कोरोनाकाल में जन चेतना

■ डॉ. सम्राट् सुधा
कोरोना की समाप्ति को लेकर सरकारी प्रयासों य उनकी उचित – अनुचित श् समीक्षाओं श् और वैयक्तिक प्रयासों के साथ , बचाव के नियमों की धज्जियां उड़ाना भी सम्मिलित है ! हम इतने लापरवाह हैं कि स्कूटर पर हेलमेट लगवाने से लेकर कोरोनाकाल में मास्क लगवाने तक के लिए जुर्माना सरकार को तय करना पड़ता है ! चालान कटने के बाद भी लोग हैलमेट व मास्क लगाते नहीं हैं य पुलिस – जाँच दिखने पर पतली गली से निकलना चाहते हैं और धर लिये जाने पर उच्च सम्बंधो का सहारा ले या भय दिखाकर हर सम्भव कोशिश करते हैं कि जुर्माना न देना पड़े । यह सब अपनी जान की कीमत पर किया जाता है !
गत वर्ष जब कोरोना के कारण मृत्य- दर बढ़ी थी, तो मास्क मानो सभी के परिधान का हिस्सा हो गया था , परन्तु जुलाई का अंत होते – होते लगभग सत्तर प्रतिशत लोगों ने मास्क का प्रयोग बंद कर दिया था य बीस प्रतिशत ने उसे गले में लटकाना शुरु कर दिया , मात्र दस प्रतिशत ही पूर्णतः मास्क का प्रयोग कर रहे थे । इस वर्ष के मार्च माह में कोरोना की दूसरी लहर आने के संकेत मिलने लगे थे , तब तक मास्क को सही तरीके से प्रयोग करने वाले मात्र पंद्रह प्रतिशत ही हो पाये थे , परन्तु इस मध्य रेस्टोरेंट्स , होटल्स , वैवाहिक व अन्य समारोहों में खानेपीने से लेकर अपार भीड़ जमा होना सामान्य हो चुका था ! मेरे पास अप्रैल के एक साहित्यिक समारोह का उदाहरण है , जिसमें मंचासीन एक भी विशिष्ट व्यक्ति ने मास्क नहीं लगाया हुआ था य श्रोताओं में लगभग नब्बे प्रतिशत मास्क – विहीन थे य लगभग पाँच प्रतिशत ने गले में लटकाया हुआ था और मुझ सहित लगभग पाँच प्रतिशत ने ही सही रूप में लगाया हुआ था !कहने का भाव मात्र इतना है कि लापरवाही के सम्बंध में प्रत्येक शिक्षा वर्ग य आय वर्ग य जाति वर्ग आदि की स्थिति समान ही है ! हम बस बातों के उस्ताद हैं , अनुकरण बहुधा शून्य ही है !
इस बार कोरोना का चक्र चलने पर इलेक्ट्रॉनिक सोशल मीडिया का जो दुरुपयोग किया गया है, वह सभी के हाथों में संचार – साधनों की उपलब्धता के पुनर्विवेचन की आवश्यकता दर्शाता है ! भारत में अभी तक श् हर कोई चिकित्सक श् की बात मशहूर थी , लेकिन इस कोरोनाकाल में श् हर कोई पत्रकार श् की एक नयी , परन्तु दुःखद स्थिति व उक्ति सामने आयी है ! जिसके हाथ जो सूचना लगी , उसने झट अन्य को व्हाट्सएप की ! बीमारों की कतारों से लेकर शवों के चित्र तक अग्रसारित करने वाले इन श् टेबल जर्नलिस्ट्स श् ने यह तक नहीं सोचा कि आवश्यक नहीं कि उन्हें पाने व देखने वाला भी उन्हीं की तरह मजबूत मन वाला हो ! हममें से अधिकांश श् बात – वीर श् तो हैं ही , सो इधर कोई भयावह सूचना मिली , मिलाया तुरंत किसी को फोन ! वह किस मानसिकता में क्या सोच या कर रहा है, बात- वीर को इससे क्या लेना – देना ! मोबाइल के बटन और जिह्वा दोनों से हम क्या कर रहे हैं, इस पर दृष्टि कम की ही होती है !
फलतः इस कोरोना- काल में भय व भय के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा भी शोध का विषय है।
मोबाइल फोन हाथ में हो और हम उससे श् ज्ञानार्जन श् ना करें , ऐसा हो ही नहीं सकता ! कोरोना- काल में मोबाइल सेवा- प्रदाता कम्पनियों की चांदी कटी ! मोबाइल फोन्स पर कोरोना सम्बद्ध खबरों के दर्शक बढे और इन्हीं श् ज्ञानियों श् ने मोबाइल फोन से श् टेबल जर्नलिज्म श् के एक ऐसे स्वरूप को बढ़ा दिया, जिससे हानि ही बढ़ी ! टीवी पर लगभग प्रत्येक चैनल को आज एक ना एक ऐसा कार्यक्रम दिखाना पड़ रहा है , जिसमें बताया जाता है कि मोबाइल फोन्स पर वायरल हो रहे उक्त वीडियोज श् फेकश् हैं या श् सच्चे !श् सुबह से शाम तक वाइरल हो रहे वीडियोज जब तक यह पता चलता है कि झूठे य वर्षों पुराने और अनेक बार तो हमारे देश तक के नहीं , तब तक वे अपना दुष्प्रभाव दिखा चुके होते हैं । जो समय हमें अपनों व अन्य के भी सहयोग य वैयक्तिक आध्यात्मिक चिंतन तथा सर्जन में लगाना चाहिए , वह अनेक ऐसी सूचनाओं के प्रचार – प्रसार में लगा रहे हैं, जो स्वयं उनके पास कहीं से आयी है और जिसे अग्रसारित करने का उन्हें वस्तुतः कोई अधिकार भी नहीं है। जहाँ हमें सचेत होना चाहिए , वहाँ हम श् बक्कड़ श् हो जाते हैं और जहाँ हमें बोलना ही चाहिए , वहाँ हम सहम जाते हैं !
कोरोनाकाल में पुनः यह स्पष्ट हुआ है कि देश के अधिकांश जन वैयक्तिक व अन्य प्रचार – प्रसार माध्यमों के प्रयोग को लेकर परिपक्व नहीं हैं । मोबाइल फोन्स ने सभी को वीडियो- शूटर व पत्रकार बना दिया है । उचित प्रशिक्षण व तात्त्विक दृष्टि के अभाव में श् बंदर के हाथ में उस्तरा श् है , वह स्वयं को ही नहीं , अन्य को भी आघात पहुँचा रहा है ! यह पारिवारिक कमी है य शैक्षिक संस्थाओं की य नेताओं की य समाजसेवियों की या अंततः किसी भी बात को सतही लेने वाले खुद हमारी , चिंतन अपरिहार्य है !!
■ डॉ . सम्राट् सुधा
94- पूर्वावली , गणेशपुर ,
रुड़की – 247667 , उत्तराखंड