–डाॅ. समीर कपूर–देहरादून। उत्तराखंड राज्य के पिछले सप्ताह हुई घटनाएं बहुत दर्दनाक और कष्टप्रद रहीं। चमोली जिले में सात फरवरी को आई अचानक बाढ़ से जान और माल का काफी नुकसान हुआ। अभी तक 53 लोगों की मौत हो चुकी है और 150 से ज्यादा लोग लापता हैं। एक तरफ जहां वैज्ञानिक और भू विज्ञानी इस प्राकृतिक आपदा का सही कारण जानने में जुटे हैं, वहीं यह माना जा रहा है कि 5500 मीटर की उंचाई पर हुए एक भूस्खलन से यह एवलांच हुआ और इससे गंगा की सहायक नदियों धौलीगंगा, ऋषिगंगा और अलकनंदा में अचानक बाढ़ आ गई। प्रकृति के इस कोप का सबसे पहले निशाना बना 12.2 मेगावाॅट का ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट जिसके मलबे ने अन्य हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स को भी नुकसान पहुंचाया। इनमें एनटीपीसी का 520 मेगावाॅट का निर्माणाधीन तपेावन विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट और टीएचडीसी का पीपलकोटी ( 4 गुणा 111 मेगावाॅट) प्रोजेक्ट शामिल हैं। जब मैं यह लिख रहा हूं उस समय भी कई बचाव एजेंसियां और एनटीपीसी की टीम के सदस्य तपोवन प्रोजेक्ट के लिए बनाई गई सुरंग में फंसे श्रमिकों तक पहुंचने की चुनौती का सामना कर रहे हैं।
लोगों को बचाने के लिए किए जा रहे भरपूर प्रयासों पर सबका फोकस है (पहले ही दिन 12 श्रमिकों को जिंदा निकाल लिया गया था)। लेकिन इस प्राकृतिक आपदा ने एक बार फिर हिमालय के संवेदनशील पारिस्थितिकीय क्षेत्र में बडे़ निर्माण कार्यांे, इस क्षेत्र के ग्लेशियर्स पर इनके दीर्घकालीन प्रभावों, बारिश के बदलते पैटर्न और बढ़ते तापमान के कारण इस क्षेत्र में पानी के चक्र पर पड़ते प्रभाव के बारे में चल रही बड़ी बहस को जिंदा कर दिया है। इस क्षेत्र में गंगा की सहायक नदियों में कई जगह हाइड्रो आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र लगे हुए हैं। लेकिन यह संयंत्र अब एक्टिविस्ट और पर्यावरणविदों के निशाने पर आ रहे हैं। चार धाम प्रोजेक्ट को इसके लिए दोषी माना जा रहा है, जिसके तहत बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री जैसे चार पवित्र धार्मिक स्थलों को 900 किलोमीटर लम्बी सडक के जरिए जोड़ा जा रहा है। हालांकि इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आ चुकी हंै, जब हिमालय में ना सड़कें थीं और ना ही हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट थे। यह ठीक है कि ऐसे नाजुक क्षेत्रों में किसी भी तरह के निर्माण के पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय प्रभाव का ध्यान रखना जरूरी है, लेकिन ऐसे दूरस्थ क्षेत्रों के लिए विकास परियोजनाएं भी जरूरी हैं, ताकि इन क्षेत्रों में भी समृद्धि आ सके और यहां विकास के अवसर पैदा हो सकें। प्रकृति और विकास के बीच किसी के एक के चुनाव को लेकर विवाद लम्बे समय से चल रहा है, लेकिन यह एक ऐसी रस्सी है, जिस पर चलने में नीति निर्माताओं, नागरिकों और सरकार को बहुत संतुलन बनाए रखने की जरूरत है। हालांकि हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं को दोषी ठहराना और इन्हें बंद करने की मांग करना स्वाभाविक है और तुरंत आने वाली प्रतिक्रिया है, लेकिन इस मामले में किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले बहुत सोचने और समझने की जरूरत है।
हाइड्रोइलेक्ट्रिक बिजली से कई महत्वपूर्ण लाभ मिलते हैं, क्योंकि यह उर्जा का नवीकरणीय साधन है और इसकी पुनरावर्ती लागत बहुत कम है। इसलिए इसके लिए दीर्घावधि में बहुत ज्यादा खर्च करने की जरूरत नहीं पडती है। यह कोयले और गैस से मिलने वाली बिजली के मुकाबले भी सस्ती है। यह फ्रीक्वेंसी में आने वाले उतार चढाव से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम करती है और जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल नहीं होने के कारण महंगी भी नहीं होती। इसके अलावा हाइड्रो और थर्मल स्टेशंस की परिचालन आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो जाती है और संतुलित मिश्रण से क्षमता का अधिकतम उपयोग हो पाता है। तेजी से चालू और बंद होने की अपनी अनूठी क्षमता के कारण हाइड्रो पावर स्टेशन ग्रिड में पीक लोड का सामना करने के मामले में भी किफायती माने जाते हैं। हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट दूरस्थ समुदायों तक बिजली पहुंचाने के लिए भी जरूरी है, अन्यथा ये क्षेत्र मुख्य धारा के विकास से वंचित रह सकते हैं।
कहा जाता है कि उत्तर में विशाल हिमालय और देश के अन्य हिस्सों में स्थित पर्वतीय घाटियों के बावजूद इन परियोजनाओं पर बहुत ज्यादा काम नहीं किया गया है। मौजूदा 3.75 लाख मेगावॅट की क्षमता में हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की भागीदारी सिर्फ 12 प्रतिशत यानी 46 हजार मेगावाॅट से भी कम है। भारत 2030 तक अपनी कुल उत्पादन क्षमता का 60 प्रतिशत यानी करीब 510 गीगावाॅट का उत्पादन स्वच्छ उर्जा स्रोतों से प्राप्त करना चाहता है। इसमें से भी सिर्फ 60 गीगावाॅट या 12 प्रतिशत से भी कम हाइड्रो प्रोजेक्ट्स से लिया जाएगा। इसके मुकाबले 2018 में पूरी दुनिया में 1295 गीगावाॅट उत्पादन हाइड्रोइ पावर से हो रहा था जो विश्व की नवीकरणीय उर्जा क्षमता का करीब 55 प्रतिशत है। जहां उत्तराखंड के टिहरी में स्थित भारत के सबसे बडे हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की क्षमता सिर्फ 2400 मेगावाॅट है, वहीं चीन का थ्री गाॅर्जेस प्रोजेक्ट दुनिया का सबसे बडा प्रोजेक्ट है, जिसकी क्षमता 22 हजार 500 मेगावाॅट है और यह टिहरी का 10 गुना है।
ऐसे में यह साफ है कि समस्या आसान नहीं है और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए होे रहे निर्माण को दोषी ठहराने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि जैसे विकास की गति बढ़ रही है, कई बडे़ मुद्दे सामने आ रहे हैं और इनका सामना भारत ही नहीं पूरा विश्व कर रहा है। हालांकि मैं फिर कहना चाहूंगा कि यह विकास पर्यावरण को स्थायी क्षति पहुंचा कर नहीं किया जाना चाहिए। वहीं कम्पनियों को भी ऐसे प्रोजेक्ट बनाते समय ना सिर्फ सारे नियमों का पालन करना चाहिए, बल्कि एक कदम आगे बढ़कर आसपास के पर्यावरण को बचाने के लिए ज्यादा से ज्यादा पेड लगाने और जलस्रोतों को बढ़ाने का काम करना चािहए।
मुझे विश्वास है कि सार्वजनिक क्षेत्र की प्रतिष्ठित कम्पनी एनटीपीसी लिमिटेड, जिसका मजबूत सुरक्षा रिकाॅर्ड रहा है, उसने इस प्रोजेक्ट के लिए तपोवन का स्थान सभी पहलुओं तथा पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में रखते हुए चुना होगा। इसके साथ ही कोई भी प्रोजेक्ट या इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐसी प्राकृतिक आपदा का सामना नहीं कर सकता, जिसकी कोई पूर्व चेतावनी ना हो और जो कुछ करने का मौका ही ना दे। वास्तव में तो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने 7 फरवरी की प्राकृतिक आपदा के बाद न्यूज चैनलों को बताया था कि एनटीपीसी के तपोवन बैराज ने इस अचानक बाढ़ को काफी हद तक रोका है और इससे निचले इलाकों के गांवों को बचाने में काफी मदद मिली, अन्यथा जान और माल का बहुत भारी नुकसान हो सकता था।
यहां निश्चित रूप से कुछ बड़ी ताकतें काम कर रही हैं और इसीलिए पूरे विश्व को मिल कर पर्यावरण को हुए नुकसान को सही करने के लिए मिल कर काम करना चाहिए। पर्यावरणविदों के अनुसार ग्रीन हाउस गैसेेज के उत्सर्जन और इससे होने वाली ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक और अंटार्कटिका की तरह हिमालय जहां दो धु्रवों के बाद सबसे ज्यादा स्थायी बर्फ का आवरण है, वह दुनिया के बाकी हिस्सों के मुकाबले ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है। यहां का तापमान पिछली एक सदी में तेजी से बढ़ा है। हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। वहीं अब यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इस सदी के अंत तक इस क्षेत्र की 50 प्रतिशत बर्फ पिघल जाएगी। इससे ना सिर्फ जबर्दस्त बाढ़ आएगी, बल्कि फसलें खराब होंगी, सूखे की समस्या बढे़गी और पानी का संकट पैदा होगा। यह स्पष्ट है कि हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती है। 7 फरवरी की आकस्मिक बाढ़ सिर्फ एक चेतावनी है। पर्यावरण की यह गुत्थी सुलझाने के लिए छोटे-मोटे प्रयासों से कुछ नहीं होगा, क्योंकि यह सिर्फ भारत नहीं, बल्कि पूरे विश्व की समस्या है और इसके लिए भागीरथी प्रयास करने होंगे।
(लेखक – डाॅ. समीर कपूर, अनेक प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थानों के साथ विजिटिंग फैकल्टी के तौर पर जुड़े हैं और इनमें मार्केटिंग मैनेजमेंट तथा कंज्यूमर बिहेवियर के बारे मे पढ़ाते हैं।)