा, मेहर गांव कंडियाल गांव गुंदियाटगांव, रौन, रामा गांव, सुनाडी गांव, पुरोला गांव, खलाडी में आज भी सदियों से चली आ रही ढोल बजाओ के साथ रोपाई की परम्परा को निभाया जा रहा है। ग्रामीण रोपाई के समय जीतू बगड़वाल के जागर गाते हैं। हालांकि समय के साथ पहाड़ी बेम गीतों ने भी इसमें जगह बना ली है किंतु पुराने लोकगीत आज भी बखूबी गए जाते हैं। कितने गते अषाढ़ को किस जाति के लोग रोपाई करते हैं, यह निश्चित किया होता है। ग्रामीण इस परंपरा का निर्वाह सदियों से कर आ रहे हैं। राज्य के कुछ ग्रामीण इलाकों में विशेषकर कुमां। क्षेत्र में हुड़किया बौल के साथ धान की रोपाई की जाती है। हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना। धान की रोपाई व मंडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंघ्, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है, फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं। हुड़के को थाप देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं।